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उमर अब्‍दुल्‍ला का घाटी में घटता कद

अगर उनका वश चलता तो वे श्रीनगर के आरोग्यवास जैसे सचिवालय में माथापच्ची करते हुए दिन गुजारने की जगह  दौड़ने वाले जूते, वह भी किशोरों की तरह बिना मोजे के, पहनकर सनावर स्कूल के अपने पुराने साथियों के साथ सप्ताहांत बिताते. लेकिन कश्मीर, जहां मोहभंग होना एक उद्योग जैसा है, किसी को चैन की सांस लेने की इजाजत नहीं देता. तीसरी पीढ़ी के उस राजकुमार को भी नहीं जिसने सही आवाज उठाकर और सही भाव-भंगिमाएं बनाकर अब तक राजनीति में शानदार एक दशक बिताया है.

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अगर उनका वश चलता तो वे श्रीनगर के आरोग्यवास जैसे सचिवालय में माथापच्ची करते हुए दिन गुजारने की जगह  दौड़ने वाले जूते, वह भी किशोरों की तरह बिना मोजे के, पहनकर सनावर स्कूल के अपने पुराने साथियों के साथ सप्ताहांत बिताते. लेकिन कश्मीर, जहां मोहभंग होना एक उद्योग जैसा है, किसी को चैन की सांस लेने की इजाजत नहीं देता. तीसरी पीढ़ी के उस राजकुमार को भी नहीं जिसने सही आवाज उठाकर और सही भाव-भंगिमाएं बनाकर अब तक राजनीति में शानदार एक दशक बिताया है.

40 वर्षीय उमर अब्दुल्ला-वह शख्स जो 18 महीने पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन करके सत्ता में आने के समय कुछ भी गलत नहीं कर सकता था-आज खुद मानते हैं कि उन्होंने इतनी आलोचनाएं और निंदा कभी नहीं झेली. ''जीवन बदल डालने वाले'' पिछले दो महीनों में उस राज्‍य का अशांत गुस्सा भड़क गया है, जहां 1.10 करोड़ की आबादी में 50 फीसदी से ज्‍यादा लोगों की उम्र 19 साल से कम है, जहां केवल 11.5 लाख लोगों के पास ही रोजगार है, और जिसके योजना बजट को इस साल केंद्र सरकार ने बढ़ाकर 6,000 करोड़ रु. करने के अलावा प्रधानमंत्री के पुनर्वास कार्यक्रम के जरिए 1,200 करोड़ रु. लगाए हैं, लेकिन जहां बिजली, सड़क, पानी, सेहत और तालीम को लेकर उमर के चुनावी वादों पर बहुत कम काम हुआ है.

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इससे स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व में गहरी दरार, विपक्ष की घोर अवसरवादिता और एक नए अलगाववादी नेतृत्व के उभरने के संकेत मिलने लगे हैं. इससे उस राज्‍य की हकीकत का भी पता चल गया है जहां जनवरी और जून के दौरान 5,88,000 पर्यटक पहुंचने से माहौल खुशगवार हो गया और मात्र 50 दिनों में 46 मौतों से चारों ओर मायूसी छा गई.
एक ओर जहां उमर राज्‍य को अब तक के सबसे खराब दौर में से एक से उबारने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं वे उन्हीं लोगों के साथ बढ़ती अपनी दूरी से जूझने की कोशिश कर रहे हैं जिन्होंने 61 फीसदी मतदान करके उन्हें जिताया था. वे प्रमुख विपक्षी दल पीडीपी की ओर से अप्रत्याशित हमला झेल रहे हैं. उनके अपशब्दों का वे उसी भाषा में जवाब देते हैं. और ऐसे राज्‍य में उनके सामने कोई विकल्प नहीं है जो ''नई दिल्ली'' के साथ मशविरे पर एक ओर तो नाक-भौं सिकोड़ता है और दूसरी ओर उसकी वित्तीय सहायता का स्वागत करता है, किल्लत की घड़ी में केंद्रीय मदद की उम्मीद करता है. वे प्रधानमंत्री के साथ मुलाकात के बाद अतिरिक्त 2,000 सुरक्षाकर्मी ले जाएंगे. पिछले दो महीनों के दौरान वहां 3,200 जवान पहले ही भेजे जा चुके हैं.{mospagebreak}

