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बॉलीवुड में कमाल के बंदों का दौर

हिंदी सिनेमा में एक ऐसी बेखौफ पीढ़ी आई है, जो परंपरा, नैतिकता जैसी बातों को परे रख छाती ठोककर दिल की बात कह रही है. हालांकि कोई बड़ा विचार नहीं आ पा रहा.

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हिंदी सिनेमा
हिंदी सिनेमा

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हिंदी सिनेमा में एक ऐसी बेखौफ पीढ़ी आई है, जो परंपरा, नैतिकता जैसी बातों को परे रख छाती ठोककर दिल की बात कह रही है. हालांकि कोई बड़ा विचार नहीं आ पा रहा.

एक कमाल का दौर आया हुआ है इस वक्त हिंदी सिनेमा में. एक निहायत बेबाक पीढ़ी उभरकर आई है. परंपरा से जुड़ी किसी भी चीज को लेकर इसमें किसी तरह का डर या खौफ नहीं है और न ही कोई बोझ. हम आए थे तो चाहे-अनचाहे अतीत का, इतिहास का कुछ न कुछ बोझ ले ही लिया था. पर इस नई पीढ़ी में ऐसा बिल्कुल नहीं है. मन में जो भी बात आई, बिना किसी लाग-लपेट के, छाती ठोककर कह डाल रहे हैं. ये बंदे बड़े ही स्मार्ट हैं. मोरैलिटीज/नैतिकता के जाल-बवाल में फंसने का कोई चक्कर नहीं.

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इन लोगों को इस बात का पूरा ख्याल है कि उन्हें क्या अच्छा लगता है और दर्शक को क्या अच्छा लगेगा. गढ़ाव की इस अलग तरह की प्रक्रिया में भाषा का शायद उतना ख्याल नहीं रखा जा रहा. पर इस कोशिश में एक नई तरह की विजुअल भाषा अपने आप बन, उभर रही है.

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गीतकारों को ही लीजिए. वे एक ताजा और मॉडर्न भाषा में बात कर रहे हैं. उनके बिंब और उनकी इमेजेज नई हैं. मजे की बात है कि ज्‍यादातर नए लोग हिंदी बेल्ट से आ रहे हैं. अमिताभ भट्टाचार्य का ऐवइं ऐवइं लुट गया हो या राजशेखर का रंगरेज मेरे, उनमें कुछ नया कहने का जुनून है.

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राजशेखर में तो भाषा का भी वजन है, साथ ही नया करने की ललक साफ देखी जा सकती है. भट्टाचार्य का कैरेक्टर ढीला आइटम शैली में होने के बावजूद अलग मिजाज लिए हुए है.

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तो इन लोगों की अपनी पाठशाला है, जो कि इंटरनेट, हिंदी-अंग्रेजी भाषा और दुनिया भर के समाज को मिलाकर बनती है. दुनिया भर में कहां क्या चल रहा है, इसका उन्हें पूरा ख्याल है. इनका ग्लोबल एक्सपोजर कहीं ज्‍यादा है. इसी पाठशाला से निकलकर इन्होंने विजुअल की अपनी भाषा गढ़ी है और अब तो अच्छा-खासा नाम हासिल कर चुके हैं.
सभी विधाओं में यही हाल है. निर्देशन हो, लेखन हो, अभिनय हो या फिर गीत, संगीत. नए संगीतकारों में ज्‍यादातर के साथ मैं काम कर रहा हूं. अमित त्रिवेदी को हिंदुस्तानी संगीत के साथ-साथ वेस्टर्न की भी गहरी समझ है. उन्हें साउंड का बहुत ख्याल है और नया करने की एक निरंतर ललक है. किसी खास फिल्म की ध्वनि कैसी होनी चाहिए, इसका वे पूरा ख्याल रखते हैं. इस दिशा में शुरुआत रहमान ने की थी.

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भाषा/शब्दों को भी ध्वनि के तौर पर इस्तेमाल कर लेने की कुशलता है उनमें. दूसरी ओर स्नेहा खानविलकर एक अलग साउंड की तलाश में हैं. हमारी परंपराओं में से वे ध्वनियां खोज रही हैं. ओए लकी लकी ओए का ही संगीत लीजिए. दूरदराज के, परिधि के लोगों से किस तरह गवाया है. बसों में बैग लटकाए डोल रहे लोगों से वे गवा रही हैं. उनमें अपने आसपास का वह ढूंढ़ने की ललक है, जो कहीं खो गया है. कई लोग हैं जो मुंबई में बैठकर फोक के नाम पर कुछ का कुछ परोसते रहते हैं.

पर नए लोग दुनिया का कोना-कोना छानकर नया तलाश रहे हैं. स्नेहा ने अनुराग कश्यप की आने वाली फिल्म गैंग्स ऑव बसईपुर के लिए पूरा बिहार छान मारा. इतना ही नहीं, वहां की जमीन से गिरमिटिया मजदूरों के रूप में बाहर गए लोगों के बीच उनके लोकसंगीत से ही विकसित हुए चटनी म्युजिक की तलाश के लिए वेस्ट इंडीज के तमाम हिस्सों में गईं और वहां की बीट्स को अपने संगीत में डाला. इन नए संगीतकारों के काम में आपको रांची से लेकर अमृतसर के आसपास के गांवों तक की लोक धुनों के अलावा वहां के मेले-ठेलों की बोलियां/ध्वनियां भी सुनने को मिल जाएंगी.

