करीब आठ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की थी कि ''अदालतें विवाद पर फैसला दे सकती हैं लेकिन समस्या का समाधान नहीं कर सकतीं.'' पिछले सप्ताह इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ पीठ न तो विवाद पर फैसला सुना सकी, न ही समस्या का समाधान कर सकी. ऐसे में उकताए लोगों ने एक-दूसरे से पूछना शुरू कर दिया, ''कब खत्म होगी यह दास्तान?''
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने विवादित स्थल के मालिकाना हक को लेकर 1949 के मामले में हाइकोर्ट की लखनऊ पीठ के फैसले से बमुश्किल 24 घंटे पहले यह कह दिया कि समझैते को आखिरी मौका देने में क्या हर्ज है? बुनियादी हकीकतों और अतीत के अनुभवों के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट के पास इस फैसले की ठोस वजह हो सकती है लेकिन फैसले को अचानक रोकने से बड़ा राजनैतिक और सामाजिक झटका लगा.
विश्व हिंदू परिषद के कड़े रुख के कारण मेल-मिलाप की कोशिशें परवान चढ़ती नहीं दिखती हैं. शुक्रवार को संत उच्चाधिकार समिति की बैठक में प्रस्ताव पारित किया है कि ''सोमनाथ की तर्ज पर संसद में एक विधेयक लाकर विवादास्पद जमीन सहित समूची 77 एकड़ अधिगृहित भूमि राम मंदिर निर्माण के लिए हिंदुओं को सौंपी जाए.'' साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि इस जमीन पर किसी भी तरह का विभाजन और किसी अन्य मजहब के उपासना स्थल की इजाजत नहीं दी जाएगी. इस प्रस्ताव में अदालती कार्यवाही का कोई जिक्र नहीं है. {mospagebreak}
बैठक के बाद अशोक सिंघल ने ऐलान किया, ''हम वार्ता नहीं चाहते. हम फैसला चाहते हैं. हाइकोर्ट को फैसला सुनाना चाहिए. चाहे जो हो इसमें.'' लेकिन आगे उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ''अगर फैसला हमारे खिलाफ आया तो विरोध होगा, जमकर विरोध होगा.'' सवाल यह है कि वे एक जन आंदोलन के लिए किस हद तक आम जनता का समर्थन जुटा पाते हैं. जनसमर्थन जुटाने के लिए विहिप ने 64 पृष्ठ की एक पुस्तिका तैयार की है. 'श्रीराम जन्मभूमि-तथ्य और सत्य' नामक यह पुस्तिका घर-घर ले जाने की तैयारी है.
सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता जफरयाब जिलानी ने कहा, ''अगर हम इंसाफ के लिए साठ साल इंतजार कर सकते हैं, तो सात दिन और सही.'' दूसरी ओर, आरएसएस के प्रवक्ता राम माधव ने कहा, ''अच्छा होता कि निर्णय आ जाता. लेकिन यह (स्थगन) आश्चर्यजनक है. प्रतीक्षा करना पड़ेगा क्योंकि यह निर्णय अंतिम नहीं होगा.'' इलाहाबाद हाइकोर्ट के अधिवक्ता अशोक मेहता, जो हाइकोर्ट मध्यस्थता केंद्र के महासचिव भी हैं, का कहना है, ''विडंबना यही है कि बातचीत से सुलटाने की बात अब उठी है जबकि हाइकोर्ट की पीठ फैसला देने को तैयार बैठी है.
इसे टालना हर सरकार चाहती है, सुलटाना कोई नहीं चाहती.'' लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दोनों न्यायाधीशों की राय एक नहीं थी. न्यायमूर्ति आर.वी. रवींद्रन की राय थी कि रमेश चंद्र त्रिपाठी की विशेष अनुमति याचिका खारिज कर देनी चाहिए जबकि न्यायमूर्ति एच.एल. गोखले का मानना था कि समझैते की संभावना तलाशने के लिए नोटिस देना चाहिए. लेकिन पीठ के प्रमुख न्यायमूर्ति रवींद्रन ने न्यायमूर्ति गोखले की राय मान ली. इस फैसले में न्यायमूर्ति रवींद्रन ने कहा, ''जब न्यायाधीशों के बीच मतभेद हो तो परंपरा यही है कि नोटिस जारी कर दिया जाए.'' {mospagebreak}
राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में प्रतिवादी नंबर-17 रमेश चंद्र त्रिपाठी ने इससे पहले इलाहाबाद हाइकोर्ट में 24 सितंबर को आने वाले फैसले को टालने की अर्जी दी थी मगर उनकी अर्जी खारिज कर दी गई. इसके बाद त्रिपाठी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. हाइकोर्ट ने उनकी अर्जी न केवल खारिज कर दी क्योंकि उसमें बहुत विलंब हो चुका है बल्कि ''छल भरे प्रयासों'' के लिए उन पर 50,000 रु. का जुर्माना भी ठोक दिया. उनकी दलील थी कि फैसले से सांप्रदायिक दंगे हो सकते हैं. उनके वकील सुनील जैन दूसरी वजहों में आगामी राष्ट्रमंडल खेलों, राज्यों में चुनाव, कश्मीर और नक्सल समस्याओं को गिनाया था.
