28 अक्तूबर को पेशावर के भीड़ भरे मीना बाजार में जिस शक्तिशाली कार बम ने वहां मौजूद लोगों के शरीर के परखचे उड़ा दिए और खून से लथपथ महिलाएं और बच्चे उसके मलबे तले दबे रहे, वह शायद आम पाकिस्तानियों को यह एहसास कराने को काफी था कि उनका मुकाबला किससे है. विस्फोट के बाद मची अफरातफरी, बदहवासी, घायलों को अस्पताल ले जाते एंबुलेंस, दर्द से कराहते और अचानक आई आपदा से स्तब्ध लोग, इमारत गिरने से फैली आग के कारण भागती भीड़- यह दहशत भरा दृश्य यह याद दिलाने को काफी था कि आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान की लंबे अरसे से चली आ रही लड़ाई के नियम अब बदल गए हैं. अखबार डॉन में स्तंभकार साइरिल अलमीदा ने लिखा, ''हमारे इर्दगिर्द जब सब कुछ बिखर रहा है, यह संघर्ष इनमें से किसी का मतलब तलाशने का संघर्ष है. आप अपने सिर को ढकिए या मुंह पर कपड़ा डालिए, या फिर गर्भ में बच्चे की तरह सिकुड़ कर बैठ जाइए. इससे बचना असंभव है.''
रक्तरंजित अक्तूबर 5 अक्तूबरः इस्लामाबाद के डब्लूएफपी दफ्तरों में आत्मघाती दस्ते द्वारा विस्फोटः 5 मारे गए. 9 अक्तूबरः पेशावर के खैबर बाजार में विस्फोटः 54 मरे 11 अक्तूबरः जीएचक्यू पर फिदायीन हमलाः 19 मरे 12 अक्तूबरः शांगला में सैनिक वाहन पर आत्मघाती हमलाः 41 मरे 15 अक्तूबरः लाहौर में एफआइए मुख्यालय, मनावान पुलिस ट्रेनिंग स्कूल और इलीट पुलिस मुख्यालय पर फिदायीन हमलाः 27 मरे, कोहाट थाने पर आत्मघाती हमलाः 11 मरे, रिमोट कंट्रोल कार बम विस्फोट, पेशावरः 1 मरे. 16 अक्तूबरः सीआइए सेंटर पर आत्मघाती कार बम हमला, पेशावरः 15 मरे. 20 अक्तूबरः इंटरनेशनल इस्लामिक यूनि. इस्लामाबाद पर दो आत्मघाती हमलेः 7 मरे. 22 अक्तूबरः इस्लामाबाद में ब्रिगेडियर और ड्राइवर को गोली मारीः 2 मरे. 23 अक्तूबरः कामरा में पाकिस्तान एरोनॉटिक कॉम्पलेक्स पर आत्मघाती हमलाः 3 मरे. 25 अक्तूबरः इस्लामाबाद-लाहौर मोटरवे पर कार को उड़ाया गयाः 2 मरे; पेशावर में कार बम विस्फोट. 27 अक्तूबरः इस्लामाबाद में सेना ब्रिगेडियर पर हमला. 28 अक्तूबरः रिमोट कंट्रोल से कार बम विस्फोट, पेशावरः 117 मरे. 1 नवंबरः बारा में रिमोट कंट्रोल से विस्फोटः 7 मरे. 2 नवंबरः जीएचक्यू के निकट बैंक पर आत्मघाती बम हमला, रावलपिंडीः 35 मरे; लाहौर में पुलिस चौकी पर आत्मघाती हमलाः 1 मरे. |
हादसों भरा महीना
उस दिन 115 से अधिक लोग-जिनमें अधिकतर महिलाएं और बच्चे थे-काल के गाल में समा गए. अक्तूबर का महीना शुरू होते ही आतंकवादी हमलों की निरंतर जारी वारदात में उस दिन तक 350 से अधिक मौतों के आंकड़े में यह भारी इजाफा था. अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के तीन दिन के इस्लामाबाद दौरे के दौरान असैनिक ठिकानों पर यह घातक हमला था. वे पाकिस्तान की इस मुसीबत की घड़ी में उसे अपने देश के समर्थन का आश्वासन देने आईं थीं. कई लोगों का तो मानना है कि यह हादसा अमेरिका के साथ पाकिस्तान के दोस्ताना संबंधों की वजह से ही हुआ.