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अजय-अतुल महाराष्ट्र की एक बहुत ही मजबूत संगीत परंपरा से आते हैं. वे आज के लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे हैं. उनके पास हिंदी कॉमर्शियल सिनेमा के लिहाज से ज्‍यादा माकूल ध्वनियां हैं. उनके संगीत में मेलोडी कहीं ज्‍यादा गहराई से निकलती है.

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और निर्देशकों में कितनी विविधता है. अभिनय देव निर्देशक से बड़ा एक लेखक है. हमारे यहां ऐसी फिल्में कम ही आती हैं जो पोलिटिकली करेक्ट हों और मुल्क की सियासत के अंडरटोन को भी वे ठीक से पकड़ सकें. सुभाष कपूर ने फंस गए रे ओबामा में यह काम कर दिखाया. कितना बड़ा सैटायर है यह हमारे आज के वक्त पर.

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हां, इन सबके बीच मनोरंजन का पूरा ख्याल रखा जाना चाहिए और मुझे लगता है कि ये नए लोग वह कर पा रहे हैं. इस दौर की यह कितनी बड़ी खूबी है कि कोई भी आकर अपने ढंग से अलग तरह का काम कर सकता है. पूरी आजादी है. अनुराग कश्यप ने तो अपना एक ढर्रा ही अलग बना लिया पर उन्हीं के भाई अभिनव कश्यप को देखिए.

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कॉमर्शियल सिनेमा की मुख्य धारा में ही कैसी कहानी कही. सलमान खान के होने के बावजूद दबंग में आप स्टोरी नैरेशन के एक अलग सलीके को साफ तौर पर देख-महसूस कर सकते हैं. एक जिद है वहां. सलमान (और शाहरुख) की अहमियत अपनी जगह पर है ही, वे दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचकर लाते हैं. लेकिन आपको वैसे लेखक-निर्देशक तो चाहिए ही. अभिनव कश्यप ने कॉमर्शियल सिनेमा के दायरे में रहकर भी उम्दा काम कर दिखाया.

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आज के अभिनेताओं से जब मेरी बातचीत होती है तो उनका भी यही कहना होता है कि इस वक्त काम बहुत हो रहा है. अभिनेताओं को भी उनके अपने मिजाज के काम के लिए बहुत इंतजार नहीं करना पड़ता.

और आप व्यक्तियों को ही क्यों नई आवक मानते हैं? टेक्नॉलॉजी पर जरा गौर कीजिए. इसने तो सही मायने में लोकतंत्र ला दिया है सिनेमा में. संगीत में कोई ट्रैक विदेश के किसी साजिंदे से बजवाना है, उसे मेल कर दीजिए, वह उतना हिस्सा बजाकर आपको भेज देगा.

अनुष्का है बॉलीवुड की बिंदास बाला  

एडिटिंग सॉफ्टवेयर आप एक झोले में रखकर कहीं भी ले जाएं. नए 5डी और 7डी कैमरे से आप कहीं भी शूट करें, किसी को भनक भी न लगेगी. अब तो पॉकेट साइज कैमरे भी आ गए हैं. चाय के गिलास पर लगा दीजिए और एकदम रियल पिक्चर ले लीजिए. टेक्नॉलॉजी अब फिल्म उद्योग को भी विकेंद्रित कर सकती है.

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बिहार में बैठकर आराम से फिल्म बनाइए. ऐसे में गलाकाट प्रतिस्पर्धा की स्थिति बनेगी. और बात आकर टिकेगी कंटेंट पर, कहानी पर. अच्छी कहानियों की और उन्हें लिखने के लिए अनुभवी लोगों की जरूरत पड़ेगी. इस मोर्चे पर जो अपने को पुख्ता कर लेगा, वही बाजी मारेगा.

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ऐसे में आज भी लेखकों की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है. हालांकि हाल के वर्षों में मोटे तौर पर वे अपने को फोकस में तो लाए हैं लेकिन है वह अभी तक भी निर्देशक का सहायक ही. लेखक-निर्देशक तो कई हैं पर ऐसे लेखक जयदीप साहनी जैसे इक्का-दुक्का ही हैं जो अपनी सोच से कहानी और किरदार गढ़ दें और फिर वह पूरी की पूरी स्क्रिप्ट लेकर कोई दूसरा फिल्म बनाए. मैंने भी जिन फिल्मों में बतौर लेखक काम किया, उनमें मोटे तौर पर निर्देशक की दी हुई लाइन पर ही लिखा. हॉलीवुड में ऐसा नहीं होता. हमारे यहां लेखक की, सलीम-जावेद जैसे दिनों वाली एक स्वतंत्र और बड़ी पहचान बननी बाकी है.

बॉलीवुड पर छाने को तैयार है प्राची देसाई

कुछ खतरे भी हैं इस दौर के. कोई बड़ा ख्याल, बड़ा विचार निकलकर नहीं आ पा रहा. गंभीर बात करने का या गंभीर देखने-सुनने का मन नहीं कर रहा. नए लोग फिल्मी ग्रामर को तोड़ रहे हैं पर शायद नया ग्रामर भी तभी बन सकेगा. एक अंदेशा कंटेंट के स्तर पर भी है. दुनिया-जहान घूम और देख-सुन रहे ये लोग खुद को कॉपी-पेस्ट जेनरेशन न बना लें. पर एक बड़ा रास्ता भी आखिर अंदेशों के बीच से ही तो निकलता है. लेखक बॉलीवुड में गीतकार व संवाद लेखक हैं.

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