आखिर गड़बड़ी क्या हुई? सचाई सिर्फ यही नहीं है कि व्यक्तिगत तौर पर उमर, जो हाजिर जवाब और विचार गढ़ने में तेज हैं, कश्मीर के उन नेताओं से काफी अलग हैं जो बाग में बैठकर सियासत करते हैं और समय और सच के बारे में जिनके विचार काफी लचीले होते हैं. सचाई यह भी है कि  जब उनके लोगों के अजीज मारे जा रहे थे तब वे उनके दुखों को साझ करते नहीं देखे गए. या यह भी कि वे अपने राज्‍य के युवाओं को उनके जोश का सही इस्तेमाल करने के लिए सुविधाएं मुहैया कराने के बारे में नहीं सोचते और सिर्फ नेताओं को सुरक्षा कवच और बुलेटप्रूफ गाड़ियों में इधर-उधर घूमने के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाने की चिंता में डूबे रहते हैं. या यह भी कि कश्मीर में कभी कोई इतना सुधार नहीं हो सकता कि लोक निर्माण के कार्य लोगों तक पहुंच जाएं, चाहे वह खूबसूरत नाम वाली एसक्यूपी (शेर-ए-कश्मीर एम्प्लायमेंट ऐंड वेलफेयर प्रोग्राम फॉर द यूथ) हो, जिसके अंतर्गत उन्होंने 97,000 युवकों को हर साल 200 करोड़ रु. की स्वैच्छिक सहायता की योजना बनाई है, या उन्हें व्यवसायी बनाने के लिए आंटरप्रेन्योरशिप डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट की सालाना 50 करोड़ रु. की योजना हो.

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इसका सरोकार चुस्त राजनीति से है, संकट की घड़ी में कार्रवाई करने भर से नहीं बल्कि ऐसा करते हुए दिखने से भी है-चाहे वह पिछले साल शोपियां में दो महिलाओं की रहस्यमय मौत या जून में तुफैल मट्टू की मौत पर अपनी ओर से प्रतिक्रिया जताने का मामला हो.

यहां तक कि उनके करीबी सलाहकार भी जिस दिन हिंसा नहीं होती उस दिन एक-दूसरे को बधाई देते हैं. जाहिर है, उन्हें किसी ब्लूप्रिंट के उभरने का इंतजार है. विरोध प्रदर्शन के नए स्वरूप से नए ढंग से निबटने की जरूरत है. 1989 में बंदूकों से विरोध किया जाता था और अब पत्थरों से विरोध जताया जा रहा है, अगले चरण में ''उपनिवेशवादी ताकतों'' के खिलाफ शांतिपूर्ण सत्याग्रह शुरू हो सकता है. लेकिन उनसे निबटने के तरीकों में खास विकास नहीं हुआ है. वैसे, उमर इसे पूरी तरह से खारिज करते हैं. वे इन खबरों को गलत बताते हैं कि राज्‍य पुलिस के अधिकारी और केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों के जवान अपने फर्ज को अंजाम देने से पीछे हट गए.{mospagebreak}