लड़खड़ाने लगी है व्यवस्थाआतंकवादी हमले न सिर्फ दुस्साहसी हुए हैं बल्कि उनकी बर्बरता और दायरे में भी वृद्धि हुई है. 'पाकिस्तानी तालिबान' कहलाने वाले और अल कायदा के तत्वों की आतंकवादी कार्रवाई समझे जाने वाले हमलों के निशाने पर पहले सुरक्षा बल और उसके ठिकाने हुआ करते थे लेकिन अब उनके अंधाधुंध आतंक की जद में असैनिक स्थान भी आने लगे हैं. डॉन के संपादकीय ने भी माना कि ''राज्यतंत्र भी अब अप्रत्याशित हिंसा की लहर के सामने लड़खड़ाने लगा है.''
पाकिस्तान की लड़ाईतालिबानी आतंक के भयावह विस्तार से चिंतित पाकिस्तानी सेना ने सुदूर कबायली क्षेत्र, दक्षिण वजीरिस्तान में निर्णायक लड़ाई तेज कर दी है. पाकिस्तान में आतंकवाद का 'गुरुत्वाकर्षण केंद्र' समझे जाने वाले गुट राह-ए-निजात पर लगाम कसने के लिए यह फैसला किया गया है. अकेले दक्षिण वजीरिस्तान में ही लगभग 30,000 सैन्य टुकड़ियां तैनात हैं जो भारी तोपखाने, टैंक, हेलिकॉप्टर गनशिपों और एफ-16 जेट विमानों से लैस हैं. सेना अरसे से दावा करती आई है कि ''देश में अधिकतर आतंकवादी हमलों और दूसरे हिस्सों में आतंक की जड़ें'' अर्धस्वायत्त एजेंसी के महसूद कबायली इलाके में हैं. इसका दावा है कि यह 10,000 से अधिक कट्टर लड़ाकों से लड़ रही है. इनमें लगभग 1,000-1,500 विदेशी उ.ज्बेकी आतंकवादी शामिल हैं जो बैतुल्ला महसूद के तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) से संबंध रखते हैं. बैतुल्ला महसूद 5 अगस्त को अमेरिकी हमले में मारा गया था और कई सालों से पाकिस्तान के सर्वाधिक वांछित आतंकवादियों में एक था. अधिकारियों का दावा है कि यह क्षेत्र पूरे पाकिस्तान के आतंकवादियों- जिनमें तथाकथित पंजाबी तालिबान और अल-.कायदा से जुड़े विदेशी आतंकवादी भी शामिल हैं-की आश्रय स्थली और प्रशिक्षण केंद्र बना हुआ है.{mospagebreak}मानो यह हालात को संकटपूर्ण बनाने को काफी नहीं था, पाकिस्तान की राजनीति उस शक के दौर से गुजर रही है जिससे इसका अल्पकालिक लोकतांत्रिक इतिहास भरा पड़ा है. इसके केंद्र में है व्यवस्था, खासकर राष्ट्रपति आसिफ अली .जरदारी और सेना के बीच बढ़ता जा रहा अविश्वास और अलगाव. अटकलों का बाजार गरम है कि यह पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के सह अध्यक्ष के लिए अंत की शुरुआत है, खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि संसद विवादास्पद नेशनल रिकंसीलिएशन ऑर्डिनेंस (एनआरओ) को मंजूरी न दे. उस कानून के बिना राष्ट्रपति और उनके करीबियों- जिनमें अधिकतर अब सरकार में ताकतवर पदों पर हैं- के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप फिर खुल सकते हैं. अब अटकलों का केंद्र यह है कि क्या .जरदारी अकेले ही जाएंगे या अपने साथ व्यवस्था का भी बेड़ा गर्क कर जाएंगे.
