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लाल आतंक के खिलाफ अब आक्रामक अभियान

1967 में एक किसान विद्रोह के रूप में शुरू हुए आंदोलन ने देश के 29 में से 20 राज्‍यों को अपनी लपेट में ले लिया है, जिनमें से सात राज्‍य तो बुरी तरह प्रभावित हैं. माओवादियों की हिंसा से इस साल अब तक 600 लोग मारे जा चुके हैं.

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भारतीय राज्‍य-व्यवस्था के खिलाफ माओवादियों के दिनोदिन गंभीर होते जा रहे युद्ध का रक्तरंजित प्रतीक है गढ़चिरोली की घटना. इस घटना को माओवादियों ने केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम की इस कड़ी चेतावनी के एक दिन बाद ही अंजाम दिया कि वे या तो हथियार डाल दें, या फिर नतीजे भुगतने को तैयार रहें. माओवादियों ने गढ़चिरोली जिले के लाहेरी में पुलिसवालों के दल पर घात लगाकर हमला कर दिया. बंदूकों की लड़ाई में 17 पुलिसवाले मारे गए. महाराष्ट्र- जहां माओवादी (नक्सली) खासे सक्रिय हैं- में यह अब तक का सबसे बड़ा हत्याकांड है.

बेहद परिष्‍कृत हथियारों से लैस होते हैं उग्रवादी
{mosimage}गढ़चिरोली की भौगोलिक स्थिति आतंकवादियों को नक्सल प्रभावित महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश के एक से दूसरे क्षेत्र में आसानी से जाने की सहूलियत देती है. यह हमला उनके बढ़ते आतंक के एक अन्य कारनामे- झरखंड में एक खुफिया पुलिस अधिकारी का सिर कलम किए जाने-के कुछेक दिनों बाद ही किया गया. सशस्त्र माओवादियों ने झरखंड में खूंटी जिले के हेंब्रम बाजार से पुलिस अधिकारी फ्रांसिस इंदुवर का अपहरण कर लिया था. फ्रांसिस उनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी जुटाने में लगे थे. सन्‌ 2004 से अब तक 5,000 पुलिसवाले, उग्रवादी और नागरिक मारे जा चुके हैं. पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार फिर जोर देकर कहा कि माओवादी देश की आंतरिक सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा बन चुके हैं. उनसे निबटना बड़ी चुनौती है क्योंकि वे सघन वनों में सक्रिय रहते हैं, स्थानीय भूगोल की विस्तृत जानकारी रखते हैं, उन्हें गरीब ग्रामीणों का सहयोग प्राप्त है और सबसे बढ़कर यह कि वे बारूदी सुरंगों, हथगोलों से लेकर एके-47 और रॉकेट लांचरों जैसे बेहद परिष्कृत हथियारों से लैस हैं. पिछले नवंबर में उन्होंने भारतीय वायुसेना के हेलिकॉप्टर पर निशाना साधा, जिसमें एक फ्लाइट इंजीनियर मारा गया. इस पर वायुसेना ने मांग की कि उन्हें बदले की कार्रवाई करने की इजाजत दी जाए. यह खतरा असली है, और दिनोदिन गंभीर होता जा रहा है.