ऐसा नहीं है कि उमर ने व्यवस्था बदलने की कोशिश नहीं की है. उन्होंने आज के जमाने के सीईओ की तरह काम करते हुए अपने इर्दगिर्द शीर्ष टीम तैयार कर ली है. इसमें व्यवसायी से नेता बने 45 वर्षीय देविंदर सिंह राणा शामिल हैं, जो विधान परिषद के सदस्य हैं और उमर के राजनीतिक सलाहकार हैं. ईदगाह श्रीनगर क्षेत्र के विधायक 59 वर्षीय मुबारक गुल उनके शिकायत प्रकोष्ठ के प्रभारी हैं; पहली बार विधायक चुने गए और पर्यटन राज्‍यमंत्री 46 वर्षीय नसीर असलम वानी; और 57 वर्षीय कानून मंत्री अली मोहम्मद सागर हैं, जो नेशनल कॉन्फ्रेंस की नई और पुरानी पीढ़ी, दोनों से जुड़े हुए हैं.
उमर ने सलाहकारों के रूप में इन लोगों के साथ विकास की भाषा में बात करने की कोशिश की है. उन्होंने सारी योजनाओं के कामकाज की निगरानी करने वाले जिला विकास बोर्डों की बैठकें आयोजित कीं. कश्मीर की राजनीति के खतरनाक गलियारों का खास अनुभव न रखने वाले इस स्पष्टवादी व्यक्ति ने इंसाफ की भी बात की. मार्च 2009 में जब सैनिकों ने किसी तरह के उकसावे के बिना दो नागरिकों की हत्या कर दी तब उन्होंने लोगों के जबरदस्त दबाव के चलते सोपोर के बोमई से सेना का एक शिविर हटवा दिया.

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इसके बाद उन्होंने सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (एएफएसपीए) को खत्म करने या उसमें संशोधन किए जाने की मांग शुरू की. सेना ने गृह मंत्रालय की ओर से तैयार संशोधन को खारिज करके उनके अभियान की हवा निकाल दी और एएफएसपीए को अपना ''पवित्र ग्रंथ'' करार दे दिया. मुख्यमंत्री ने शोपियां की वारदात के बाद बेहद शक करने वाले लोगों का विश्वास जीतने का प्रयास किया. शोपियां में दो महिलाओं के साथ कथित बलात्कार के बाद उनकी हत्या कर दी गई थी.{mospagebreak}

जिस राज्‍य की मानसिकता में नई दिल्ली के प्रति अविश्वास घर कर गया है, वहां कुछ पर्याप्त नहीं होने वाला था. आम धारणा है कि श्रीनगर से नई दिल्ली तक किसी को कश्मीर के लोगों की परवाह नहीं है. यह धारणा इस साल जून में उस समय बलवती हो गई जब विरोध में पत्थरबाजी के दौरान पुलिस की कार्रवाई में मट्टू की मौत को अधिकारियों ने ''निहित स्वार्थ वाले'' व्यक्तियों के हाथों हुई हत्या करार दिया. उसके बाद से विरोध प्रदर्शनों के दौरान पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवानों की जवाबी कार्रवाई में गोलियों से 45 दूसरे लोगों की मौत हो चुकी है. ऐसे हालात में नेतृत्वहीनता की स्थिति पैदा हो गई है, जिसमें उमर की गैरमौजूदगी साफ झलक रही है. किसी दूसरे नेता ने भी इस शून्य को नहीं भरा है. राज्‍य के उप-मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तारा चंद ने मौजूदा संकट के बारे में एक भी शब्द नहीं बोला है.

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दो अन्य महत्वपूर्ण कांग्रेसी मंत्रियों-सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण मंत्री ताज मोहिउद्दीन और शिक्षा मंत्री पीरजादा सैयद-ने बीच-बीच में यह दोहराया है कि उनकी पार्टी उमर के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार का समर्थन करती है. प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख सैफुद्दीन सो.ज नीरस बयान देकर लोगों की मौत पर चिंता जाहिर कर रहे हैं. सरकार से जुड़े हर व्यक्ति और शै पर लोगों का गुस्सा भड़क रहा है. घाटी में हालात बदतर होने पर फारूक अब्दुल्ला आखिरकार नेशनल कॉन्फ्रेंस, जिसके वे अध्यक्ष हैं, की बैठक बुलाने के लिए पहुंचे और राज्‍य में बंद सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने की मांग करते हुए प्रस्ताव पारित किया. यह मसले को हल करने की जगह संकट को नियंत्रित करने की चाल थी. इससे कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि उन्हीं की पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने कहा कि ऐसे बंदियों के मामलों की निगरानी के लिए पहले से ही व्यवस्था मौजूद है. यह खुद ही मुजरिम और मुंसिफ बनने की मिसाल है.