फिर कहानी में मोड़ आया. तीन न्यायाधीशों की पीठ के एक सदस्य न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने त्रिपाठी की अर्जी खारिज किए जाने पर असहमति जताते हुए कहा, ''मेरा मानना है कि अगर कोई समझैता हो सकता है तो समझैता कर लें और 23 सितंबर तक, यानी फैसला सुनाए जाने से एक दिन पहले सुलहनामा दाखिल कर दें.'' वे इसलिए भी नाखुश थे क्योंकि दो अन्य न्यायाधीशों-न्यायमूर्ति एस.यू. खान और न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल- ने आदेश जारी करते समय उनसे मशविरा नहीं किया था. वे जुर्माने की राशि से सहमत नहीं थे. इसी पेचोखम के बीच त्रिपाठी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. {mospagebreak}
अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मामला ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है जहां से उसके सांप-सीढ़ी के खेल में उलझने की संभावना है. हाइकोर्ट की तीन जजों की पीठ में से धर्मवीर शर्मा आगामी 1 अक्तूबर को रिटायर हो जाएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने अगर 28 के बाद भी इसे 1 तारीख के बाद तक खिसका दिया तो शर्मा की भूमिका खत्म हो जाएगी. दीवानी प्रक्रिया संहिता के नियम-2, ऑर्डर 20 के तहत शर्मा रिटायर होने से पहले अपना फैसला लिखवाकर उस पर दस्तखत कर देते हैं तो उनकी जगह आने वाले जज उस फैसले को पढ़ सकते हैं. लेकिन शर्मा बिना फैसला लिखवाए रिटायर हो जाते हैं तो उनकी जगह आने वाले नए न्यायाधीश को यह मामला निबटाने में वक्त लग सकता है.
न्यायाधीश शर्मा को सेवा विस्तार भी दिया जा सकता है. ऐसा पहले भी हो चुका है. सुप्रीम कोर्ट की जिस पीठ ने भोपाल गैस हादसे के अदालत से बाहर समझैते को लेकर फरवरी, 1989 में फैसला सुनाया था उसके एक सदस्य जस्टिस एन.डी. ओझ को सिर्फ इसी नाते सेवा विस्तार दिया गया था कि वे उस मामले की सुनवाई कर रहे थे और उनके रिटायर होने के बाद फैसले में देरी हो सकती थी. {mospagebreak}
जिलानी का मानना है कि कांग्रेस, संघ परिवार और राज्य प्रशासन अपनी-अपनी वजहों से फैसला सुनाए जाने के खिलाफ थे. कांग्रेस को आशंका थी कि किसी भी तरह के विपरीत फैसले की घड़ी में एक बार फिर उसे मुसलमानों का गुस्सा झेलना होगा, संघ परिवार को लग रहा था कि फैसला उसके खिलाफ गया तो उसके अधिकतर कार्यकर्ता हतोत्साहित हो जाएंगे और राज्य प्रशासन को आशंका थी कि इस फैसले से कानून-व्यवस्था की गंभीर समस्या पैदा हो जाएगी, जिससे 'लौह महिला' के रूप में मायावती की छवि बिगड़ सकती है. फैसला टालने से सभी पक्षों ने राहत की सांस ली.
दरअसल, हाइकोर्ट ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले पर अपना फैसला सुनाने की तारीख तय की तब तक इसकी भावनात्मक अपील खत्म हो चुकी थी. 1999 के बाद से भाजपा को इस मुद्दे पर चुनाव में फायदा कम होता जा रहा है. यहां तक कि राम मंदिर निर्माण के चुनावी अभियान भी खास प्रभावी नहीं हैं. अब भाजपा असमंजस में है क्योंकि उसे एहसास हो रहा है कि मंदिर मुद्दा वोट बटोरने का माध्यम नहीं है. {mospagebreak}
एक ओर जहां भाजपा असमंजस में है तो कांग्रेस को लगता है कि उसके सामने सबसे बढ़िया विकल्प हकीकत से मुंह मोड़ लेना है. कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा, ''लोग आरएसएस, विहिप, भाजपा द्वारा इस संवेदनशील मुद्दे को राजनैतिक रंग देने से तंग आ चुके हैं. उन्होंने यह भाजपा के जरिए होते देखा है. इसके अलावा, 2010 के हालात 1992 से अलग हैं.'' रामचंद्र गुहा जैसे बुद्धिजीवियों की यह भी राय है कि बदलते वक्त में भावनात्मक मुद्दे की कोई गुंजाइश नहीं है. ''अंग्रेजीभाषी मध्यवर्ग आगे निकल गया है. भव्य मंदिर का संकेतवाद मर्यादित जीवन की जगह नहीं ले सकता.'' प्रमुख इतिहासकार पैट्रिक फ्रेंच ने कहा, ''मतदाताओं की ऐसी पीढ़ी तैयार हो गई है जिसे अयोध्या संकट की याद तक नहीं है.''