29 में से 20 राज्‍य नक्‍सलवाद की चपेट में
1967 में एक किसान विद्रोह के रूप में शुरू हुए आंदोलन ने देश के 29 में से 20 राज्‍यों को अपनी लपेट में ले लिया है, जिनमें से सात राज्‍य तो बुरी तरह प्रभावित हैं. माओवादियों की हिंसा से इस साल अब तक 600 लोग मारे जा चुके हैं. हाल में हुए हमलों के बाद लगभग 70,000 अर्धसैनिक बलों ने उन अहम ठिकानों पर जवाबी हमले की कार्रवाई शुरू कर दी है, जिन्हें 'रेड कॉरिडोर' (लाल गलियारा) के भीतर माना जाता है. नक्सलियों के खिलाफ अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई इस बात का संकेत है कि अब मामला गंभीर हो गया है और सरकार पी. चिदंबरम के अधीन गृह मंत्रालय द्वारा तैयार नई दोधारी रणनीति के एक हिस्से के रूप में आक्रामक अभियान चला रही है. अपने पूर्ववर्ती गृह मंत्रियों-जिन्होंने माओवादी चुनौती को कभी गंभीरता से नहीं लिया- के विपरीत पी. चिदंबरम ने खतरे की भयावहता को समझ लिया है, और यह भी कि इससे निबटने के लिए केंद्र की निगरानी में सक्रिय और समन्वित प्रयास की जरूरत है. वामपंथी विचारधारा वाले उग्रवाद के खिलाफ सतत और आक्रामक अभियान की मंजूरी सुरक्षा मामलों पर कैबिनेट समिति ने पिछले अक्‍टूबर में ही दे दी थी.{mospagebreak}उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में विकास कार्यक्रम चलाने की योजना
{mosimage}चिदंबरम की योजना माओवादियों के चंगुल वाले क्षेत्र को मुक्त कराने की है, साथ ही साथ वहां की पिछड़ी आबादी के बीच विकास कार्यक्रम भी शुरू किए जा रहे हैं. जब तक प्रभावित क्षेत्र पूरी तरह सुरक्षा बलों के नियंत्रण में नहीं आ जाता और बुनियादी ढांचा तथा विकास योजनाएं लागू नहीं होतीं, तब तक वहां सुरक्षा बल तैनात रहेंगे. उनका मानना है कि यह काम सुरक्षा बलों का ही है. उन्होंने सरकार प्रायोजित सतर्कता अभियान की पुरानी रणनीति खारिज कर दी है. अब तक के बगावत विरोधी अभियानों में उस नीति के कारण रुकावट आती रही है जो पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा आम नागरिकों और उग्रवादियों में भेद न कर पाने की वजह से होती रही. ऐसे भी मामले हुए हैं, जब माओवादियों ने बचाव के लिए ग्रामीणों की आड़ ली और मानवाधिकारवादी संस्थाओं ने भारी शोर मचाया. नई रणनीति के एक हिस्से के रूप में चिदंबरम ने प्रभावित राज्‍यों के मुख्यमंत्रियों से कहा है कि वे माओवादियों को समझैते की मेज तक लाने का प्रयास करें, यदि वे सकारात्मक जवाब नहीं देते तो उन्हें बेरहमी से कुचला जाए. गृह मंत्री ने घोषणा की, ''लोकतंत्र में हिंसा स्वीकार्य नहीं है. जब तक वे हिंसा नहीं छोड़ते, सुरक्षा बल उनसे टक्कर लेते रहेंगे.''

कार्रवाई में लग सकता है लंबा वक्‍त
माओवादियों के खिलाफ आक्रामक अभियान नक्सली हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित छत्तीसगढ़ और झरखंड की सीमा पर 11 महत्वपूर्ण जिलों में शुरू किया गया है. इसके अलावा लाल गलियारे के गहन जंगलों में भी छोटे पैमाने पर अभियान शुरू किए जाएंगे. 20 राज्‍यों के 223 जिले और 2,000 पुलिस थाने माओवादी बगावत से प्रभावित हैं. माओवादियों के नियंत्रण वाले सबसे बड़े क्षेत्र बस्तर में 40,000 वर्ग किमी में फैला लौह अयस्क समृद्ध क्षेत्र है. मई महीने के शुरू से अब तक नक्सलियों ने इसी पट्टी में 67 सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर दी है. सशस्त्र माओवादियों की अनुमानित संख्या 10,000- 15,000 के बीच आंकी गई है. लेकिन ये लोग अच्छी तरह प्रशिक्षित, बेहद जुनूनी और हथियारों से लैस हैं. इन्हें कुछेक हजार दूसरे आतंकियों का भी समर्थन हासिल है, जो इनकी आंख और कान की तरह काम करते हैं. नई रणनीति के तहत केंद्र को उम्मीद है कि 12-36 महीनों के बीच माओवादियों की सैन्य ताकत को खत्म कर दिया जाएगा. दीवाली के बाद आक्रामक कार्रवाई को पूरी तरह शुरू करने से पहले अर्धसैनिक बल सघन वनों में तलाशी अभियान करके अपने इरादे स्पष्ट कर रहे हैं और ग्रामीणों को सुरक्षा और विकास का पूरा आश्वासन दे रहे हैं. यह प्रलोभन और दंड की नीति का मुख्य तत्व है. पश्चिम बंगाल ने तो माओवादियों के साथ संवाद भी शुरू कर दिया है और दूसरे राज्‍य भी जल्द ही इसका अनुसरण करेंगे.

