{mosimage}अरब सागर में पश्चिमी समुद्र क्षेत्र में बॉम्बे हाइ लंबे समय से भारत का सबसे समृद्घ तेल और गैस का स्त्रोत रहा है. अब यह क्षेत्र भू-जीवाश्म शास्त्रियों, जो मानते हैं कि डायनासारों के अभी तक अनसुलझे सामूहिक विनाश समेत पृथ्वी पर जीवन उत्पत्ति के रहस्य की कुंजी इसी स्थान के नीचे छिपी हुई है, के लिए दिलचस्पी की नई ऊंचाई छूने वाला बन गया है. यह सिद्घांत कोलकाता में जन्मे टैक्सास टेक विश्वविद्यालय में भू-वैज्ञानिक शंकर चटर्जी ने रखा है और उनके प्रतिपादित किए मत को व्यापक सहमति मिलती जा रही है. वे उस उल्कापिंड का शानदार नजारा पेश करते हैं जो 40 किमी चौड़ा था और 6.50 करोड़ वर्ष पूर्व उसी जगह टकराया था, जहां आज मुंबई हाइ है. यह विस्फोट सारी दुनिया में मौजूद परमाणु हथियारों के कुल जखीरे के धमाके से 10,000 गुना शक्तिशाली था. इसने ऐसी सूनामी लहरें और भयंकर ज्वालामुखी विस्फोट पैदा किए जो लगभग एक साल तक सूरज की रोशनी को ढके रहे और जिन्होंने उस समय मौजूद जीव-जंतुओं में से डायनासोर समेत आधी प्रजातियों को नष्ट कर दिया. चटर्जी का मत है कि इसके प्रभाव के कारण एवरेस्ट पर्वत जितनी ऊंचाई वाला गड्ढा पैदा हुआ जो अब पानी के नीचे है और जिसका नाम उन्होंने सृजन और विनाश के देवता के नाम पर शिवा रखा है.
टकराव के कारण ही हुआ महाविनाश
चटर्जी भरोसे के साथ कहते हैं, यह कोई सनसनी पैदा करने वाली कल्पित वैज्ञानिक कथा नहीं है बल्कि इसे हमने उस मौके पर जाकर समझ और हासिल किया है. उनका मानना है कि संभवतः इस टकराव के कारण ही सामूहिक विनाश जिसे के-टी (क्रिटेसियस-टर्शियरी) कहते हैं, हुआ. उनके ये तर्क आम तौर पर प्रचलित जलप्रलय की धारणा के विपरीत हैं. अनेक वैज्ञानिकों का मानना है कि डायनासोरों का विनाश मैक्सिको के यूकातान प्रायद्वीप के तट से दूर चिकसूलब के गह्वर के कारण हुआ. लेकिन प्रिंसटन विश्वविद्यालय, अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने हाल ही में इस मान्यता को नामंजूर कर दिया क्योंकि प्रमाणों से प्रकट है कि वहां उल्कापिंड का टकराव डायनासोरों के विनाश से 3,00,000 वर्ष पूर्व हुआ था. प्रिंसटन विश्वविद्यालय में भू जीवाश्म विज्ञान की प्रोफेसर गेरता केलर द्वारा हाल में किए गए अनुसंधान से यह तथ्य सामने आया कि के-टी बाउंडरी-एक विशेष भौगोलिक पहचान जो के-टी विनाशकाल को प्रकट करती है-से 3,00,000 वर्ष पूर्व चिकसूलब की घटना हुई थी. इस प्रकार चिकसूलब प्रभाव को डायनासोर के विनाश से नहीं जोड़ा जा सकता. उनका कहना है कि ज्वालामुखियों का विस्फोट ही डायनासोरों के विनाश का मुख्य कारण है और इस प्रकार वे चटर्जी के दावे को भी स्वीकार नहीं करतीं.
पता चला डायनासोरों के विनाश का कारण
चटर्जी जिन्होंने ओरेगॉन, पोर्टलेंड जियोलॉजीकल सोसायटी ऑफ अमेरिका की हाल में हुई वार्षिक बैठक में अपनी समग्र परिकल्पना पेश की, तर्क के साथ कहते हैं, जब दक्षिण में लावा बह रहा था, तब भी भारत में डायनासोर फल-फूल रहे थे. भारत में हमें दक्षिणी लावे के प्रवाहों के बीच तलछट वाली परत में डायनासोरों की हड्डियां और उनके अंडे सुरक्षित मिले हैं. {mospagebreak}इस प्रकार यह हो सकता है कि दक्षिण में हुए प्रदूषण संबंधी प्रभाव के कारण पर्यावरण का संकट हुआ हो लेकिन वह डायनासोरों के विनाश का मुख्य कारण नहीं हो सकता. अप्रत्यक्ष तौर पर दक्षिणी ज्वालामुखी महासागरों के तेजाबीकरण के लिए जिम्मेदार रहे हो सकते हैं जिससे समुद्री प्राणियों का भोजन नष्ट हो गया. लेकिन डायानासोरों के विनाश के लिए शिवा का प्रभाव ही सबसे निकटतम कारण प्रतीत होता है.