आश्चर्य नहीं कि विरोध प्रदर्शन का ढर्रा देखने में उमर की नाकामी और उससे निबटने में उनके प्रशासन की चूक से ऐसा अवसर बन गया है जिसे अलगाववादी गंवाना नहीं चाहेंगे. जब सरकार नए तरह के विरोध प्रदर्शन, जिसमें नकाबपोश आतंकवादियों की जगह कश्मीरी युवक खड़े हो गए, के आयामों को समझ्ने की कोशिश कर रही थी तभी प्रदर्शनकारियों ने मानवाधिकारों के उल्लंघन की बातचीत को पूरी तरह से आत्म निर्णय के राजनीतिक अधिकार के क्षेत्र में पहुंचा दिया. उनके आंदोलन में ''गो इंडिया गो बैक'' और ''क्विट जम्मू ऐंड कश्मीर'' जैसे नारे गूंजने लगे. इसकी वजह से हजारों लोग देखते ही गोली मारने के आदेश वाले कर्फ्यू का उल्लंघन करके सड़कों पर उतरने लगे. एक बार फिर यह बहस  पूरी तरह भारत विरोधी हो गई है. हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के युवा नेता मसर्रत आलम का यह बयान उद्धृत किया जाता है, ''सरकार को मुगालता है कि वह कश्मीर में ज्‍यादा फौजियों को बुलाकर लोगों की असली भावनाओं को कुचल देगी. हम हर कीमत पर कब्जे की मुखालफत करेंगे.''{mospagebreak}

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गुस्से का मुख्य निशाना पुलिस थाने हैं, जो खतरनाक स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप (एसओजी) के शिविर का काम करते हैं. इस तरह के कई थानों को जला दिया गया है या नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पास सैन्य नगरी उड़ी जैसे दूरदराज के इलाकों में भी उन्हें जलाने की कोशिश की गई है. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कहना है, ''यह दुष्चक्र बन गया है. हर मौत के बाद ज्‍यादा प्रदर्शन होता है और ज्‍यादा मौतें होती हैं. हमारे सामने ऐसी स्थिति आ गई है कि हम अग्रिम मोर्चे पर पहुंच गए हैं लेकिन प्रभावी नहीं रह गए हैं.'' इन हालात के चलते उमर कश्मीर में रहकर शांति की अपनी अपीलों में मेलमिलाप की बात करते हैं लेकिन नई दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात के बाद सख्ती की बात करते हैं. इस राजनीतिक दोहरेपन की वजह से कश्मीरियों को लगता है कि वे कभी अपने मन की बात नहीं करते.

आज लोग न केवल सरकार के खिलाफ हैं बल्कि वे सरकार के हर प्रतीक का विरोध कर रहे हैं. लोग राजनीतिक यथास्थिति को बदलने के अपने प्रयास में हर तरह का भय भुला बैठे हैं और ऐसे में भीड़ को नियंत्रित करने के तरीके विफल हो गए हैं. भारत-पाकिस्तान वार्ता से किसी तरह के बदलाव की उम्मीद भी खत्म हो गई है और अब लोग कानून अपने हाथ में लेने लगे हैं. लोगों का गुस्सा 1990 की याद दिलाता है, जब सशस्त्र अलगाववाद उभरा था. श्रीनगर के भीड़ भरे हब्बाकदल की सड़कों से लेकर गुपकर रोड पर मुख्यमंत्री के निवास तक अब ''राजनीतिक समाधान'' की बात हो रही है, और यह समाधान चुनाव कराने से परे है. कश्मीर विश्वविद्यालय में कानून पढ़ाने वाले शेख शौकत 'सैन ने कहा, ''अगर इसे केवल सैन्य तरीकों से ही निबटा गया तो ऐसे हालात बन सकते हैं जिनमें लोगों के हताहत होने के मामले इतने बढ़ सकते हैं कि नई दिल्ली के लिए इसे अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बनने से रोकना मुश्किल हो जाएगा.''{mospagebreak}

