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हाथी रौंद गया सबको

उपचुनावों के नतीजों से जाहिर है कि मायावती का जादू अभी बरकरार है और उसके साथ ही मुलायम के पुत्र अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा के भविष्य पर भी खड़े हुए सवाल.

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यदि प्रदेश की 11 विधानसभा सीटों और फिरोजाबाद की लोकसभा सीट पर उपचुनाव को लघु आम चुनाव माना जाए तो नतीजे बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में मायावती का शासन अभी लंबे समय तक जारी रहने वाला है. बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का हाथी सब तरफ रौंदता हुआ बढ़ रहा है. उसने पूरब में पूर्वांचल से लेकर दक्षिण-पश्चिम में बुंदेलखंड और मध्य क्षेत्र के दोआबा-चंबल क्षेत्र (जिसमें इटावा और फिरोजाबाद का इलाका भी पड़ता है) से लेकर तराई क्षेत्र तक, हर जगह अपने झंडे गाड़ दिए हैं.

विधानसभा में बसपा की स्थिति बेहतर
ताजा व्यापक जीत में बसपा को 11 सीटों में से नौ मिलने का मतलब है कि अगस्त से लेकर हुए 15 उपचुनावों में पार्टी की झोली में 12 सीटें जा चुकी हैं. इस क्रम में मायावती ने 403 सदस्यीय विधानसभा में अपनी स्थिति और भी मजबूत कर ली है. मई, 2007 में सरकार गठन के समय बसपा के पास 206 विधायक थे. अब यह संख्या 227 हो गई है.

सपा की पराजय रही नाटकीय
मायावती की जोरदार जीत की तरह ही नाटकीय थी समाजवादी पार्टी (सपा) की पराजय, जो कोई भी सीट नहीं पा सकी. सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के लिए, जिन्होंने मोक्षदायिनी नगरी वाराणसी में चुनाव नतीजे देखे, यह भारी झटका था. खासकर फिरोजाबाद का नतीजा, जहां मुलायम ने अपनी पुत्रवधू डिंपल यादव को कांग्रेस के उम्मीदवार राजबब्बर के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारा था. यह सीट डिंपल के पति अखिलेश यादव ने खाली की थी. फिरोजाबाद की सीट दो राजनैतिक परिवारों-गांधी और यादव-के बीच नाक की लड़ाई थी. डिंपल के चुनाव नतीजे से यादव पिता-पुत्र का सम्मान जुड़ा था. और सपा का प्रदेश अध्यक्ष पद संभालने के बाद अखिलेश के नेतृत्व की यह पहली परीक्षा थी.
 
अखिलेश के लिए अभी राह मुश्किल
डिंपल की 85,000 वोटों से हार इस बात का सबूत है कि अखिलेश को अपना कद बढ़ाने के लिए अभी लंबा सफर तय करना होगा. इस हार से मुलायम को कहीं ज्‍यादा गहरी चोट लगी है, क्योंकि उन्हें आगरा से सपा के सांसद रहे उसी राजबब्बर के हाथों पराजय का मुंह देखना पड़ा, जिन्हें उनके कुछ नेताओं ने पार्टी से खदेड़ दिया था. मई के लोकसभा चुनावों में प्रदेश की 80 में से 23 सीटें पाकर सपा सबसे ऊपर थी, उसके बाद कांग्रेस और फिर बसपा का नंबर था, जिन्हें क्रमशः 21 और 19 सीटें मिली थीं. अब फिरोजाबाद की सीट के साथ कांग्रेस 22 सीटों के साथ सपा के बराबर हो गई है.

कांग्रेस की भी बांछें खिलीं
अकेले इस बात को एक ऐसे राज्‍य में कांग्रेस की वापसी का संकेत माना जा रहा है, जहां लोकसभा की सबसे ज्‍यादा 80 सीटें हैं. अयोध्या और मंडल आंदोलनों के बाद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में पूरी तरह हाशिए पर चली गई थी, क्योंकि इसका पारंपरिक जनाधार खिसककर भगवा ब्रिगेड या मुलायम की ओर चला गया था. मुसलमान कांग्रेस से नाराज होकर मुलायम को अपना शुभचिंतक समझने लगे थे.{mospagebreak}पर सामाजिक ताना-बाना बदलने से उसका वोट बैंक एक बार फिर कांग्रेस की ओर रुख करने लगा है. मुलायम के पिछले शासन के दौरान मुसलमानों का सपा से मोहभंग होने लगा और वे कांग्रेस की ओर देखने लगे थे. फिर भी मुलायम ने मुसलमानों के समर्थन को गारंटीशुदा मान लिया. मुलायम के लिए इससे भी हताशाजनक बात यह रही कि यादव वोट बैंक मायावती की तरफ खिसक गया. इटावा जिले की भरथना सीट इसका बेहतरीन उदाहरण है. यह वही सीट है, जहां से 2007 में मुलायम विधानसभा में पहुंचे थे. उन्होंने यह सीट खाली कर दी थी. मायावती ने ताजा उपचुनाव में यहां से शिव प्रसाद यादव को खड़ा किया था, जिन्होंने 15,776 वोटों के अंतर से यह सीट जीती.