आदिवासियों का विश्‍वास जीतने की भी कोशिश
सरकार की योजना नक्सलियों पर हमले बोलने के अलावा विकास पर भी जोर देने की है जिसमें स्कूल, स्वास्थ्य सुविधाएं, थाने और सड़कों का निर्माण शामिल है. केंद्रीय गृह सचिव जी.के. पिल्लै ने घोषणा की है, ''हमें उम्मीद है कि 30 दिनों के भीतर ही क्षेत्रों पर सुरक्षा बलों का कब्जा हो जाएगा और हम वहां प्रशासन की बहाली कर सकेंगे.'' बस्तर जैसे क्षेत्रों में-जहां माओवादियों का आदेश ही चलता है- यह महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी. फिलहाल झरखंड में राष्ट्रपति शासन के तहत चल रही सरकार ने व्यापक स्तर पर आदिवासी कल्याण योजनाएं शुरू की हैं. इसके अलावा झरखंड ने आदिवासियों और माओवादियों के प्रभाव में आए समाज के ग्रामीण तबके का विश्वास जीतने की रणनीति के तहत आदिवासियों के खिलाफ एक लाख से अधिक मुकदमे वापस ले लिए हैं. माओवादियों का दावा है कि वे गरीब ग्रामीणों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन उन पर लोगों को डराने -धमकाने, पैसे की जबरन वसूली करने और पूरे गांव को अपने नियंत्रण में लेने के भी आरोप हैं.{mospagebreak}अभियान में छापामर युद्ध के प्रशिक्षित जवानों का इस्‍तेमाल
माओवादियों की भारी मौजूदगी वाले क्षेत्रों में सरकार की जवाबी रणनीति के तहत धुआंधार प्रचार कर स्थानीय लोगों को बताया जा रहा है कि नक्सलियों को आधिकारिक रूप से आतंकवादी घोषित किया जा चुका है. अखबारों में चलाए जा रहे विज्ञापन अभियान में बागियों द्वारा मारे गए नागरिकों के फोटो भी छपते हैं, जिनके नीचे लाइन छपी होती हैः 'ये निर्दोष लोग नक्सली (माओवादी) हिंसा का शिकार हुए हैं.' इसके समानांतर अर्धसैनिक बलों द्वारा आक्रामक कार्रवाई में सैन्य विशेषज्ञों की सलाह तथा निगरानी के लिए वायुसेना के हेलिकॉप्टरों के इस्तेमाल ने भी इसे अतिरिक्त ताकत प्रदान की है. लंबी बारूदी सुरंगों में माओवादियों की विशेषज्ञता सरकार के लिए गंभीर समस्याएं पैदा कर रही थी. 'आइईडी' से खतरों का मुकाबला करने के अभियानों और विशिष्ट प्रशिक्षण देने के लिए सरकार ने विस्फोटकों का खासा अनुभव रखने वाले ब्रिगेडियर डी.एस. डडवाल को शामिल कर लिया है. इस साल बारूदी सुरंगों के अब तक 53 विस्फोटों में 123 सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं. यह भयावह जानकारी इस सूचना के साथ आ रही है कि माओवादी उत्तर-पूर्व के बागियों के साथ हाथ मिलाने जा रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं कि इससे सुरक्षा चुनौतियां और जटिल हो जाती हैं. इससे निबटने के लिए 70,000 अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया है. इनमें से अधिकतर जंगल की लड़ाई, छापामार युद्ध और बगावत को दबाने की तकनीक में पारंगत हैं. इन बलों को केंद्रीय आरक्षी पुलिस बल (सीआरपीएफ), भारत-तिब्बत सीमा पुलिस, सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), सशस्त्र सीमा बल, कमांडो बटालियन फॉर रिजोल्यूट एक्शन (कोब्रा) और नागालैंड आर्म्ड पुलिस से लिया गया है. इन बलों को छत्तीसगढ़, झरखंड, ओडीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में तैनात किया गया है. हेलिकॉप्टरों के इस्तेमाल के अलावा उपग्रह के जरिए उग्रवादियों की गतिविधियों पर नजर रखना भी इस रणनीति का हिस्सा है.

