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अयोध्या के परे देखने की चुनौती

राष्ट्र की स्मृति में दर्ज वह गुंबद एक बार फिर राजनीति के अखाड़े में उभर आया है. यह गुंबद आक्रोश में आई आस्था के दबाव में, पीड़ित ईश्वर के कारण तेज हुए आक्रोश के दबाव में जब ध्वस्त हो गया था तब कोई बेहद पवित्र चीज भी ध्वस्त हुई थी, वह चीज थी-गणतंत्र के धर्मनिरपेक्षता के आदर्श.

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राष्ट्र की स्मृति में दर्ज वह गुंबद एक बार फिर राजनीति के अखाड़े में उभर आया है. यह गुंबद आक्रोश में आई आस्था के दबाव में, पीड़ित ईश्वर के कारण तेज हुए आक्रोश के दबाव में जब ध्वस्त हो गया था तब कोई बेहद पवित्र चीज भी ध्वस्त हुई थी, वह चीज थी-गणतंत्र के धर्मनिरपेक्षता के आदर्श.

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घोर अविश्वास के साथ एक राष्ट्र ने राजनीति को अपने सबसे बदतर रूप में देखा था. इतिहास के एक पुरातात्विक स्थल के बूते या मिथक के छिद्रों के बूते जो आंदोलन अपनी वैधता तलाश रहा था उसके लिए एक आक्रमणकारी का बनाया ध्वस्त स्थल एक न्याय का प्रतीक था- उग्र हिंदुत्ववाद के विजय का प्रतीक. लेकिन चौतरफा घिरे एक समुदाय के लिए यह उस भय की पुष्टि थी कि बहुसंख्यक जो दमन करते हैं उसे ताकत नफरत की भावना से मिलती है. दूसरा भय इस समुदाय को दोजख से लगता है.

अयोध्या एक ऐसा विवाद है जो वोट बैंक की राजनीति के शोरबे में वर्षों तक पकाई जाती रही और उसने नए भारत में नेहरूवादी सपने को, आधुनिकता के प्रतीकों को बुरी तरह ध्वस्त किया, जो धार्मिक सहिष्णुता और विज्ञान सम्मत मानसिकता के मेल से उभरे थे. इसने भारतीय राजनीति में विचारधारात्मक उथलपुथल मचा दी, क्योंकि हमने देखा कि अयोध्या में जिस ईश्वर को मुक्त किया गया वह कुछ वर्षों बाद मतदान केंद्रों पर पहुंच गया और दक्षिणपंथ बाग-बाग हो गया. और हम हैरान हो गए कि यह कांग्रेस की करतूत का फल तो नहीं. {mospagebreak}

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पीछे मुड़कर देखें तो लगेगा कि ऐसा नहीं था हालांकि हिंदू राष्ट्रवादी के दिमाग में अचानक विशेष रसायनों का प्रवाह हुआ. एक समय ऐसा लगा कि महा-रथी, तथाकथित छद्म धर्मनिरपेक्षता को चुनौती देने वाले लालकृष्ण आडवाणी भगवा उभार का पूरा फायदा उठाएंगे. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अयोध्या या उसके कारण मचे बवाल ने भाजपा को सत्ता में पहुंचाया.

फिर भी, हिंदुत्व के अलेक्जेंडर दुबचेक (चेकोस्लोवाकिया के नेता जिन्होंने चेक कम्युनिस्ट पार्टी में सुधार लाने की कोशिश की थी) माने जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में सत्तासीन हुई भाजपा ने अयोध्या को दक्षिणपंथ का पवित्र स्थल नहीं बनाया या नहीं बना सकी. हताशा के एक नारे (जब भी संदेह में पड़ो, राम का नाम ले लो) के तौर पर या एक विचारधारात्मक विकल्प के तौर पर अयोध्या मौजूद था. सत्ता के साथ भाजपा का मेल जब भारतीय राजनीति का सबसे छोटा रोमांस साबित हुआ तब पतन किसी विचारधारात्मक कमजोरी के कारण नहीं हुआ था.