मुलायम के गढ़ में लगी सेंध
इस तरह मायावती और कांग्रेस ने मुलायम के  गढ़ में गहरी सेंध लगा ली. कांग्रेस ने फिरोजाबाद सीट पर जीत का सारा श्रेय तुरंत महासचिव राहुल गांधी को दिया. राहुल ने अभिनेता से नेता बने बब्बर के लिए जोरदार प्रचार किया. 1978 के बाद किसी उपचुनाव में नेहरू-गांधी परिवार ने पहली बार किसी उम्मीदवार के पक्ष में चुनाव प्रचार किया था. 31 साल पहले इंदिरा गांधी ने आजमगढ़ में मोहसिना किदवई के पक्ष में चुनाव प्रचार किया था. यह वह साल था, जब आपातकाल के बाद 1977 में आम चुनाव में कांग्रेस का सफाया होने के बाद इंदिरा गांधी दोबारा वापसी की शुरुआत कर रही थीं.
 
इस बार बसपा का कब्‍जा
बहरहाल, राहुल सुल्तानपुर की इसौली सीट पर जीत नहीं दिला पाए. यह सीट उनकी लोकसभा सीट अमेठी से सटी हुई है. हालांकि 2007 में सपा यहां विजयी रही थी, लेकिन इस बार बसपा ने इस पर कब्जा कर लिया और कांग्रेस उम्मीदवार जय नारायण तिवारी को दूसरे स्थान पर पछाड़ दिया. उधर, लखनऊ (पश्चिम) विधानसभा सीट पर कांग्रेस की फिर से जीत को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा-जोशी का करिश्मा बताया जा रहा है. उन्होंने यहां अथक चुनाव प्रचार किया था, हालांकि इस पर कुछ प्रश्नचिन्ह भी लगे हैं. मई के लोकसभा चुनाव में भाजपा नेता लालजी टंडन ने बहुगुणा-जोशी को हराकर लखनऊ की सीट जीती थी. इसके बाद उन्होंने विधानसभा की सीट खाली कर दी थी, जिसके बाद यहां उपचुनाव हुआ. टंडन ने खुलेआम अमित पुरी का विरोध किया था क्योंकि वे अपने पुत्र आशुतोष टंडन उर्फ गोपालजी को लखनऊ (पश्चिम) से लड़ाना चाहते थे. जमीन से जुड़े नेता पुरी 2,100 वोटों के बहुत मामूली अंतर से हार गए. सूत्रों का कहना है कि भाजपा के अधिकारिक उम्मीदवार को हराने के लिए टंडन ने कांग्रेस से सांठगांठ की और कथित तौर पर अपने समर्थकों से कांग्रेस को वोट देने के लिए कहा. पार्टी के भीतरी सूत्रों के अनुसार, टंडन ने खुलेआम सवाल खड़ा किया था, ''कौन आलाकमान.''

कांग्रेस के उभार में राहुल की भूमिका
लेकिन बहुगुणा-जोशी का कहना है कि कांग्रेस की जीत की वजह यह है कि जनता ने सरकारी मशीनरी की मदद से विपक्ष को खत्म करने के मायावती के एजेंडे को सिरे से नकार दिया. उनका दावा है कि फिरोजाबाद और लखनऊ में कांग्रेस की सफलता राहुल के  'मिशन 2012' की प्रस्तावना है. बकौल कांग्रेसी नेता प्रमोद तिवारी, चुनाव नतीजे स्पष्ट संकेत हैं कि अगामी चुनावों में बसपा और कांग्रेस का मुकाबला होने वाला है. दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मामलों के प्रभारी वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह का दावा है कि अगले विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस की सरकार बनने वाली है. कांग्रेस के आशा-वादी होने की वजहें हैं. पार्टी ने न केवल यादव परिवार से फिरोजाबाद और भाजपा से लखनऊ (पश्चिम) की सीट जीत ली बल्कि पांच विधानसभा सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रही. इसके अलावा राहुल की अगुआई में कांग्रेस ने शासन और विकास के मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाया, जबकि मुलायम और अखिलेश ने जनता से 'मुलायम की प्रतिष्ठा' बचाने के लिए वोट देने की अपील की थी. पार्टी नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान पूरे इटावा- फिरोजाबाद क्षेत्र में विकास न होने का मुद्दा उठाया. उन्होंने मतदाताओं को बताया कि अगर कोई विकास हुआ है तो वह सिर्फ नेताजी (मुलायम सिंह)के गृह नगर सैफई तक ही सीमित रहा है.{mospagebreak}
सपा पर परिवारवाद का आरोप
मायावती ने तुरंत कांग्रेस से सहमति जताई कि सपा ने सभी पांच विधानसभा सीटें और फिरोजाबाद की लोकसभा सीट 'नकारात्मक' प्रचार और परिवारवाद की राजनीति के कारण गंवाईं. उन्होंने अपनी जीत का कारण सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की नीति और ढाई साल के शासन में विकास योजनाओं को लागू करना बताया. लेकिन उनका प्रभाव उत्तर प्रदेश तक ही सीमित है. महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों में बसपा के  282 उम्मीदवारों में से 252 की जमानत जब्त हो गई थी.