आर्थिक मंदी की मार से त्रस्त है पाकविश्वव्यापी आर्थिक मंदी की मार से त्रस्त पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था, बिजली की तंगी, ऊंची मुद्रास्फीति दर और सुरक्षा तथा राजनैतिक हालात को लेकर अनिश्चितता कम मारक नहीं है. पाकिस्तान के अधिकतर हिस्सों में बाजारों और रेस्तरांओं-सिवा कराची के, जो अब तक हमलों से बची रही है- में सूनेपन और दहशत को सहज ही महसूस किया जा सकता है. हमलों की संख्या और पाकिस्तान की अपर्याप्त सुरक्षा स्थिति ने दुनिया भर की राजधानियों- जिनमें दिल्ली भी शामिल है-की चिंता बढ़ा दी है कि क्या पाकिस्तान ऐसे अंधाधुंध आतंक को झेलने में सक्षम है? बड़ी चिंता यह भी है कि क्या उसे बचाया जा सकता है? दुनिया के लिए दुःस्वप्न भरा परिदृश्य यह है कि परमाणु हथियारों से संपन्न पाकिस्तान अफगानिस्तान की राह पर चल रहा है और इसका अंत एक खतरनाक बिखरे हुए तालिबानी राष्ट्र के रूप में हो सकता है.
कबायली इलाकों में पाक की लड़ाईयही वजह है कि पाकिस्तानी सेना कबायली इलाकों में 'करो या मरो' की जो लड़ाई लड़ रही है, वह उसके वजूद के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. और यही वजह है कि पाकिस्तानी जनता आतंकवाद को अपनी जमीन से उखाड़ने के लिए इतनी कटिबद्ध पहले कभी नहीं रही जितनी अब है और अधिकतर लोग आतंकी हमलों में वृद्धि को उस प्रतिबद्धता की स्वाभाविक परिणति मानते हैं. दक्षिण वजीरिस्तान में जैसे-जैसे थल और वायु सेना के हमले तेज हो रहे हैं, सर्वेक्षण बताते हैं कि सिर्फ 13 फीसदी जनसंख्या उस क्षेत्र में सेना की कार्रवाई का विरोध कर रही है.
मानव रहित विमानों का उपयोगअमेरिका का भी मानना है कि अल कायदा ने 2002 के बाद से वजीरिस्तान के उत्तर और दक्षिण के कुछ हिस्सों में अपने अड्डे बनाए हैं. और 2004 से सीआइए मानव रहित वायुयानों की मदद से आतंकवादी नेताओं पर निशाने साध रही है. पिछले दो सालों में ऐसे हमलों में तेजी आई है, हालांकि पाकिस्तानियों ने इसका विरोध भी किया है. लेकिन इस क्षेत्र में खूंखार आतंक-जिसने परंपरागत कबायली नेताओं को मिटाकर खुद को मजबूत कर लिया है-से निबटने के सेना के अपने प्रयास अब तक एकदम नाकाम रहे हैं.