2004 में भाजपा का काम तमाम हुआ एक नारे के खोखलेपन के कारण और इस कारण कि भारतीय दक्षिणपंथ 21वीं सदी के भारत की आशाओं-आकांक्षाओं को समझ न पाया. और लंबे सफर के यात्री एक बार बियाबान में पहुंच गए तो उन्होंने रास्ता ही बदल लिया, मिथक की ओर जाने वाले परिचित रास्ते को छोड़ उन्होंने इतिहास के कठिन पथ को चुन लिया. राम मंदिर से उन्होंने जिन्ना के मकबरे तक लंबी छलांग लगा दी. यह हिंदुत्व के मूल ऐक्शन हीरो का सबसे दुस्साहसिक परिवर्तन था, एक विध्वंसक सैद्धांतिक छलांग. अंततः यह व्यक्तिगत यायावारी से ज्‍यादा कुछ नहीं था, जिसने पार्टी या इसके नेता की सैद्धांतिक छवि में कुछ जोड़ा नहीं. {mospagebreak}

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भारत को जिम्मेदार दक्षिणपंथ से अलग तरह के साहस की उम्मीद है. अतीत का दोहन करने की राजनीति अतिवादी जमात का ही विशेषाधिकार रहे तो बेहतर; और कोई सनकी महंत उसका पथप्रदर्शक और दार्शनिक-या हमारी सभ्यता की खामियों का विश्लेषक- न बने तो अच्छा. पराजय भाव से अभी भी ग्रस्त पार्टी के लिए अयोध्या बेशक एक बड़ा आकर्षण हो सकता है, और जब वर्तमान अबूझ दिखता हो और कोई मंजिल न दिखती हो तो अतीत की ओर देखने का लोभ संवरण करना मुश्किल हो सकता है.

सचाई यह है कि उसके लिए मंजिल कई हैं, और भारत खुद उस गुंबद के मलबे से बहुत आगे बढ़ चुका है. भाजपा को करना सिर्फ यह है कि तर्क की शर्तें बदल दे. इतिहास गवाह है कि दक्षिधपंथ सांस्कृतिक युद्ध प्रायः हारता रहा है और आर्थिक लड़ाई जीतता रहा है. भारत में उसने इस परंपरा को पलटते हुए, सांस्कृतिक युद्ध जीतते हुए सत्ता हासिल की थी. आज उसके लिए दोनों मोर्चों पर हारने का खतरा है. आर्थिक युद्ध हारने का मतलब खुद को एक ऐसे समय में निरर्थक बना डालना है जब दक्षिणपंथ के, चाहे वह सत्ता में हो या नहीं, लिए सबसे बड़ी राजनीतिक लड़ाइयां बाजार के मोर्चे पर लड़नी हैं. अर्थव्यवस्था, प्रशासन, और समाज-ये तीन चीजें हैं जो वक्त की रीति-नीति को ठीक-ठीक पढ़ने वाले राजनेता की कल्पनाशीलता की परीक्षा लेते हैं. {mospagebreak}

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बहरहाल, ये जुमले उतने ही पुराने हैं जितनी पुरानी राजनीति है. और भारत में इन जुमलों का घिसापिटापन तब-तब जाहिर होता है जब-जब उन्हें दोहराया जाता है. किसी भी राष्ट्र के जीवन में एक ऐसा भी समय आता है जब रचनात्मकता का विस्फोट रमणीक सुखद कथा को तहसनहस कर देता है, जब वह सब भी काफी क्रांतिकारी लगने लगता है जिन्हें बार-बार दोहराया जा चुका है. भारत में अभी ऐसा नहीं हुआ है, और यह दक्षिणपंथ और कांग्रेस, दोनों के लिए एक अवसर गंवाने जैसा है.

कांग्रेस के वास्ते खासकर इसकी भविष्य की आवाज के लिए. दक्षिणपंथ में तभी जोश आता है जब राष्ट्रवाद के शोकाकुल प्रेत इतिहास की गिरफ्त से बाहर निकलने लगते हैं. उनके आकर्षण से बचने के लिए काफी साहस की जरूरत पड़ती है, क्योंकि अयोध्या के बाद के भारत में भारत दक्षिणपंथ को सैद्धांतिक तौर पर व्यस्त रखने के काफी मौके उपलब्ध करा सकता है. कांग्रेस को भी कुछ संयम दिखाने की जरूरत है. आखिर, उसकी छवि एक ऐसी पार्टी की है जो बंद मानसिकता वाली धर्मनिरपेक्षता के सरकारी परदे की आड़ में होने वाली प्रतियोगी सांप्रदायिकता पर फलती-फूलती है.

अंततः, पूरा मामला भारत और उसकी राजनीति के बेमेलपने पर टिका है. प्रतिगामी राजनीति की शब्दावली उस भारत की भाषा से मेल नहीं खाती, जो किसी विवादास्पद अतीत की गिरफ्त में फंसने से इनकार करता है. वह अलग तरह के विध्वंसकारियों का इंतजार कर रहा है- वे जो हमारी राजनीति को महान अतीत के सम्मोहन से मुक्त करें और उसे वर्तमान की वास्तविकता के रू-ब-रू खड़ा करें. राजनीति इतिहास के साथ बहस में शायद ही कभी जीत पाती है, यही वजह है कि राजनीति के चतुर खिलाड़ी अपनी बातें वर्तमान के संदर्भ में ही करते हैं.

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