वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पसंद थे जिन्हें भारत के करोड़ों लोगों को एक खास नंबर देना है. भारतीय कंपनी जगत के इस रॉकस्टार, नंदन नीलकेणी को यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूडीएआइ) का अध्यक्ष बनने के लिए मानो स्पीड पोस्ट से योजना भवन भेज दिया गया. यूपीए सरकार ने नीलेकणी के अपने सोच से प्रेरणा लेते हुए देश के नागरिकों के लिए विशेष पहचान नंबर की देने की बात को समझ है. नीलेकणी ने इसका जिक्र अपनी किताब इमेजिनिंग इंडियाः आइडियाज फॉर दि न्यू सैंचुरी में किया है. पिछले वर्ष नीलेकणी ने सामाजिक दायित्व पूरा करने के अपने कर्तव्य को देखते हुए इन्फोसिस में को-चैयरमैन का ऊंचा ओहदा छोड़ कर इस नई जिम्मेदारी को अपने हाथों में ले लिया था.
नीलेकणी जैसे-जैसे 'भारत की कल्पना' से निकल कर भारतीय यथार्थ के धरातल पर आ रहे हैं, आधार पहचान (यूनीक आइडेंटिफिकेशन या यूआइडी) परियोजना अपने औचित्य के लिए एक ऐसे देश में सूक्ष्म जांच के घेरे में आ रही है जो पहले से ही बहुत से पहचान-पत्रों का गढ़ है. हालांकि इस महीने यूआडी जारी करने के लिए नीलेकणी का दफ्तर तैयार है. लेकिन महज आधार नंबरों के बूते मौजूदा सरकारी तंत्र की अक्षमता के साथ कड़े मुकाबले की यूआइडी क्षमता को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं. कई सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक और यहां तक कि मणिशंकर अय्यर जैसे कांग्रेसी नेताओं को यूआइडी परियोजना के औचित्य को लेकर संदेह है.
हर नामांकित व्यक्ति को यूआइडी एक आधार नंबर देगा. इसे विभिन्न पंजीयन एजेंसियों जैसे बैंक या बीमा कंपनियों को किसी भी सरकारी संस्थान, नियामक संस्था या प्रवर्तन एजेंसी के साथ व्यवहार करते समय व्यक्ति की पहचान के लिए इस्तेमाल किया जाएगा. यूआइडी डाटाबेस में व्यक्ति के संबंध में बुनियादी जानकारियां होंगी जैसे नाम, जन्म तिथि, जन्म स्थान, लिंग, माता-पिता का नाम और उनके यूआइडी नंबर, पता, फोटो और अंगुलियों के निशान होंगे.{mospagebreak}
पैन कार्ड या मतदाता पहचान पत्र के विपरीत यूआइडी नंबर के आधार पर किसी भी प्रकार के फायदों या अधिकारों का दावा नहीं किया जा सकेगा. इससे केवल बैंक खाता खोलने या फिर महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (एमजीएनआरइजीएस या नरेगा) के तहत रोजगार जैसे किसी काम के लिए व्यक्ति की पहचान करने में मदद मिलेगी.
सरकार ने पांच वर्ष की अवधि के पहले दो चरणों के लिए 3,170 करोड़ रु. का बजट स्वीकृत किया है. सरकार नए यूआइडी नंबर को एक प्रणाली के रूप में बता रही है जिससे किसी व्यक्ति की विशिष्ट पहचान पक्की हो सकेगी. इसके जरिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसी सेवाएं प्रभावी तरीके से देने का लक्ष्य है. पीडीएस चार लाख उचित मूल्य की दुकानों का एक नेटवर्क है जिसके जरिए हर साल 16 करोड़ परिवारों की 15,000 करोड़ रु. मूल्य का अनाज और खाने-पीने की वस्तुएं वितरित की जाती हैं. यह अपनी किस्म का दुनिया का सबसे बड़ा वितरण नेटवर्क है.