सेना का नाकाम प्रयासइस क्षेत्र में सेना के पहले तीन प्रयास-2004, 2006 और 2008 में-अपमानजनक हद तक नाकाम रहे. पिछले साल, जब अभियान शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया, के अलावा सेना को 2004 और 2006 में इतनी अधिक क्षति उठानी पड़ी कि वह अमन के लिए मजबूर हो गई और उसे स्थानीय लड़ाकों से समझैता करना पड़ा. अधिकारियों का दावा है कि इस बार हालात अलग होंगे. एक वरिष्ठ सेना कमांडर का कहना है, ''इस बार हमने तैयारी अच्छी तरह कर ली है. इस अभियान के लिए हम तीन महीने से तैयारी कर रहे हैं और राष्ट्रीय राजनीतिक आम सहमति हमारे साथ है. तब और अब में यह भारी अंतर है. जनता समझ्ती है कि ये आतंकवादी हताशा में हमला करेंगे लेकिन यदि इस दहशत को रोकना है तो इसे जड़ से उखाड़ना जरूरी है.''{mospagebreak}अभियान की 'तैयारी' के तहत दूसरे कबायली लड़ाकों-उत्तरी वजीरिस्तान में हफीज गुल बहादुर, और दक्षिणी वजीरिस्तान में पहले टीटीपी से संबंद्ध वजीरी कबीले के मौलवी नाजिर- के साथ करार किया गया कि वे कार्रवाई में निष्पक्ष रहेंगे. सेना के एक सूत्र का कहना है, ''पहले के अभियानों की समस्याओं के बाद सेना को एहसास हो गया कि वह सारे आतंकियों से एक साथ लड़ना गवारा नहीं कर सकती.'' उसने बैतुल्ला महसूद गुट-जिसकी कमान अब उसके उत्तराधिकारी हकीमुल्लाह महसूद के हाथ में है-को अलग-थलग करने की कोशिश की. इसके लिए महसूद कबीले के भीतर प्रतिद्वंद्वियों की ओर हाथ बढ़ाया गया. जिनमें अब्दुल्ला महसूद गुट और तुर्किस्तान भिट्टानी शामिल हैं, जिनका निशाना मुख्य तौर पर अफगानिस्तान रहा है.
पाक का स्वात अभियानलगता है, काफी हद तक सफल रहे स्वात अभियान ने अमेरिका को आश्वस्त कर दिया है कि धुर कट्टरपंथियों को उनके कम खतरनाक समर्थकों से अलगथलग करने की पाकिस्तानी सेना की रणनीति उतनी बुरी भी नहीं है. एक सूत्र इसकी व्याख्या करते हैं, ''हमने उन्हें आश्वस्त कर दिया कि हमारी प्राथमिकता वे लोग ही हो सकते हैं, जिनसे पाकिस्तान को फिलहाल सबसे अधिक खतरा है. जनता का और स्थानीय समर्थन पाने का यही एकमात्र तरीका है. हमें एक बार में एक ही कदम उठाना है.'' पाकिस्तान ने अमेरिका से यह भी कह दिया है कि वह इस मामले में हस्तक्षेप न करे ताकि यह न लगे कि यह अभियान पाकिस्तान का नहीं था. उसने प्रत्यक्ष समर्थन वाला कोई बयान भी देने को मना किया है.
महसूद क्षेत्र का घेरावसेना की रणनीति यह रही-उसने महसूद क्षेत्र का तीन दिशाओं से घेराव किया और इलाके को अफगानिस्तान सीमा से अलग करने वाली पट्टी को बंद कर दिया. इस बार उसने अपने निशानों को 'कमजोर करने' के लिए हवाई बमबारी का भी जमकर इस्तेमाल किया. पहले हुए स्वात घाटी अभियान की तरह ही इस अभियान के लिए भी भारी संख्या में नागरिकों को वहां से हटाने की जरूरत महसूस हुई, जिसकी वजह से भारी मानवीय संकट पैदा हो गया है. सीमावर्ती क्षेत्र डेरा इस्माइल खां शहर में स्थापित शिविर सहसा ही गरीब, मैले-कुचैले परिवारों से भर गया, जिनमें से अधिकतर अपने साथ कपड़ों के अलावा कुछ नहीं ला पाए थे.
बढ़ी विस्थापितों की संख्याहालांकि इस अभियान के चलते विस्थापितों की संख्या-लगभग दो लाख-इससे पहले मालाकंद क्षेत्र से विस्थापितों की संख्या के सामने कहीं भी नहीं है, लेकिन इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और अभियान शुरू करने से पहले सेना द्वारा बाहर जाने के रास्ते बंद करने का यह अर्थ था कि बमों के हमले से बचने के लिए पथरीले इलाके में पैदल ही लंबा रास्ता तय करने के कई परिवारों के रोंगटे खड़े करने वाले किस्से भी रहे होंगे.