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हालांकि कश्मीर अभी केंद्र के साथ नई बातचीत का इंतजार कर रहा है लेकिन यह स्पष्ट है कि उमर पर केंद्र का भरोसा अभी कायम है. दरअसल, केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने जब लोगों से कहा कि वे कश्मीर के मुख्यमंत्री पर विश्वास करें तो ऐसा लग रहा था मानो वे उनके जनसंपर्क अधिकारी हों. उन्होंने संसद में दिए एक बयान में 11 जून के बाद मारे गए 39 लोगों की मौत पर गहरा दुख जताते हुए लोगों से आग्रह किया कि वे हिंसा का चक्र बंद करें. उन्होंने कहा, ''जम्मू और कश्मीर के लोगों ने एक सरकार को चुना है और उन्हें जम्मू और कश्मीर की समस्या का समाधान करने के लिए उस पर विश्वास करना चाहिए.'' उन्होंने कहा कि सरकार ''राज्‍य में सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए कई तरह के राजनीतिक और प्रशासनिक उपायों पर विचार कर रही है.''

लेकिन सार्वजनिक तौर पर इस समर्थन के बावजूद उमर को निजी तौर पर सलाह दी गई है कि उन्हें उन लोगों के संपर्क में रहना चाहिए जिन्होंने उन्हें सत्ता में पहुंचाया है. कश्मीर के दिग्गज विश्लेषक वजाहत हबीबुल्लाह कहते हैं, ''आप टेलीविजन पर अपने लोगों से अपील नहीं कर सकते. सरकार के खिलाफ अपने हाथों में पत्थर लेकर खड़े छोटे बच्चों से कौन बात कर रहा है?'' गृह सचिव जी.के. पिल्लै ने पिछले महीने कश्मीर के दौरे के समय उमर को बाहर निकलने और लोगों के बीच दिखने की सलाह दी थी. उन्होंने उन्हें आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाइ.एस.आर. रेड्डी जैसे लोकप्रिय नेताओं की मिसाल दी, जो लोगों के बीच जाकर तेलंगाना आंदोलन से निबटे. इस तरह के सुझव से दंग उमर ने जवाब दिया कि अगर वे श्रीनगर में इसे आजमाएंगे तो लोग उन्हें काट डालेंगे. सुरक्षा पर कैबिनेट की समिति (सीसीएस) की बैठक में कश्मीर में बिगड़ते हालात पर चर्चा हुई और उसमें ज्‍यादातर वक्त इसी मुद्दे पर ही बातचीत हुई कि उमर अपने लोगों से जुड़ने में अक्षम रहे हैं.{mospagebreak} सीसीएस में राष्ट्रपति शासन लगाने पर विचार किया गया लेकिन फिर यह महसूस किया गया कि इससे पिछले एक दशक के दौरान बड़ी मुश्किल से हासिल की गई सफलताओं पर पानी फिर जाएगा. बैठक के बाद एक बात बिलकुल स्पष्ट होकर उभरी कि उमर की निगरानी बढ़ा दी गई है. उमर के बारे में माना जाने लगा है कि वे खामोश और उदासीन रहते हैं. उनसे कहा गया है कि वे लोगों के बीच दिखें, सुरक्षा बलों की गोली से मारे गए युवा प्रदर्शनकारियों के परिवारों के प्रति सांत्वना व्यक्त करें, नेता की तरह व्यवहार करें, जो कि वे हैं.

