भले ही बैलों की मदद से चलने वाले कोल्हू अब कम नजर आते हों, लेकिन यह तकनीक अभी भी कारनामा करने का माद्दा रखती है. भिलाई में कोल्हू से बिजली पैदा करने की तकनीक ईजाद कर ली गई है.
भिलाई के शंकराचार्य इंजीनियरिंग कॉलेज के मैकेनिकल विभाग की टीम ने कोल्हू तकनीक से विद्युत उत्पादन इकाई तैयार कर ग्रामीण भारत के लिए एक उपयोगी यंत्र उपलब्ध कराया है. पशुओं की मदद से चलने वाली यह मशीन न केवल सस्ती है, बल्कि इसके प्रयोग से बिजली की कमी से जूझ रहे ग्रामीण इलाकों में भी बिजली आई जा सकती है.
शंकराचार्य इंजीनियरिंग कॉलेज के मेकेनिकल विभाग के प्रवक्ता शरद कुमार चंद्राकर, एमई के छात्र धनंजय कुमार यादव, ललित कुमार साहू और धीरज लाल सोनी ने तीन महीने की मेहनत के बाद इस सस्ते यंत्र को विकसित किया.
गौरतलब है कि दल के सभी सदस्य किसान वाली पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं. उन्होंने ग्रामीण इलाकों में बिजली की समस्या को ध्यान में रखकर ही इसे विकसित किया है. चंद्राकर ने बताया कि कोल्हू की तर्ज पर बनाए गए इस प्रोजेक्ट में चार जोड़े विभिन्न आकार के गियर, एक जोड़ी पुल्ली और बेयरिंग का इस्तेमाल किया गया है. एक हैंडल को कोल्हू की शक्ल दी गई है, जिसे बैल घुमाते हैं.
उन्होंने बताया कि बैलों के घुमाने पर आठों गियर घूमने लगते हैं और उससे पुल्ली के माध्यम से जुड़ा कार का अल्टरनेटर घूमने लगता है. अल्टरनेटर से डीसी वोल्ट पैदा होने लगता है, जो एक बैटरी को चार्ज करता है. बैटरी पूरी तरह चार्ज होने के बाद इनवर्टर के माध्यम से एसी करंट पैदा कर उसे इस्तेमाल में लाया जाता है.
इस यंत्र के माध्यम से बैल की एक घंटे की मेहनत से 5 घंटे 40 मिनट की बिजली पैदा की जा सकती है. बैलों के एक चक्कर में अल्टेरनेटर 1500 बार घूमता है. इस तरह बैटरी जल्दी चार्ज हो जाती है. एक घंटे में तैयार हुई बिजली से 0.5 HP पंप को 5 घंटे 40 मिनट तक चलाया जा सकता है और 14 हजार लीटर पानी निकाला जा सकता है. इसके अलावा इससे पैदा हुई बिजली से अन्य घरेलू काम भी किए जा सकते हैं.
चंद्राकर ने आगे बताया कि इसे बनाने में उतना ही खर्च आ रहा है, जितना कि एक किसान का सालभर का बिजली खर्च आता है. चंद्राकर के अनुसार, इस संयंत्र को बनाने में 23 हजार रुपये की लागत आती है. इसके अलावा यह प्रदूषण मुक्त भी है.