सेना के अभियान को स्वीकृतिलेकिन अभियान पर 'राष्ट्रीय सहमति' ने अब तक सेना को अभियान के इस मानवीय परिणाम का भी अभ्यस्त कर दिया था. यह सहमति संसद में नुमाइंदगी करने वाले असैनिक नेतृत्व के साथ सेना तथा आइएसआइ प्रमुख की 16 अक्तूबर की बैठक में स्पष्ट थी, जिसमें सेना को अभियान के लिए हरी झंडी दे दी गई. बैठक में मौजूद एक सूत्र के मुताबिक, आइएसआइ प्रमुख जनरल शुजा पाशा ने बैठक में मौजूद सैनिक और असैनिक नेतृत्व से कहा, ''आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि आतंकवादियों की हिट लिस्ट में कितने लोग हैं... इसमें न सिर्फ महत्वपूर्ण शख्सियतें और नेता शामिल हैं बल्कि विभिन्न पेशों के सामान्य व्यक्ति भी हैं.'' यह बैठक इस्लामाबाद, पेशावर, रावलपिंडी, कोहाट और लाहौर में एक के बाद दूसरे आतंकवादी हमलों के एक हफ्ते बाद हुई. इन हमलों में 11 अक्तूबर को सेना के जनरल हेडक्वार्टर पर हुआ दुस्साहसी फिदायीन हमला भी शामिल है, जिससे लगभग बंधक बना देने वाली स्थिति बन गई थी, जो लगभग 20 घंटे चली. हालांकि वजीरिस्तान का अभियान काफी पहले होना था, लेकिन कई लोगों का मानना है कि सेना के जनरल हेड क्वार्टर पर हमले ने संभवतः सेना के सब्र का बांध तोड़ दिया.{mospagebreak}वजीरिस्तान में प्रवेश करते हुए सेना का मानना था कि आतंकियों का लक्ष्य पूरे देश को अस्थिर करने के अलावा कुछ भी नहीं था. लेकिन सेना ने वहां जो पाया, उसके लिए भी शायद वह तैयार नहीं थी. सेना ने रिज के ऊपर गारे की झेंपड़ियों से बने और ओलिव गार्डन से घिरे गांव शेरावांगी को घेरा तो उसे मोहम्मद अट्टा के 9/11 के कुख्यात हमलावर हैमबर्ग सेल के महत्वपूर्ण सदस्य शेरावंगी का पासपोर्ट मिला बल्कि एक भरपूर संचार नियंत्रण कक्ष भी, जो उपग्रह लिंक और इंटरनेट के जरिए पूरी दुनिया से जुड़ा था. जैसे-जैसे सेना के हाथ और तथ्य लगते गए, यह स्पष्ट होता गया कि इस क्षेत्र पर टीटीपी की जगह अल .कायदा का नियंत्रण है. पाकिस्तानी अधिकारी महसूस करते हैं कि पेशावर के बाजारों और इस्लामाबाद में वर्ल्ड फूड कार्यक्रमों (डब्लूएफपी) जैसे 'असैनिक सहज ठिकानों' पर हमले और पूरे पाकिस्तान में स्कूलों पर हमलों की धमकी भी विदेशी षड्यंत्र-कारियों के शामिल होने का स्पष्ट संकेत है.
भारत पर लगाया आरोपसंयोग से पाकिस्तान ने भी दक्षिण वजीरिस्तान के कुछ इलाकों से भारत में बने हथियार और दवाएं बरामद होने का संकेत दिया है. देश के आंतरिक (गृह) मंत्री ने दावा किया कि, ''न सिर्फ बलूचिस्तान में बल्कि पाकिस्तान में हर आतंकवादी गतिविधि में भारत का हाथ होने के हमारे पास ठोस सबूत हैं.'' अब यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसे दावे पाकिस्तान के खिलाफ भारत के आरोपों का राजनैतिक जवाब हैं या कुछ अधिक गहन निहितार्थ प्रेषित करते हैं.