हाशिए पर चली गई भाजपा
उधर, दो बार हुए उपचुनावों में एक भी सीट न जीतने वाली भाजपा 'हिंदुत्व का हृदय स्थल' माने जाते उत्तर प्रदेश में हाशिए पर चली गई है. कथित 'हिंदू हृदय सम्राट' और पूर्व भाजपा नेता कल्याण सिंह के साथ मुलायम की करीबी से मुसलमानों और समाजवादियों में नाराजगी उपजी. कल्याण ने जब मुलायम से हाथ मिलाया तो मोहम्मद आजम खान जैसे असरदार मुस्लिम नेता नाराज होकर तिलमिलाते रहे तो दूसरे नेताओं ने बसपा या कांग्रेस का दामन थाम लिया. मुलायम को इससे जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ा. वे लोध-राजपूत गठजोड़ पर भरोसा जताते रहे. लेकिन उनकी उम्मीदें धराशायी हो गईं.

चल निकली माया की चाल
दिलचस्प है कि मायावती ने तीन बार लोकसभा सांसद रहे और अब राज्‍यसभा सदस्य गंगाचरण राजपूत को लोध राजपूत नेता के रूप में पेश किया था. उनकी चाल काम कर गई. डिंपल की हार की एक बड़ी वजह यह भी थी कि राजपूत ने कल्याण छाप राजनीति के खिलाफ चुनाव प्रचार किया था. कल्याण के फरमान के बावजूद लोध राजपूतों ने सपा के  पक्ष में मतदान नहीं किया. राजपूत ने इंडिया टुडे को बताया कि कल्याण के लिए अब संन्यास लेने और शेष जीवन अयोध्या में बिताने का समय आ गया है.

रुझानों का पता लगाना मुश्किल
पर समाज नृविज्ञानी बद्री नारायण के मुताबिक, उपचुनाव के नतीजे किसी रुझान का संकेत नहीं होते. वे कहते हैं, ''मुलायम द्वारा कांग्रेस के वंशवाद की नकल करने, राहुल द्वारा सार्वजनिक जीवन में जवाबदेही के  मुद्दे को उठाते हुए चुनाव प्रचार करने और मायावती द्वारा दलित वोटों को एकजुट करने और कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों को साथ जोड़ने से राजनीति की रूपरेखा बदल गई.'' विश्लेषकों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस फिर से बड़ी ताकत बनकर उभर रही है, इसलिए यहां राजनैतिक परिदृश्य त्रिकोणीय रहेगा. लेकिन आगे असली जंग मायावती और मुलायम के बीच ही होगी.
 
दलित रणनीति अब भी जानदार
बसपा नेताओं का दावा है कि सपा की हार का कारण मायावती की दलित रणनीति रही है जिसके अंतर्गत उन्होंने लोकसभा चुनावों के बाद निजी संस्थाओं में उनके लिए सीटें आरक्षित कर दीं और उन्हें सरकारी ठेके दिए. उधर, मुलायम और सपा महासचिव अमर सिंह अब मायावती शासन के गलत कामों का कच्चा चिट्ठा जनता के  सामने लाने की रणनीति तैयार करने में जुट गए हैं. फिरोजाबाद और लखनऊ (पश्चिम) में चौंकाने वाली जीत के  साथ कांग्रेस और राहुल गांधी उत्तर प्रदेश को बहुकोणीय जंग के मैदान में बदलने में लगे हैं. लेकिन अभी इसमें समय लगेगा.

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