अपनी पहचान को स्थापित करना अधिकांश भारतीयों के लिए एक बड़ी समस्या है. यूआइडी के बारे में यह दावा किया गया है कि इसके होने पर एक से ज्यादा पहचान-पत्र संभालने की समस्या से छुटकारा मिल जाएगा. यूआइडीएआइ के मुताबिक, ''यह एकमात्र समस्या को खत्म कर देना चाहता है, और वह है 'पहचान' की समस्या.'' एक बार किसी व्यक्ति को एक यूआइडी मिलते ही शारिरिक विशेषताओं से जुड़ी उनकी बुनियादी पहचान स्थापित हो जाएगी और इसके जरिए किसी भी व्यक्ति की अनूठी पहचान स्थापित करने में मदद मिलेगी.{mospagebreak}
लेकिन कई लोग यह मानते हैं कि यह योजना सामाजिक वास्तविकताओं से एक कदम पीछे है जो कई किस्म के पहचान पत्र होने के बावजूद जरूरतमंदों को सामाजिक योजनाओं के लाभ से वंचित रखती है. ऐसे में नंबर आधारित एक कार्ड का और आना कितना ज्यादा मायने रखता है. नीलेकणी कहते हैं, ''आधार नंबर अन्य सभी कार्डों को खत्म नहीं करेगा. कुछ समय बाद यह सभी कार्डों को आपस में जोड़ने वाला नंबर होगा. यह नंबर किसी व्यक्ति की पहचान का ऑनलाइन सत्यापन कर सकेगा और साथ ही यह पहचान का एक सबूत होगा, खास तौर पर समाज के उन तबकों के लिए जिनके लिए फिलहाल ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है.''
पीडीएस में बार-बार सामने आने वाली समस्या यह नहीं है कि गरीबी की रेखा से ऊपर के परिवार इसका लाभ ले लेते हैं. समस्या यह है कि गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) ऐसे बहुत से परिवार हैं जो इस योजना के दायरे से बाहर हैं. 2005 में योजना आयोग की ओर से किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि सरकारी सब्सिडी प्राप्त करीब 58 फीसदी अनाज बीपीएल परिवारों तक पहुंच ही नहीं पाता.
यूआइडी किसी भी रूप में किसी भी लाभ की गारंटी नहीं देता और नया कानून किसी आवेदक के पास यूआइडी होने पर भी विभिन्न सेवा प्रदाताओं को कोई अन्य दस्तावेज मांगने से नहीं रोकता. ऐसे में बिहार से आए किसी प्रवासी मजदूर को दिल्ली में राशन कार्ड मिलने की कोई गारंटी नहीं है. ऐसी स्थिति में आधार नंबर की वजह से नई समस्याएं उत्पन्न होने का खतरा है.{mospagebreak}
नीलेकणी इस बात से सहमत हैं कि ऐसे किसी भी तरह के हितों के लिए पात्रता का निर्धारण राज्य सरकार की जिम्मेदारी है. लेकिन उन्होंने इस बात को जोर देकर कहा है कि आधार नंबर से प्रक्रिया आसान होगी. अन्य लोग यह तर्क देते हैं कि बड़ी समस्याओं के समाधान के लिए यह एक गलत समाधान है.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई के एसोसिएट प्रोफेसर आर. रामकुमार का कहना है, ''हमारे सामाजिक निवेश में मसला एक जैसे कार्डों की ज्यादा प्रतियां होने का नहीं है. दरअसल दिक्कत है बड़ी संख्या में लोगों के योजना के दायरे में नहीं आने की. कार्डों का डुप्लिकेशन दूर करने करना समस्या का एक बहुत छोटा भाग है. इस पर पैसा खर्च करने की बजाए सरकार ज्यादा जरूरतमंदों को शामिल करने के लिए योजनाएं लागू करे.''