किसी को कानून व्‍यव्स्‍था हाथ में लेने का हक नहीं
व्यापक स्तर पर सुरक्षा अभियान के साथ-साथ समतामूलक विकास के लिए राज्‍य सरकारों के सहयोग की भी जरूरत पड़ेगी. नक्सल प्रभावित अधिकतर राज्‍यों में गैर-कांग्रेसी पार्टियों की सरकारें हैं. सैन्य बलों पर तो केंद्र का नियंत्रण हो सकता है लेकिन गैर-कांग्रेसी राज्‍य सरकारों के सहयोग के बिना पूरी योजना असरहीन हो सकती है. विकास पैकेज और प्रशासन की बहाली के लिए संबंधित राज्‍यों के पूरे सहयोग की जरूरत पड़ेगी. केंद्र सरकार अगले तीन सालों में नक्सल प्रभावित जिलों में सुरक्ष और बुनियादी सुविधा परियोजनाओं पर 7,300 करोड़ रु. खर्च करने की सोच रही है. पहले चरण में छत्तीसगढ़, झरखंड, ओडीसा और महाराष्ट्र के छह जिलों में योजना का क्रियान्वयन किया जाएगा. प्रधानमंत्री का कहना है, ''मध्य भारत में इनका पनपना हमें यह सोचने को बाध्य करता है कि आखिर क्या कारण रहे कि समुदाय के एक वर्ग में अलग-थलग महसूस करने की भावना आ गई, खासकर आदिवासी समुदाय में. यह विकास की गति में कुछ खामियों का संकेतक हो सकता है. हम उस पहलू की ओर भी देख रहे हैं लेकिन कुछ लोगों और समूहों को कानून और व्यवस्था को अपने हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं है.''

अभियान में मिली शुरुआती सफलताएं
माओवादी गरीबी और पिछड़ेपन का लाभ उठा कर अपने सिद्धांतों का प्रचार करते हैं और इलाके पर नियंत्रण बनाते हैं. यही वजह है कि वे उन क्षेत्रों के स्थानीय लोगों का व्यापक समर्थन बटोर लेते हैं जिन क्षेत्रों पर वे राज्‍य-व्यवस्था को दरकिनार करके अपनी सत्ता चलाते हैं. वे विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के चलते पैदा होने वाले विस्थापन संबंधी मसले पर ग्रामीण असंतोष को भुनाने में जरा भी देर नहीं करते और अपने लिए आधार तैयार करते हैं. हाल ही में केंद्र ने इंदुवर जैसे लोगों की जघन्य हत्या के खिलाफ प्रचार अभियान चला कर ऐसे प्रयासों को भोथरा करने का प्रयास किया है. इंदुवर की हत्या पर उमड़े भारी जनाक्रोश और उनके परिवार की प्रतिक्रिया से सरकार के हाथ यह बताने का एक कारगर हथियार लग गया है कि  माओवादी बेरहम हत्यारों के सिवा कुछ भी नहीं हैं. इसके अलावा कुछ शुरुआती सैन्य सफलताएं भी हाथ लगी हैं. सितंबर में कोबरा बटालियन, छत्तीसगढ़ पुलिस और स्थानीय आदिवासी पुलिसकर्मियों से तैयार टीम ने 200 उग्रवादियों के साथ जबरदस्त मुठभेड़ में दक्षिण छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा इलाके में किष्टरम और चिंता गुफा क्षेत्र में अवैध हथियार बनाने के अड्डों को नष्ट किया. इस हमले में 40 माओवादी और छह सुरक्षाकर्मी मारे गए लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि पहली बार सुरक्षा बल चिंता गुफा तक पहुंचे. माओवादियों की पनाहगाह समझ जाने वाला यह क्षेत्र बारूदी सुरंगों के कारण पहुंच से दूर नजर आता था. इस अभियान के महत्वपूर्ण होने की एक वजह और है, वह यह कि इससे संबंधित राज्‍यों से जिस सहयोग की अपेक्षा की जाती है, वह इस बार नजर आया. ऐसे सहयोग के अभाव की वजह से ही अब तक माओवादी विरोधी अभियान नाकाम रहते आए हैं. चिंता गुफा अभियान के सफल होने की वजह यह भी थी कि पड़ोसी राज्‍यों आंध्र प्रदेश और ओडीसा में पुलिस बल तैनात थे जो उग्रवादियों के एक से दूसरे राज्‍य जाने की राह में बाधा बने. उग्रवादियों की यह चाल काफी पुरानी है.

