{mosimage}आत्मविश्वास से भरा लोकतंत्र होने के नाते भारत को अपनी राजनीति के विस्थापित भगवान की ओर लौटने से चिंतित होना चाहिए. अयोध्या 1992 प्रकरण को हवा देने पर फलने-फूलने वाली राजनीति भारत को शर्मिंदा करती है.
सन् 1992 में दिसंबर के उस सर्द दिन धर्मनिरपेक्ष भारत की सभ्यता-शिष्टता के प्रति हमारी आस्था को पौराणिक आख्यानों की खुराक पर पली भीड़ के उन्माद ने ध्वस्त कर दिया. लगभग 17 साल बाद भारतीय राद्गय की निष्पक्षता में हमारे भरोसे को संसद भवन में हिंदू राष्ट्रवादियों की कुटिल परियोजना पर तैयार एक वृहद् ऊबाऊ राम कहानी ने धराशायी कर दिया. अयोध्या का भूत लौट आया है. हमें न सिर्फ सहिष्णुता के खंडहरों में ले जाता है यह शब्द उस आक्रोश की ओर भी लौटा ले जाता है, जिसने भारतीय दक्षिणपंथ को सत्तासीन किया था.
तमाशाई राजनीति एक बार फिर लौट आई है. वजह यह कि लिब्रहान अयोध्या जांच आयोग की रिपोर्ट अपनी लचर भाषा, उलझऊपन और संघ परिवार के सारे चिर-परिचित खलनायकों का नाम लेने के मामले में खासी समृद्ध है, पर स्पष्ट तौर पर खामियों से भरपूर है (इसमें शामिल 'छद्म उदारवादी' अटल बिहारी वाजपेयी का नाम जरूर हैरान करता है, जिसकी वजह शायद यह है कि न्यायमूर्ति एम.एस. लिब्रहान 'छद्म धर्मनिरपेक्षता' का नाम देने वाले खलनायक नंबर 1 को अपनी लेखन दक्षता का कायल करना चाहते हैं).
लिब्रहान की सिफारिशों में-सरकार की ओर से की गई कार्रवाई रिपोर्ट जिनकी पूरक है-'भारत किस ओर जा रहा है' जैसे संपादकीय लिखे जाने लायक पाखंड सामग्री तो है ही. अपराधों और अपवंचनाओं (दिल्ली के 1984 और गोधरा, अहमदाबाद के 2002 के दंगे) के हमारे खौफनाक इतिहास में यह राष्ट्रीय परित्याग का मूल्यवान नमूना है. हमारे देश में न्याय का अभी भी अभाव है.
सचाई आयोग के हमारे अपने संस्करण ने आखिर क्या हासिल किया? इसने एक बार फिर सच को राजनीति के क्षुद्र बाजार में विवादास्पद-यहां तक कि संदिग्ध चीज भी-बना दिया है. अपराधियों को गहरे भगवा रंग में रंगकर आयोग ने हताश राजनैतिक हिंदुओं को उनका राम लौटा दिया है. लिब्रहान के लंबे लेख ने अन्यथा चुके हुए और साख गंवा चुके भाजपा नेताओं के लिए धर्मनिरपेक्षता के इस युग में फिर पीड़ित बन जाने का मौका थमा दिया है. यदि आपको उदाहरण चाहिए तो इस पर गौर फरमाएं: ''भाजपा आरएसएस का एक उपांग थी और अब भी बनी हुई है, जिसका उद्देश्य कम लोकप्रिय फैसलों को स्वीकार्यता की परत मुहैया कराना और संघ परिवार के उद्दंड सदस्यों को एक मुखौटा प्रदान करना है.''{mospagebreak}अब सचाई आयोग ने जब राजनैतिक पंडित की भूमिका ले ली है, (कृपया 'अब भी बनी हुई है' पर गौर करें), सताए गए राष्ट्रवादियों और हाशिए पर पहुंच गए मतांधों को एकजुट कर दिया है. और फिर, आयोग भारतीय दक्षिण पंथ का निर्विवाद मानवीय चेहरा माने जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी को एक कार सेवक की तरह प्रस्तुत करता है और तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव को एकदम बरी कर देता है (यदि राव पहले से यह जानते कि उन पर ऐसी कृपा दृष्टि होगी तो सच के अपने संस्करण में वे ऐसा उकताहट भरा लेखन न करते, जिसे उनके अनुरोध पर उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित किया गया). यदि इस देश में धर्मनिरपेक्षता का निर्वहन अल्पसंख्यक बस्तियों का तुष्टीकरण है तो कांग्रेस के पास लिब्रहान आयोग की श्रमसाध्य रिपोर्ट से प्रेरणा पाने की पर्याप्त वजह है.
21वीं सदी के लोकतंत्र के रूप में भारत को अपनी राजनीति के विस्थापित भगवान की तरफ लौटने की चिंता होनी चाहिए. भाजपा अपने सैद्धांतिक वजूद के लिए तथाकथित रूप से उजाड़ी जा चुकी संस्कृति के अंतिम अवशेषों का दौरा करने को जरूर लालायित होगी. भविष्य से डरी पार्टी एक बार फिर अतीत में पनाह लेना चाहेगी. वह आधुनिकता का नकार होगी और अपनी निरर्थकता की स्वीकार्यता. भारतीय राजनीति अयोध्या प्रकरण से आगे निकल चुकी है, और भाजपा इस सच को नकारना गवारा नहीं कर सकती, भले ही वह कितनी ही हताश हो. यह हताशा ही देश के दारुण दौर में राष्ट्रवादियों को महान अतीत को विश्वसनीय बनाने की प्रेरणा देती है.
एक आधुनिक, जिम्मेदार दक्षिणपंथी पार्टी बनने के लिए भाजपा को नारों की तलाश में पौराणिक स्थलों के पिछवाड़े में भटकने की जरूरत नहीं है. इसे बस अपना दिल-दिमाग खोलकर वर्तमान को पढ़ने की जरूरत है. दो आम चुनावों में जीत के बाद कांग्रेस विजयोल्लास के खुमार के खतरनाक ह्नेत्र की ओर बढ़ रही है, तो समझदार विपक्ष के सामने मुद्दों का अकाल नहीं होना चाहिए. लेकिन भाजपा इतनी स्मार्ट है ही नहीं कि दमदार टक्कर दे सके. कांग्रेस अपनी धर्मनिरपेक्षता के विपणन के लिए लिब्रहान रिपोर्ट की प्रेत विद्या उधार ले रही है. इसे भी अयोध्या की जरूरत है.
क्या भारत को आज अयोध्या की जरूरत है? इसे भुला देना कोई राष्ट्रीय सद्गुण नहीं है. अयोध्या 1992 प्रकरण के शोलों को हवा देकर फलने-फूलने वाली राजनीति भारत को और शर्मसार करती है. हर जीवंत राष्ट्र की एक ऐतिहासिक याद होती है, लेकिन न्यूनतम आत्मविश्वास रखने वाले ही इसे राजनैतिक दृष्टि से भुना पाएंगे.