उमर खुद अपने बारे में फलसफाना बात करते हैं. उन्हें कभी कामयाबी दिलाने वाला माना जाता था और अब वे ऐसे नाकाम नायक बनकर रह गए हैं. ''मुझे मालूम था कि मुझे इस उतार-चढ़ाव से गुजरना होगा. आकांक्षाएं इतनी ऊंची थीं कि उन्हें हासिल करना संभव नहीं था. मैंने सोचा नहीं था कि डेढ़ साल में ही हालात इतने बिगड़ जाएंगे, लेकिन अगर मैं तारीफ सुनता तो आलोचना भी झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए. मेरी चमड़ी इतनी मोटी नहीं है जितनी होनी चाहिए लेकिन मैं केवल इंसान.'' केवल वही चालों को लेकर भ्रमित नहीं हैं. यहां तक कि केंद्र में भी परस्पर विरोधी विचार हैं.

एक ओर जहां सीसीएस में अतिरिक्त केंद्रीय बल भेजने का फैसला किया जा रहा था, सूत्रों ने बताया कि वहीं प्रणब मुखर्जी ने असहमति जाहिर करते हुए कहा कि लोगों का दिलो-दिमाग जीत कर ही ऐसे हालात से निबटा जाना चाहिए. उनका मानना था कि सुरक्षा बल के जवान जितने ज्‍यादा दिखेंगे, लोगों का अविश्वास उतना ही बढ़ेगा. जैसा कि एक कश्मीरी युवक ने प्रधानमंत्री के नाम एक भावुकतापूर्ण याचिका में लिखा, ''केंद्र यह संदेश क्यों नहीं दे सकता कि वह लोगों की परवाह करता है? कि वह स्थानीय कश्मीरियों की परवाह करता है? कि उसे मरने वाले लोगों की चिंता है? कि प्रदर्शनकारी मुख्यमंत्री के पिता की तरह लावारिस शरारती बच्चे नहीं हैं, जैसा कि पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला अपने बारे  में बताया करते थे.'' {mospagebreak}सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार को उनसे बातचीत करनी चाहिए. चिदंबरम का कहना है कि केंद्र सरकार ने 2009 में प्रमुख राजनीतिक समूहों और व्यक्तियों के साथ ''गुपचुप बातचीत'' शुरू की थी. इससे राजनीतिक प्रक्रिया तेज होने वाली थी लेकिन वार्ता के समर्थक अलगाववादी नेता फजलुल हक दिसंबर में एक हमले में गंभीर रूप से घायल हो गए. उसके बाद वार्ता रुक गई.

राज्‍य को उग्रवाद के चरम के दौरान देख चुके  जम्मू और कश्मीर के पूर्व राज्‍यपाल जी.सी. सक्सेना का कहना है कि असंयमित बल का प्रयोग कोई जवाब नहीं है. उनका कहना है, ''गोली आखिरी विकल्प के तौर पर चलाई जानी चाहिए. यह जल्दबाजी और दहशत में कार्रवाई करने की घड़ी नहीं है. राज्‍य में स्थानीय सहानुभूति हासिल करना बहुत महत्वपूर्ण है और इसी वजह से लोगों से संपर्क बनाने के तरीके ढूंढने की जरूरत है. सुरक्षा बलों को जता दिया जाना चाहिए कि लोग सबसे महत्वपूर्ण हैं. आप उन्हें जबरन नहीं दबा सकते. हालात बदलने के लिए काफी कुरबानियां दी गई हैं. युवाओं तक किसी भी तरह से यह संदेश पहुंचाना चाहिए.'' एक रोज स्वशासन, दूसरे दिन समान मुद्रा और तीसरे दिन व्यापक स्वायत्तता- अपना उल्लू सीधा करने वाले नेताओं के झूठे वादों से परेशान कश्मीर के युवक, जिन्होंने टकराव और शोरशराबे के अलावा कुछ नहीं देखा है, सिर्फ रेवड़ियां नहीं बल्कि समाधान चाहते हैं.

-साथ में एजाज 'सैन और भावना विज-अरोड़ा

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