महंगाई ने जहां आम आदमी को आटे, दाल का भाव याद दिला दिया है, वहीं इसकी मार से रावण का ‘कद’ भी घट गया है. विजयदशमी या दशहरा पर देशभर में रावण के साथ कुंभकर्ण और मेघनाद का पुतला जलाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है.
दिल्ली में विभिन्न स्थानों पर पुतले बनाने का काम विजयदशमी से दो-ढाई महीने पहले से शुरू हो जाता है और जगह-जगह सड़कों के किनारे पुतले रखे दिखाई देने लगते हैं. लेकिन इस साल महंगाई की मार के साथ राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से लगी पाबंदियों के चलते पुतले बनाने का काम काफी धीमा चल रहा है.
पुतला बनाने वाले कारीगरों के अनुसार, इस साल पुतलों की मांग काफी घट गई है. पुतले बनाने में काम आने वाली सामग्री के दाम पिछले साल की तुलना में दोगुने हो चुके हैं. साथ ही राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से भी इस बार पुतलों के काफी कम आर्डर ही मिल पाए हैं. इससे रावण का कद घट गया है यानी छोटे पुतलों के आर्डर ही मिल रहे हैं, वहीं इसके भाव भी बढ़ चुके हैं. दूसरी ओर कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतलों के तो खरीदार ही नहीं मिल रहे.
पश्चिमी दिल्ली का तातारपुर गांव पिछले कई सालों से रावण के पुतलों का प्रमुख केंद्र रहा है. यहां के कारीगरों के मुताबिक, महंगाई के साथ राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से इस बार पुतलों की मांग काफी घट गई है. पिछले साल तक जहां 50 फुट के पुतलों का दाम 5,000-6,000 हजार रुपये था, वहीं इस साल यह 8,000 से 9,000 रुपये पर पहुंच गया है.{mospagebreak}
महेंद्र और सुभाष रावण वाले के महेंद्र कहते हैं, ‘‘पिछले साल रावण के पुतलों का दाम 100-125 रुपये प्रति फुट था, वहीं इस बार यह 150 से 200 रुपये प्रति फुट पर पहुंच गया है.’’ करीब 35 बरस से रावण के पुतले बना रहे महेंद्र ने कहा, ‘‘इस साल रावण के पुतले बनाने की सामग्री काफी महंगी हो गई है. पिछले साल 20 बांस 800 से 900 रुपये में मिल जाते थे, वहीं इस साल इनका दाम 1,700-1,800 रुपये पर पहुंच गया है.’’ तातारपुर गांव की पहचान रावण के पुतलों की वजह से ही है. सत्तर के दशक में यहां छुट्टन लाल ने रावण के पुतले बनाने की शुरुआत की थी. इस वजह से उनका नाम ‘रावण वाला बाबा’ पड़ गया था. आज उनके कई शार्गिद इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.
पुतला बनाने वाले कारीगर मुख्यत: उत्तर प्रदेश और हरियाणा से आते हैं. रावण वाला बाबा के एक अन्य शार्गिद नरेश कुमार बताते हैं कि तातारपुर में हर साल 1,500 रावण के पुतले बनते थे. पर इस बार यह आंकड़ा ज्यादा से ज्यादा 1,000 पर ही पहुंच पाएगा. हरियाणा के करनाल से यहां पुतला बनाने आए कारीगर सुभाष ने कहा कि वह अगस्त से अक्तूबर तक पुतला बनाने हर साल तातारपुर जरूर आते हैं. बाकी महीनांे में किसी फैक्टरी में काम करते हैं.
नरेश का कहना है कि तातारपुर में हम पांच से लेकर पचास फुट तक के रावण बनाते हैं. इस बार महंगाई की वजह से आर्डर कम आ रहे हैं. उन्होंने कहा कि महंगाई के साथ इस बार राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से भी सड़कों के आसपास पुतले रखने में काफी परेशानी आ रही है. राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से जो बंदिशें लगाई गई हैं, उससे रामलीला के आयोजक अभी आर्डर देने से कतरा रहे हैं.{mospagebreak}
कारीगरों का कहना है कि रावण के पुतलों की मांग घट गई है, तो वहीं कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतलों के लिए आर्डर ही नहीं मिल रहे हैं.
एक अन्य कारीगर प्रवीण ने कहा कि तातारपुर के रावण दिल्ली के अलावा हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक जाते हैं. इस बार भी इन राज्यों से आर्डर मिले हैं. ‘‘कभी यहां के पुतले आस्ट्रेलिया, कनाडा और अमेरिका तक जाते थे. पर अब विदेशों से पुतलों के आर्डर नहीं मिलते हैं.’
बालीवुड की एक फिल्म के रावण दहन के दृश्य के लिए पुतला बना चुके महेंद्र कहते हैं, ‘‘इस काम में अब वह आकषर्ण नहीं बचा है, जो 15-20 साल पहले होता था. अपनांे बच्चांे को मैं इस पेशे में नहीं लाउंगा.’ महेंद्र ने बताया कि पिछले साल उन्होंने 100 पुतले बनाए थे, पर इस साल अभी तक 25 पुतलों के ही आर्डर मिले हैं. कुंभकर्ण और मेघनाद के वह सिर्फ चार-पांच पुतले ही बनाएंगे.
बहरहाल सदियों पुरानी इस परंपरा को जीवित रखने वाले इन कारीगरों की उम्मीद इस बात पर टिकी है कि राष्ट्रमंडल खेल समाप्त होने के बाद पाबंदियां हटेंगी और रामलीला आयोजकों की आशंकाएं दूर होंगी, जिससे उन्हें पुतलों के आर्डर मिलेंगे.