scorecardresearch
 

मनमोहन का अमेरिका दौरा: बहुत हासिल नहीं मुलाकात में

मनमोहन सिंह अमेरिका की यात्रा कर भारत लौट आएं हैं. इस यात्रा से क्‍या हासिल हुआ यह जानना महत्वपूर्ण होगा. भारत-अमेरिका के बीच शिखर सम्मेलन को कूटनीति की रिक्टर स्केल 3.0 आंका गया और कहा गया कि यह एक हल्का झटका बनकर रह गया.

Advertisement
X

{mosimage}बराक ओबामा के पहले राजकीय भोज को इस शासन के वाशिंगटन के सबसे भव्य और गर्मजोशी भरे समारोह में शुमार होना ही था. व्यंजनों की सूची काफी सावधानी से और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आम तौर पर शाकाहारी पसंद को ध्यान रखते हुए तैयार की गई थी. सूची में सबसे ज्‍यादा मसालेदार व्यंजन थे ''भुने आलू की पकौड़ियां साथ में टमाटर की चटनी, छोले और भिंडी, हरे शोरबे वाले झींगे, भुनी शक्कर डले कचालू के साथ पत्ता गोभी और नारियल वाले बासमती चावल.'' अपने सहयोगियों के साथ मनमोहन सिंह और ओबामा की दिन भर की मुलाकात के समापन के लिए विशेष रूप से तैयार साउथ लॉन में बारिश से बचने के लिए विशेष पंडाल लगाया गया, जहां आधिकारिक रात्रि भोज हुआ. विदेशी कलाकारों के संगम, जिसमें ऑस्कर पुरस्कार विजेता गायिका तथा अभिनेत्री जेनिफर हडसन और संगीतकार ए.आर.रहमान, शिकागो के जॉज संगीतकार कर्ट एलिंग शामिल थे, ने अपनी बेहतरीन प्रस्तुतियों से शाम को जीवंत बना दिया. हालांकि सुनियोजित द्विपक्षीय वार्तालाप के यही कुछ हल्के-फुल्क क्षण थे.

यह शिखर भेंट अपने आप में ही जोश रहित लग रही थी. थैंक्स गिविंग के प्रमुख राष्ट्रीय अवकाश और ताजा अमेरिकी-चीन संवाद, जिसकी प्रतिच्छाया इस वार्तालाप पर भी पड़ी, के बीच पड़ने के कारण मनमोहन की यात्रा में विचारों से अवगत करवाने के लिए ज्‍यादा मौके नहीं थे. उम्मीद की जा रही थी कि ओबामा इस बात की ताईद करेंगे कि वे भी भारत को उतना ही महत्व और प्राथमिकता देंगे जितनी पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने दी थी. शिखर सम्मेलन में भारत-अमेरिका परमाणु समझैते जैसे किसी बड़े और महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा या समझैता होने की आशा किसी ने भी नहीं की थी. नतीजतन शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और विज्ञान जैसे विभिन्न विषयों पर के छोटे समझैते, जिन्होंने द्विपक्षीय संबंधों को एक नई ऊंचाई पर तो पहुंचाया लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे बेहद महत्वपूर्ण या उल्लेखनीय कहा जा सके.

यह मुलाकात विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के उस  वक्तव्य के अनुरूप भी नहीं रही जिसमें उन्होंने कहा था कि शिखर भेंट भारत-अमेरिका 3.0- संबंधों में एक नए अध्याय की शुरूआत का संकेत होगी. अमेरिका में भारत के पूर्व राजदूत ललित मानसिंह, इस सम्मेलन को कूटनीति की रिक्टर स्केल पर और भी नीचे, तीसरे क्रम पर रखते हैं. उनका कहना हैः ''ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे कुछ हलचल हो. हालांकि सब कुछ ठीक रहा, लेकिन यह एक सामान्य दौरा ही था.'' अमेरिका में भारत के एक और पूर्व राजदूत नरव्श चंद्र कहते हैं: ''ओबामा ने मनमोहन सिंह के दौरे को संतोषजनक और भारत को अमेरिका का स्वाभाविक साझेदार बताया तो उनकी भावभंगिमाएं उत्साह से भरपूर थीं. यह संबंधों को आगे बढ़ाने का मौका था.''