टकराव के बाद बना शिव गह्वर
शिवा गह्वर के अनुसंधान से वैज्ञानिकों को आशा है कि वे पृथ्वी के जीवन और इस ग्रह के इतिहास से जुड़ी अहम घटनाओं के बारे में ज्यादा जान सकेंगे. यदि यह गह्वर विनाशकारी टकराव का नतीजा था तो इससे यह बात सुलझने में मदद मिल सकती है कि के-टी हादसे में इतनी नस्लों का विनाश क्यों हुआ. और इससे भौगोलिक इतिहास से जुड़े के-टी बाउंडरी कालखंड की खनिज संरचना पर भी रोशनी पड़ सकती है.
टकराव से 70 फीसदी प्रजातियां हुई नष्ट
अपने नए प्रमाणों पर आधारित एक दशक पुराने अध्ययन में चटर्जी का कहना है, शिवा गह्वर यह दर्शाता है कि उल्कापिंड का टकराव उसी समय हुआ था जब जीवों का महाविनाश हुआ और उसने ऐसी विनाशकारी शक्ति पैदा की जिससे पृथ्वी पर भूमि और समुद्र की 70 प्रतिशत वनस्पतियां और प्राणी समुदाय नष्ट हो गया. इसके फलस्वरूप जाहिर है कि चिकसूलब एक हल्के हथौड़ेनुमा चोट से पैदा हुई गड्ढे जैसी रचना है जो बड़े टकराव से पहले की है. चटर्जी ने भू-भौतिकी से जुड़े प्रमाणों के साथ-साथ मुंबई हाइ क्षेत्र में तेल और प्राकृतिक गैस निगम द्वारा एकत्रित भू विज्ञान और भूभौतिकी से जुड़े नमूनों को अपना आधार बनाया है. इस सूचना को वे रेखागणितीय पुनर्रचना और शिवा गह्वर, जो समुद्र की गहराई में बूंद के आकार की रचना है और लगभग 600 गुना 400 किमी क्षेत्रफल की है, की आयु निर्धारित करने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण मानते हैं. लेकिन शिवा से पहले सबसे बड़ा गह्वर दक्षिण अफ्रीका में वे्रडफोर्ट का था जिसका घेरा 300 किमी है. अरब सागर में मौजूद इस महागह्वर का व्यास लगभग 500 किमी है, हालांकि वास्तविक गह्वर को तलछट ने ढक रखा है.
शिवा के प्रभाव ने पृथ्वी की पपड़ी को भाप में बदला
चटर्जी बताते हैं कि एकत्रित भौगोलिक प्रमाणों के आधार पर उन्होंने उसका नक्शा बनाने में सफलता पा ली है. ऐसी जल प्रलय की कल्पना करना काफी कठिन है. यदि उनकी मान्यता सही है तो टकराव के मौके पर बने शिवा के प्रभाव ने पृथ्वी की पपड़ी को भाप में बदल दिया और भयानक गर्म पदार्थ के अलावा पृथ्वी पर कुछ भी नहीं छोड़ा. ऐसा लगता है कि इसी के प्रभाव से भारत के पश्चिमी तट के दूसरी ओर 30 मील मोटी ग्रेनाइट की सतह का काफी कुछ हिस्सा नष्ट हो गया. हो सकता है कि इस टकराव ने ही भयानक महाद्वीप लावा प्रवाह, जैसे दक्षिणी गर्त और संबंधित ज्वालामुखीय विस्फोट जो पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से को आच्छादित करते हैं, शुरू किए हों. इसके परिणामस्वरूप बहुत थोड़े समय में भारत के पश्चिमी हिस्से में लावा की बहुत बड़ी मात्रा का प्रवाह हुआ.