सेना और शासन के बीच मतभेदसेना जैसे-जैसे आतंकवाद से लोहा ले रही है, पाकिस्तान में राजनैतिक स्थायित्व, खासकर सेना और राष्ट्रपति जरदारी के बीच बढ़ते मतभेदों से चिंता बढ़ती जा रही है. असल में सत्ता प्रतिष्ठान ने तो .जरदारी और उनके करीबियों को उनके विवादास्पद अतीत के चलते हमेशा ही अविश्वास की नजर से देखा है, लेकिन हाल में दोनों के बीच खाई और मतभेद बढ़ने की वजह अमेकिरी कैरी-लुगर विधेयक है, जिसके तहत अगले पांच सालों में पाकिस्तान को असैन्य परियोजनाओं के लिए 7.5 अरब डॉलर मदद के रूप में देने का वादा किया गया है. पाकिस्तान की बीमार अर्थव्यवस्था को ऐसी आर्थिक मदद की बहुत जरूरत है लेकिन सेना ने सार्वजनिक रूप से विधेयक की भाषा को लेकर इसका विरोध किया, इसका दावा था कि उसमें ऐसी शर्तें थीं जिनमें राष्ट्रीय संप्रभुता से समझैता किया गया था, और वे खासी अपमानजनक भी थीं.
जरदारी की भूमिका पर सवालविधेयक की जो भी खूबियां हों और सेना की इसके बारे में जो भी राय हो, मामला बिगड़ने की बड़ी वजह यह थी कि पीपीपी सरकार ने-.जरदारी के प्रत्यक्ष समर्थन से- शुरू में सेना की आपत्तियों की उपेक्षा की और अमेरिकी सैन्य सहायता का भरपूर स्वागत किया. विधेयक पर मीडिया ने जो गुल-गपाड़ा किया और विपक्ष जिस तरह उसके साथ आ मिला, उससे .जरदारी अलग-थलग पड़ गए और ऐसे नेता के रूप में जाने जाने लगे, जो देश की संप्रभुता से समझैता करने को तैयार है. एनआरओ विधेयक- जिसे सरकारी भ्रष्टाचार पर सफेद पुताई करने वाला काला कानून माना गया- पर मचे शोर से .जरदारी की छवि को लेकर समस्या और गहरी हो गई.
जरदारी को हाशिये पर डालने की कवायदकई राजनैतिक पंडितों का मानना है कि राष्ट्रपति .जरदारी को धीरे-धीरे हाशिये पर डाला जा रहा है, ताकि उनके लिए एकमात्र रास्ता पद से हट जाने का रहे या फिर वे शेष समय के लिए नाममात्र के मुखिया बने रहने का विकल्प स्वीकार कर लें. अपनी कमजोर स्थिति को महसूस कर .जरदारी ने विपक्ष के नेता नवा.ज शरीफ से समझैता करने का प्रयास किया. .जरदारी ने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति जनरल परवे.ज मुशर्रफ ने अपने शासन के दौरान जो अधिकार और सत्ता हथिया लिए थे, उन्हें कम करने का अरसे से भुलाया हुआ वादा पूरा करने का चुग्गा फेंक शरीफ को फुसलाने की कोशिश की. लेकिन यह शायद पर्याप्त नहीं होगा. एनआरओ के जाने के बाद उनके विरोधी हाल में बहाल स्वतंत्र न्यायपालिका के जरिए अपनी बाजी जीतने का दांव खेल सकते हैं. उधर, शरीफ दुविधा में हैं. उन्हें उसी सत्ता प्रतिष्ठान (जिस पर उन्हें भरोसा नहीं है) के हाथ का खिलौना बनने, दूसरी ओर अपनी पार्टी के सत्ता में आने की अदम्य इच्छा के बीच संतुलन साधने में कठिनाई हो रही है.