कूटनीतिक मोर्चे पर सबसे ''बड़ा'' नुक्सान रहा बीजिंग के साथ संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने के बाद ओबामा का भारत और चीन के बीच समानता कायम करने का दबा-ढका प्रयास. अमेरिका-चीन के उस साझ बयान पर दिल्ली ने नाखुशी जताई थी. पहले उठाए गए गलत कदम पर एक तरह से फिर चलते हुए ओबामा ने संयुक्त पत्रकार वार्ता में कहा, ''भारत एक तेजी से बढ़ती और जिम्मेदार शक्ति है. एशिया में, भारतीय नेतृत्व पूर्व क्षेत्र में समृद्धि और सुरक्षा का विस्तार कर रहा है. एशिया में शांति और स्थायित्व को बढ़ावा देने में भारतीय नेतृत्व की भूमिका का अमेरिका स्वागत करता है और इसे प्रोत्साहन देता है.'' वाशिंगटन के सम्मानित थिंक टैंक-काउंसिल ऑफ फॉरव्न रिलेशन्स में भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा चीन के ''आक्रामक रवैए'' को लेकर की गई स्पष्ट टिप्पणी के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए ओबामा साफ तौर पर अपने वक्तव्य के जरिए भारत की तनी हुई नसों को शांत करना चाह रहे थे. लेकिन जब बात आती है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की उम्मीदवारी को समर्थन देने की, तो मानसिंह के मुताबिक इस मामले में ओबामा कुछ भी स्पष्ट नहीं कहते और बगैर प्रतिबद्धता के बड़े-बड़े वक्तव्य देते हैं.{mospagebreak}चीन के अलावा विदेश नीति से संबंधित एक और मुद्दा जो दौरे में प्रमुखता से उभरा, वह था अफगानिस्तान को लेकर बढ़ती अनिश्चितता का. मुलाकात के दौरान ओबामा ने अफगानिस्तान में अमेरिकी अभियान के प्रभारी अमेरिकी जनरल के बयानों से उपजी इस धारणा कि अफगानिस्तान में बुनियादी संरचना के निर्माण में भारत के शामिल होने का कोई लाभ नहीं है क्योंकि इससे पाकिस्तान में नाराजगी है, को भी दुरुस्त किया. अफगानिस्तान में भारत की भूमिका का समर्थन करते हुए ओबामा इस दिशा में आगे बढ़कर और बात करने के इच्छुक नहीं दिखे कि इसमें मसले में भारत का और क्या योगदान हो सकता है जिसमें संभावित रूप से अफगानिस्तान के सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण देना भी शामिल है.

पाकिस्तान के मसले पर ओबामा ने मुंबई हमलों के जिम्मेदार लोगों को सजा दिलाने पर जोर दिया. दोनों नेताओं ने अपने संयुक्त बयान में ''भारत के पड़ोसी देश में पनपते आतंकवाद और हिंसक कट्टरतावाद से उत्पन्न खतरे, जिसका असर इस क्षेत्र से परे जा रहा है,'' पर गहरी चिंता जताई. मनमोहन सिंह और ओबामा ने संयुक्त प्रयास के तहत ''आतंकवाद-विरोध पर सहयोग बढ़ाना, जानकारी को साझा करना और क्षमता निर्माण'' के लिए आतंकवाद-विरोधी साझ पहल की घोषणा की. लेकिन धारणा वही की वही रही कि ओबामा ने पाकिस्तान पर उतना दबाव नहीं बनाया जितना भारत चाहता था.

परमाणु समझैते के पूरे होने में रही-सही कसर मनमोहन सिंह के इस दौरे में पूरी हो जाएगी, इसकी उम्मीद भी गलत साबित हुई. माना जा रहा है कि अमेरिका ने परमाणु अप्रसार की जरूरत के और अधिक विवरण तथा आश्वासन दिए जाने पर जोर दिया है जिसके कारण दोनों ही पक्ष पुन:प्रसंस्करण से संबंधित समझैते पर नहीं पहुंच पाए हैं. भारतीय पक्ष ने इस मसले को ज्‍यादा तूल नहीं दिया और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, ''राष्ट्रपति ने इस बात की पुष्टि फिर से की है कि परमाणु समझैते को जल्द से जल्द अमल में लाना हमारी दोनों सरकारों का संकल्प है. बस कुछ और औपचारिकताएं पूरा करना बाकी है.'' जलवायु परिवर्तन के मसले पर, अमेरिका क्योटो प्रोटोकॉल से पीछे नहीं हटने, विकासित देशों द्वारा गैस उत्सर्जन पर और कड़ाई से लगाम लगाने और विकासशील देशों को इस बाबत धन मुहैया कराने तथा साधनों के रूपांतरण करने के भारत के रुख के समर्थन में नजर आया. द्विपक्षीय संबंधों में और गर्मजोशी दिखाते हुए ओबामा ने मनमोहन सिंह द्वारा उन्हें दिया गया अगले वर्ष भारत के दौरे पर आने का न्यौता स्वीकर कर लिया.

ओबामा प्रशासन के लिए इस दौरे का समय कम फायदेमंद नहीं रहेगा क्योंकि यह दौरा ऐसे समय हुआ जब अमेरिका लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था, 10 फीसदी अतिरिक्त बेरोजगारी, दो भारी भरकम खर्चीली तथा न जीती जा सकने वाली लड़ाइयों और स्वास्थ्य देखभाल संबंधी अरबों डॉलर के विधेयक पर चल रहे कटु अंदरूनी संघर्ष में उलझ हुआ है. इतना सब कुछ संभाल सकने की इस युवा राष्ट्रपति की क्षमता को लेकर धीरे-धीरे बढ़ रहे संशय के कारण एक साथ इतनी समस्याएं जुड़ती चली जा रही हैं. यहां तक कि ओबामा के कुछ जोशीले प्रशंसकों का उत्साह भी ओबामा के अभी तक के प्रदर्शन को देखकर ठंडा पड़ता जा रहा है. उनका कहना है कि जब तक ओबामा और उनके सलाहकार एक गहरी और दीर्घकालिक रणनीति नहीं बनाते, तब तक तो संकेत आशाजनक नहीं लगते. यह पता लगाना मुश्किल है कि इस सब में भारत की क्या भूमिका है, सिवाए शब्दाडंबरपूर्ण भाषा में उसे अमेरिका का ''अपरिहार्य वैश्विक साझेदार'' व्याख्यायित किए जाने के. लंबे समय से यही महसूस होता आ रहा है कि जब भी नए प्रशासन के अंतर्गत अमेरिका के साथ संबंधों की बात आई, तब भारत अमेरिका की प्राथमिकता में चीन के बाद ही होता है.

Advertisement
Advertisement