जब योजना आयोग ने इस स्कीम के बारे में पहली बार निर्णय लिया तब यह लोगों को कोई नंबर जारी करने के बजाए स्मार्ट कार्ड जारी करने के बारे में थी, जो एक बहुमंजिला इमारत की तर्ज पर थी जिसकी हरेक मंजिल पर एक योजना को एक मंजिल पर जगह दी जानी थी. अब कार्ड का विचार छोड़ कर यूआडीएआइ का कार्यक्षेत्र यूआइडी जारी करने तक सीमित हो गया है. अगर आप नरेगा के तहत रोजगार चाहते हैं तो अधिकारी आपका नंबर एक केंद्रीयकृत कार्यालय को भेजेंगे और इसके साथ ही इसमें 'हां' या 'नहीं' का एक संदेश होगा. इससे यह सत्यापन हो सकेगा कि आप ही वह व्यक्ति हैं जो रोजगार के लिए दावा पेश कर रहे हैं या वह कोई और है.
सामाजिक कार्यकर्ता वंदना शिवा के मुताबिक, 'यूआइडी से पीडीएस की कमियां दूर नहीं होंगी. एक इलेक्ट्रॉनिक पहचान के जरिए इस योजना की उन कमियों को दूर नहीं किया जा सकेगा जिनके कारण लोग इसके दायरे से बाहर हैं और उन्हें अनाज नहीं मिल रहा.'' यूआइडी के जरिए पीडीएस और नरेगा में व्याप्त भष्टाचार के दो प्रमुख स्त्रोतों पर रोक लगाना भी संभव नहीं है. पहला, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अनाज और दालों का राशन की दुकान से निकल कर खुले बाजार में आकर बिकना. दूसरा, राशन की दुकानों के विक्रेता गरीबों को आधा राशन ही देते हैं और आधिकारिक दस्तावेजों में पूरा कोटा देने का रिकॉर्ड दर्ज करते हैं.{mospagebreak}
वर्ष 2008 से नरेगा में बैंकों और पोस्ट ऑफिस के जरिए दिहाड़ी दी जा रही है. 83 फीसदी नरेगा श्रमिकों के इनमें खाते हैं जिससे भ्रष्टाचार की गुंजाइश काफी कम हो जाती है. कुछ मामलों में कामगारों पर रंगदारी वसूलने वाले बिचौलियों की गुंडागर्दी का सामना करना पड़ता है. अन्य मामलों में बिचौलिए मजदूरी की दर बढ़ा कर उसमें से अपना हिस्सा मांगते हैं. यूआइडी नंबर से ऐसी किन्हीं भी समस्याओं से निबटना संभव नहीं है. जबकि दावा यह किया जा रहा है कि इससे भ्रष्टाचार का खात्मा होगा.
600 से ज्यादा सरकारी विभाग और राज्य सरकारें, जो कार्डों पर अपना दबदबा पसंद करेंगी, को काबू करने के बारे में बोलना आसान है और करना कठिन. इन सबकी अड़ंगेबाजी, खास तौर पर ऐसी स्थिति में जबकि यूडीएआइ इन्हें पंजीयक के रूप में इस्तेमाल करने की बात कर रही है जो नाम दर्ज करने का काम करेंगे, परियोजना के लिए महंगे साबित हो सकते हैं.
अय्यर चेतावनी भरे लहजे में कहते हैं कि यूआइडीएआइ का हश्र भी कहीं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पंचायती राज संबंधी उठाए गए कदमों जैसा न हो. पंचायत स्तर पर सत्ता हस्तांतरण के लिए राज्य सरकारों की ओर से मनाही के कारण यह कोशिश बेहार हो गई थी. अय्यर का कहना है, ''यूआइडी में नाम के स्थान पर एक नंबर है.