हुआ ज्वालामुखी के विस्फोटों का जन्म
इतना ही नहीं, इसके प्रभाव से सेशेल्स द्वीप भारतीय भूमि से टूट गया और खिसककर अफ्रीका की ओर चला गया. चटर्जी स्पष्ट करते हैं, शिवा के प्रभाव ने भारत के पश्चिमी तट को भूगर्भीय दृष्टि से सक्रिय बना दिया. चटर्जी आगे बताते हैं, व शिवा प्रक्षेपास्त्र लगभग 25 मील तक फैला था. इस आकार का उल्कापिंड जैसे ही टकराएगा वैसे ही वह एक विशाल गह्वर बना देगा. पहाड़ भाप में बदल जाएंगे और धूल और मलबा वायुमंडल में छा जाएगा जो सूरज को ढक लेगा. {mospagebreak}लाल तपते हुए पहाड़ों की आकाश से बारिश होगी जिससे दुनियाभर में जंगलों में भयानक आग लग जाएगी और तेजाबी बारिश होगी जो समुद्र के कठोर आवरण वाले जीवों को नष्ट कर देगी और खाद्य श्रृंखला के भयंकर विनाश का कारण बन जाएगी. कुछ वैज्ञानिकों ने ऐसी कल्पना भी की है कि दक्षिणी ज्वालामुखियों से निकली जहरीली गैसें डायनासोरों के विनाश का मुख्य कारण बनीं. चटर्जी बताते हैं, ''इस दिशा में सोचने के बहुत कारण हैं कि इस प्रभाव ने ही ज्वालामुखी के विस्फोटों को जन्म दिया.''
बना पृथ्वी की एक नई सतह का ढांचा
अपने व्यापक शोध और संयोग की काल गणना करके चटर्जी ने अपनी मान्यता को उचित परिप्रेक्ष्य में रखा है. लंबे और सामूहिक विनाश से जुड़ी बहस के एक विद्वान और अमेरिकी भौगोलिक सर्वे के विलियम ग्रेन कहते हैं, ''उन्होंने अनेक वर्ष काम करके अपने इस विचार के लिए मानने लायक प्रामाणिक आधार तैयार किया है कि शिवा प्रभाव ने पृथ्वी की एक नई सतह का ढांचा तैयार किया. उसके महाप्रभाव ने चट्टानी सतह को नष्ट कर दिया, सेशेल्स को भारत से दूर कर दिया, महाद्वीपों में दक्षिणी गह्वर जैसे भयानक ज्वालामुखी प्रवाह पैदा किए, और ऐसे दूरगामी नतीजों को जन्म दिया जो अभी तक जारी महाविनाश की बहस के लिए महत्वपूर्ण हैं.
गह्वर का निर्माण टकराव का नतीजा
चटर्जी के कार्यदल को आशा है कि वे इस गह्वर के तल से निकाली गई चट्टानों की जांच करके उन नतीजों पर पहुंच पाएंगे जिससे यह साबित करना संभव होगा कि महासागर के इस गह्वर का निर्माण उस भयानक टकराव का नतीजा था. चटर्जी बताते हैं, ''गह्वर के तल से हासिल चट्टानी टुकड़े टूटी और पिघली हुई चट्टानों पर पड़े प्रभाव के लाक्षणिक चिन्ह सामने ला पाएंगे. और हम देखना चाहते हैं कि क्या नुकीली चट्टानें, खनिज और धात्वीय विसंगतियां मौजूद हैं? इरीडियम में एस्ट्रॉयड की बहुतायत रहती है और इस प्रकार की विसंगतियों को टकराव के प्रभाव की पहचान माना जाता है.'' चटर्जी की भू-जीवाश्म विज्ञान में रुचि 1976 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले जाने से पहले जादबपुर विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता में काम करने के समय से ही रही है. वे स्मिथसोनियन संस्थान से भी जुड़े रहे. उनका शिवा गह्वर अनुसंधान भारतीय सांख्यिकी संस्थान के धीरज रुद्र के साथ मिलकर किए कार्य का परिणाम है.
शिवा परिकल्पना पर सहमति की उम्मीद
पृथ्वी के गतिशील इतिहास पर चल रही बहस को यह भू-वैज्ञानिक आकलन नई खोजपूर्ण बुलंदी तक पहुंचा सकता है. चटर्जी मानते हैं, '' मेरा कार्य अब भी एक परिकल्पना है और हमें इसकी पुष्टि के लिए और अधिक आंकड़ों की जरूरत है. हमने जो कार्य किया है वह प्रगति की ओर उन्मुख कार्य है. हमें इस गह्वर के बारे में अभी भारत से और प्रमाण जुटाने होंगे क्योंकि यह डूबा हुआ है.'' किसी भी वैज्ञानिक परिकल्पना की तरह कुछ वैज्ञानिक शिवा परिकल्पना को अपनी सहमति देंगे जबकि दूसरे उसका विरोध कर सकते हैं. विज्ञान इसी प्रकार आगे बढ़ता है.