आदिवासी इलाकों को मुख्‍यधारा से जोड़ने की कोशिश
इसके अलावा हाल ही में कोबाड घंडी और छत्रधर महतो जैसे महत्वपूर्ण माओवादी नेताओं की गिरफ्तारी के जवाब में इंदुवर हत्याकांड और गढ़चिरोली जैसे वीभत्स कांडों को अंजाम दिया गया. इसने केंद्र को अपने आक्रामक अभियानों को समय से पहले शुरू करने को बाध्य किया. हेलिकॉप्टरों के जरिए निगरानी और बेहतर तालमेल के बूते सुरक्षा बलों ने जल्दी ही उस क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया और उग्रवादियों को उनके गढ़ जंगल से बाहर खदेड़ दिया. इससे यह बात भी स्पष्ट हुई कि बेहतर हौसला और विस्तृत युद्ध योजना अंततः सुरक्षा बलों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है. दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक अमरेश मिश्र कहते हैं, ''दक्षिण बस्तर में उग्रवादियों के पांव जमाने के बाद अब हमारे सुरक्षा बल पहली बार सिंगनमडुगु में प्रवेश कर सके हैं.'' असल में योजना यह है कि आदिवासियों को जोड़ने वाले जंगल के रास्तों को खोला जाए. यह माओवादी प्रभाव वाले इलाके में नागरिक प्रशासन की बहाली के लिए की जा रही कवायद है, तो दक्षिण बस्तर के जंगलों को मुक्त करने की दिशा में पहला कदम भी.{mospagebreak}विशेष डीजी के हाथ में है अभियान की कमान
आक्रामक कार्रवाई तेज करना असल में सुरक्षा बलों के लिए एक शुरुआत भर है क्योंकि 2009 माओवादी हिंसा से हुई मौत के मामले में बहुत भयावह वर्ष रहा है. इस हिंसा में हुई मौत का आंकड़ा जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व में हुई कुल मौत के आंकड़े से भी अधिक है. माओवादी हिंसा के हादसों 1,450 में इस साल सितंबर तक 600 लोगों की जान जा चुकी है और सुरक्षाबलों के 250 जवान शहीद हुए हैं. अब सुरक्षा बल उपग्रह से प्राप्त तस्वीरों और जमीन पर उनकी पुष्टि से तालमेल बिठाते हुए अपने सुव्यवस्थित, संगठित अभियान चलाकर बड़ी बढ़त लेने की योजना बना रहे हैं. यह गहन अभियान बस्तर में अबूझ्माड़ के घने जंगलों में चलाया जाने वाला है, जो माओवादियों का केंद्रीय छापामार अड्डा है और जहां इसके महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं और संसाधनों ने अपना सर्वाधिक महत्वपूर्ण ठिकाना बना लिया है. महत्वपूर्ण यह भी है कि इस अभियान की कमान सीआरपीएफ के विशेष डीजी विजय रमण के नेतृत्व वाले विशिष्ट दल के हाथ में है. इसमें ऐसे विशेषज्ञ शामिल हैं जिन्हें कश्मीर में बगावत कुचलने का अनुभव है. बेशक पढ़ने में यह सब उत्साहवर्धक लगता है, लेकिन क्या यह कारगर भी होगा? अब भी इसमें भारी खामियां हैं, जिनमें सुरक्षाकर्मियों की कमी, पुलिस में हथियार प्रशिक्षण के अभाव के अलावा उपकरणों और बुनियादी सुविधाओं की तंगी भी शामिल है. यह दीर्घकालीन योजना है, जिसमें राज्‍यों और केंद्र सरकार को अधिक अरसे से लंबित पुलिस सुधारों को लागू कर और अधिक सहयोग देना होगा. इसके लिए राज्‍यों को पी. चिदंबरम की योजना के अनुरूप ही चलना होगा.