नीलेकणी के प्राधिकरण को यह शक्ति नहीं दी गई है कि वह केंद्र सरकार के प्रत्येक मंत्रालय, एजेंसी या राज्य सरकारों में यूआइडी का इस्तेमाल लागू कर सके. मुझे इस बात का भय है कि हमारे प्रधानंत्री की यूआइडी पहल एक पूर्व प्रधानमंत्री की पंचायत सबंधी पहल की तर्ज पर अटक न जाए.'' उनका तर्क यह है कि आधुनिक प्रौद्योगिकी सामाजिक सुरह्ना योजनाओं से मिलने वाले फायदों में काफी हद तक बढ़ोतरी कर सकती है बशर्ते इसमें देश की तीन लाख पंचायतों को गोद लिया जाए. {mospagebreak}
तकनीकी दिक्कतों के अलावा (देखें बॉक्सः तकनीकी परेशानियां) ऐसे प्रोजेक्ट में भारी-भरकम लागत शुमार होती है और इनका आकलन मिलने वाले सीमित फायदों के आधार पर किया जाना चाहिए. रामकुमार का कहना है, ''इतने बड़े पैमाने पर खर्च के वादे के बावजूद प्रौद्योकीय विकल्पों और आखिर में योजना की व्यावहारिकता पर संदेह बरकरार रहता है. इसमें आइडी कार्ड्स के लिए जरूरी नेटवर्क आधारित सिस्टम्स के रखरखाव की लागत शामिल की जानी चाहिए ताकि यह अच्छी तरह काम कर सके.''
लेकिन नीलेकणी इन तर्कों का जवाब देते हुए बताते हैं कि इस योजना के लाभ इसकी लागत की तुलना में कहीं ज्यादा होंगे. उनका कहना है, 'लोगों को सेवा देने के मामले में यूआइडी नंबर में इसका स्वरूप बदलने की पूरी गुंजाइश है. इससे व्यवस्था में मौजूद दोहराव को खत्म करने की प्रणाली होगी और यह साथ ही बेहतर सेवाएं देने के लिए एक प्रभावी प्लेटफॉर्म होगा.''
यूडीएआइ का कहना है कि इस नंबर के लिए नामांकन का नागरिकों पर कोई दबाव नहीं होगा. इनका पंजीयन करने वाले पंजीयक सरकारी या निजी क्षेत्र के हो सकते हैं और इस बात पर जोर दे सकते हैं कि वे उन्हीं लोगों को अपनी सेवाएं देंगे जिनका उन्होंने नामांकन किया है. बंगलुरू स्थित एक अनुसंधान संस्थान सेंटर फॉर इंटरनेट सोसाइटी के निदेशक सुनील अब्राहम का कहना है, ''नंबर का पूरी तरह स्वैच्छिक होना निश्चित करने के लिए प्रस्तावित कानून में उल्लेख होना चाहिए. विधेयक के अंतर्गत यूआइडी नंबर नहीं होने पर किसी सामान, सेवाओं, हकदारी या हित (निजी या सार्वजनिक) की मनाही को अपराध माना जाना चाहिए.''{mospagebreak}
लेकिन इससे भी बड़ी चिंता यह है कि परियोजना व्यक्तिगत जानकारी की निजता, गोपनीयता और सुरह्ना के प्रतिमान को पूरी तरह बदल सकती है. अब तक सरकार ऐसी जानकारियों को अलग-अलग हिस्सों में अपने दफ्तरों की फाइलों में बंद करके रख देती थी. आम तौर पर नागरिक अपने बारे में संबंधित जानकारियां किसी खास मकसद से किसी निजी या सरकारी एजेंसी को मांगे जाने पर ही देते थे ताकि वह एजेंसी अपना काम कर सके.. हो सकता है, किसी टेलीफोन कंपनी को आपके स्वास्थ्य के बारे में जानकारियां न हों और आपके अस्पताल को आपकी आमदनी से संबंधित जानकारियों की जरूरत न हो.
आलोचकों का तर्क यह है कि लोगों के बारे में जानकारियों का निजी क्षेत्र किसी न किसी रूप में दुरुपयोग करेगा. हमारे यहां ऐसा माहौल है कि सामाजिक सेवाओं को प्रदान करने में निजी क्षेत्र को भागीदारी के प्रति प्रोत्साहन मिलता है.