{mospagebreak}लेकिन पीपीपी के लिए स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है. पहली बात तो यह है कि कोई भी गंभीर राजनैतिक प्रेक्षक यह नहीं मानता कि सेना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का तख्ता पलटना चाहती है- कम से कम फिलहाल तो नहीं ही. अंतरराष्ट्रीय हालात फौजी हुकूमत की संभावनाओं के संकेत तो नहीं देते हैं. खासकर जनरल अशफा.क परवे.ज कयानी ने सेना के लिए जनता का जो सम्मान अर्जित किया है, उसे वे गंवाना नहीं चाहेंगे. दूसरी बात यह कि कम-से-कम आतंकवाद विरोधी अभियान के मुद्दे पर तो सेना और असैनिक सरकार की एक राय है. सेना अब से पहले शिकायत करती रही है कि आतंकवादियों से टकराव लेने के परिणामों का सामना करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति की भारी कमी रही है. अधिकतर आतंकवादियों को सेना ने अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ और कश्मीर में भारत के खिलाफ युद्ध के लिए पोषित किया था. इसका दावा था कि जब जान-माल की क्षति होने लगती या सहयोगी दल अपने निर्वाचन क्षेत्रों में दमन कार्रवाई पर आपत्ति उठाते तो नेताओं में प्रायः ही जनमत का सामना करने की हिम्मत नहीं होती. लेकिन इस बार तो राष्ट्रपति .जरदारी ने अपने पार्टी सदस्यों से कहा कि, ''अब पीछे नहीं हटना है... जब तक आतंकवादियों का पूरी तरह सफाया नहीं हो जाता.''
सर्दी में सैन्य अभियान में कमीसेना का दावा है कि अभियान का अधिकतर हिस्सा एक-डेढ़ महीने में पूरा हो जाएगा. कम-से-कम वे तो यही चाहेंगे, क्योंकि दिसंबर तक उस क्षेत्र में कड़ाके की सर्दी पड़ने लगेगी जिसकी वजह से सैन्य अभियान और कठिन हो जाएंगे. खासकर ऐसे दुश्मन के खिलाफ, जो उस क्षेत्र और उस मौसम में लड़ने का आदी हो चुका है. सेना ने अब तक कई सफलताएं हासिल की हैं और जितने विरोध की वह कल्पना कर रही थी, उससे बहुत कम का उसे सामना करना पड़ा है. लेकिन वह कब्जा किए शहरों और रणनीतिक क्षेत्र को लंबे समय तक अपने कब्जे में रख पाएगी या नहीं, यह देखना बाकी है.
आतंकवादी नेटवर्क के ध्वस्त होने की उम्मीदलेकिन कोई भी यह नहीं मानता कि इस क्षेत्र से आतंकवाद के खात्मे के लिए सिर्फ सैन्य कार्रवाई ही पर्याप्त होगी. सैन्य अभियान अधिक से अधिक बस यही कर सकने की उम्मीद रख सकते हैं कि वे आतंकवादियों के नेटवर्क को ध्वस्त कर दें ताकि स्थानीय कबीले फिर अपना वजूद जमा सकें और राजनीतिक प्रक्रिया के कारगर होने के लिए आधार तैयार हो सके. सैन्य नीतियों के जरिए पोषित की गई मानसिकता और राजनैतिक अवसरवाद को बदलने के लिए एक राह-ए-निजात के अलावा और भी बहुत कुछ की जरूरत होगी.
आतंकवाद से ग्रस्त लोगों के बीच पुनर्निर्माण की कवायदलेकिन वर्तमान सैन्य अभियान और आतंकवाद से ग्रस्त क्षेत्र में भविष्य में समाज पुनर्निर्माण की सफलता लक्ष्य के प्रति गंभीरता पर भी निर्भर करती है. इसे हासिल करने के लिए पाकिस्तान के राजनैतिक और सैन्य अभिजात वर्ग को सत्ता की खातिर अपनी ह्नुद्र लड़ाइयां छोड़नी होंगी. अन्यमनस्कता से निकली असफलता पाकिस्तान या फिर विश्व के लिए कोई विकल्प नहीं है.