अभियान की सफलता पर पड़ सकता है असर
दुर्भाग्य से नक्सली हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित झरखंड, ओडीसा और पश्चिम बंगाल में राजनैतिक और पुलिस अवधारणाओं में भिन्नता है. यह अभियान की सफलता के लिए शुभ संकेत नहीं है. झरखंड में चरमराती प्रशासनिक मशीनरी, राजनैतिक संस्थाओं का ढह जाना, कुछ कर दिखाने वाली व्यवस्था का क्षय और पुलिस के गिरते मनोबल ने वामपंथी उग्रवाद के फैलने में मदद ही की है. ओडीसा में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अपने पुलिस बल के आधुनिकीकरण के लिए पैसे न देने या सीआरपीएफ तथा कोबरा कमांडो को अधिक संख्या में तैनात न करने के लिए केंद्र सरकार को दोषी ठहराया है. चिदंबरम का कहना है कि केंद्र ने पुलिस बल के आधुनिकीकरण के लिए राज्‍यों को 1,250 करोड़ रु. आवंटित किए हैं. लेकिन इस मामले में मतभेद तो स्पष्ट हैं और ये भय तथा प्रलोभन के केंद्र के अभियान को प्रभावित कर सकते हैं. ढीलेढाले प्रशासन के कारण भी माओवादी झरखंड और पश्चिम बंगाल के बीच आवाजाही करते रहे हैं. लालगढ़ कांड के पीछे एक वजह माकपा प्रशासन की नाकामियां तो हैं ही, दूसरी वजह यह भी है कि उग्रवादी बड़ी सहजता से झरखंड में चले जाते रहे हैं. इनके अलावा वामपंथी उग्रवाद के प्रति पश्चिम बंगाल सरकार की दुविधापूर्ण स्थिति भी जिम्मेदार है. न सिर्फ माओवादी हमले जान-माल की अधिक हानि कर रहे हैं, बल्कि लालगढ़ पर कब्जा जमाने के बाद उनके हौसले और बुलंद हो गए हैं. यह उनकी ताकत का सबसे दबंग प्रदर्शन है. बिहार में नक्सली हिंसा का परिदृश्य कमोबेश यथावत ही रहा है. सिर्फ महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश ने माओवादी असर वाले क्षेत्रों को कब्जे में लेने को प्राथमिकता दी है और उनमें विकास कार्य शुरू करवाए हैं. 2009 में महाराष्ट्र के लगभग 570 गांवों के विकास के लिए 9 करोड़ रु. जारी किए जा चुके हैं. इसके अलावा सरकार नक्सल प्रभावित क्षेत्रों को बेहतर चिकित्सा, स्वास्थ्य, शिक्षा और बागवानी की सुविधाएं मुहैया कराने की दिशा में प्रयासरत है. चिदंबरम की रणनीति मुख्यतः इन्हीं राज्‍यों से सीखे सबकों पर आधारित है, जहां उग्रवाद में कमी आई है. अब खतरा यह है कि यदि वंचितों के संपूर्ण विकास के मुद्दे की और अधिक समय तक उपेक्षा की गई तो माओवादी अपनी गतिविधियों को और तेज कर सकते हैं.

लंबित मामले भी निपटाना जरूरी
आदिवासियों की जमीन से संबंधित मामलों के निबटारे के लिए गठित विशेष अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में राज्‍य सरकारों की वर्षों से चली आ रही लापरवाही उस मकसद को ही बेमानी कर रही है, जिसके लिए अदालतों का गठन किया गया था. इस तरह दशकों से पीड़ित लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा है. आदिवासी जमीन के मामले निबटाने के लिए गठित आठ में से सिर्फ दो अदालतों में न्यायाधीश हैं और कुल 40,000 मामले लंबित हैं. ऐसी उदासीनता तथा प्रशासनिक नाकामी और वंचितों की जरूरतों के प्रति सरकारी संवेदनहीनता सभी राज्‍यों में व्याप्त है. माओवादियों से निबटने के लिए ऐसी बहुआयामी रणनीति का मकसद सुरक्षा बलों को वह मजबूती देना है, जिसकी उन्हें जरूरत है. लेकिन दीवाली के बाद शुरू होने वाले बड़े अभियान के बाद ही तस्वीर साफ हो पाएगी. चिदंबरम सही काम के लिए सही व्यक्ति हैं लेकिन लंबे समय तक सतत और सही तालमेल के साथ चला अभियान ही अपेक्षित परिणाम दे सकता है. इसके लिए राज्‍यों के बीच पर्याप्त सहयोग की जरूरत पड़ेगी, इस तथ्य के मद्देनजर ऐसी अपेक्षा ऊंची ही लगती है. हाल ही में माओवादियों ने हिंसक वारदातें बढ़ा दी हैं. लेकिन उत्साहवर्धक बात यह है कि पिछले सप्ताह हुए विधानसभा चुनाव में गढ़चिरोली में माओवादी खतरे के बावजूद 70 फीसदी मतदान हुआ. प्रधानमंत्री ने कहा है कि अगले तीन महीनों में माओवादी समस्या के बारे में सकारात्मक खबरें मिलेंगी, जिसका अर्थ यह हुआ कि इस रणनीति की समय सीमा भी तय की गई है. इस मसले के साथ जो दांव जुड़े हैं उनके मद्देनजर जाहिर है कि दूसरों की तुलना में वे अधिक जानते हैं कि नाकामी कोई विकल्प नहीं रह गया है.

-साथ में फरजंद अहमद, अंबरीष मिश्र, अभिजीत दासगुप्ता, अमिताभ श्रीवास्तव, अरविंद छाबड़ा, वीरेंद्र मिश्र और स्वाति माथुर

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