दिल्ली स्थित कानून अनुसंधानर्ता उषा रामनाथन का कहना है, ''यही वह स्थिति है जिसमें थोड़ी-बहुत प्राइवेसी संभव है. हम एक एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां हम कई जगई, अलग-अलग तरीके से अपने बारे में जानकारियां देते हैं. जिस आसानी से प्रौद्योगिकी ने निजता की धारणा को कम किया है, उसे रोकना चाहिए, न कि उसको बढ़ावा देना चाहिए. लेकिन इसके विपरीत यूआइडी सरकार के पास हमारे बारे में मौजूद सूचनाओं के विशाल संग्रहों को जोड़ने वाले पुल का काम करेगा और उस व्यक्ति के हाथों में से इसका नियंत्रण ले लेगा. इसके बाद हम खुद यह निर्धारण करेंगे कि हमें किसे, कितनी जानकारी देनी है.'' इस बात में बहुत बड़ा फर्क है कि नागरिक किसी सरकार द्वारा दी गई जानकारियों पर नजर रखते हैं और सरकार या बाजार लोगों पर नजर रखता है.
रामनाथन का कहना है, ''यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि यूआइडी वह नहीं है जैसा कि पेश किया जा रहा है. यह दयालु या कृपालु नहीं है, महज एक नंबर नहीं है जिसके जरिए उन लोगों को पहचान मिल सकेगी जिन्हें अब तक सरकार ने पहचाना नहीं था.''
अर्थशास्त्री ज्यां द्रें ने एक अन्य चिंता से अवगत कराया है. उनका मानना है कि, ''यह योजना एक ऐसे दौर में पेश की गई है जब सरकार की निरंकुशता बढ़ने का समय है और इसके जरिए सरकार के पास असीमित नियंत्रण के द्वार खुलने जैसे हालात बन गए हैं. सामाजिक नीति के लिए यूआइडी योजना के सीधे-सादे इस्तेमाल की संभावनाएं इस बुनियादी खतरे को किसी भी रूप में कोई खास नुक्सान नहीं पहुंचातीं.''
नीलेकणी का कहना है कि विधेयक का मसौदा आंकड़ों की सुरह्ना के संबंध में विभिन्न चिंताओं का पूरी तरह ध्यान रखने और गोपनीयता का भी ध्यान रखने की बात कहता है. इस मसौदे में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि ऐसे मसलों पर पूरी तरह ध्यान देते हुए डाटा संबंधी नीति पर ध्यान देते हुए एक बेहतर और बड़े नीतिगत ढांचे की दरकार है.{mospagebreak}
दरअसल, यूआइडी को लोगों की गिनती करने का नीलेकणी के कौशल के रूप में नहीं देखा जाना चाहए. यह तो डुप्लिकेशन संबंधी एक गौण प्रश्न पर विचार करने के बारे में है. तमिलनाडु की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में मात्र 2 फीसदी डुप्लिकेशन है जबकि छत्तीसगढ़ ने अपने यहां राशन कार्डों पर होलोग्राम लगा कर 8 फीसदी डुप्लिकेशन को दूर कर दिया जबकि जरूरत इस बात की थी कि ज्यादा से ज्यादा गरीबों को पीडीएस के दायरे में लाया जाता.
यूआइडी प्रोजेक्ट के अंतर्गत सरकार और बाजार के मद्देनजर परिचय, खोज और निगरानी संबंधी बड़े-बड़े मुद्दे ऐसे हैं जो विचारणीय हैं. लोगों की जानकारी पर आधारित आंकड़ों की चोरी होने का भी गंभीर खतरा है. हो सकता है, सरकार ने नीलेकणी की प्रतिष्ठा और देश के सामाजिक क्षेत्र के लिए यूआइडी के फायदों का खूबसूरत आवरण चढ़ा कर इस योजना संबंधी विचार पेश कर दिया है. लेकिन आंकड़ों का यह खेल जब तक ऐसे मुकाम पर पहुंच जाए जहां से लौटना मुश्किल है, देश को चाहिए कि वह यूआइडी परियोजना की आलोचनात्मक नजरिए के साथ भली-भांति पड़ताल जरूर कर ले.