नब्बे के दशक में अयोध्या संघर्ष में दहाड़ने वाले मुस्लिम नेता युवाओं के बदलते सोच के मद्देनजर खामोश हो गए हैं. पूर्व राजनयिक और बाबरी मस्जिद मूवमेंट कोऑर्डिनेशन कमेटी (बीएमएमसीसी) के प्रमुख सैयद शहाबुद्दीन ने कहा, ''समुदाय की मांग बदलकर अब शिक्षा, आसान बैंक ऋण और संसद में प्रतिनिधित्व हो गई है. यह नई सोच है.'' {mospagebreak}
अब हर कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी नेता स्वीकार करता है कि राजनीति से इस मामले का नुक्सान हुआ. हिंदुत्व ब्रिगेड का नेतृत्व करने वाली विहिप ने पिछले सप्ताह अपने 25 लाख त्रिशूलधारी कार्यकर्ताओं से कहा कि लखनऊ पीठ के फैसले पर कोई प्रतिक्रिया न दिखाए. ''हमें यह निश्चित करना होगा कि जनभावनाएं हिंदू संगठनों के विरुद्ध न हो जाएं... इस मुद्दे पर कोई सख्त रवैया नहीं अपनाया जाएगा.'' फैसला टाले जाने के ऐन पहले जिलानी ने भी कहा कि किसी भी पक्ष की ओर से गुस्से भरी प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए क्योंकि ''(हाइकोर्ट के) फैसले पर सुप्रीम कोर्ट में अपील हो सकती है और मुसलमान उसी (सुप्रीम कोर्ट के) फैसले को मानेंगे जो अंतिम होगा.''
सदा लड़ने को तैयार बजरंग दल के संस्थापक विनय कटियार ने भी तेवर नरम कर दिया है. उनका कहना है कि इस समस्या का समाधान समझैते या कानून के जरिए ही निकल सकता है. कल्याण सिंह, जिनके मुख्यमंत्रित्व काल में मस्जिद गिराई गई, ने एक बार फिर नया अवतार लेने का प्रयास किया. वे अयोध्या गए लेकिन कुछ हलचल नहीं मचा सके. हकीकत यह है कि राम जन्मभूमि आंदोलन को दिशानिर्देश देने वाले कई वरिष्ठ नेता फैसले के दिन अयोध्या में नहीं रहने वाले थे.
संघ परिवार ने भी फैसले से पहले अयोध्या को गरमाने की पहल न करने का फैसला किया. अपने खोए जनाधार को हासिल करने के लिए बेचैन भाजपा को भी अयोध्या मामले से अलग ही रहने को कहा गया. इस बार फिर विहिप के पास कोई जनजागरण अभियान नहीं है. वह सिर्फ देश भर के मंदिरों में अनवरत हनुमान चालीसा का जाप करवा रही है. {mospagebreak}
तेजतर्रार नेताओं के बुढ़ाने और युवा पीढ़ी की इतनी दिलचस्पी न होने की वजह से मुसलमानों का भी मन बदल गया है. बदलते हालात के साथ ही बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी (बीएमएसी), बाबरी मस्जिद मूवमेंट कोऑर्डिनेशन कमेटी (बीएमएमसीसी), ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआइएमपीएलबी) या जमात-ए-इस्लामी हिंदी इस बार कोई भड़काऊ लफ्फाजी नहीं कर रही है. इस बार ''इस्लाम खतरे में'' भी नहीं बताया जा रहा है. इसकी जगह, एआइएमपीएलबी ने मुस्लिम समुदाय से धैर्य बनाए रखने की अपील करते हुए यह भी सलाह दी कि जीत की घड़ी में जश्न न मनाएं या हार में गुस्सा न जाहिर करें.
विहिप प्रवक्ता शर्मा ने इंडिया टुडे को बताया कि केवल भाजपा ने ही नहीं बल्कि हर पार्टी ने इस आंदोलन से राजनैतिक लाभ उठाने का प्रयास किया. जब यह आंदोलन अपने चरम पर था तब भाजपा ने हिंदू मतदाताओं को रिझने का प्रयास किया. लिहाजा, तत्कालीन भाजपा प्रमुख आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक 10,000 किमी तक राम रथयात्रा निकाली जबकि तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को लगा कि मुसलमानों का प्रवक्ता बनने का यही मौका है लिहाजा उन्होंने ''परिंदा पर नहीं मारेगा'' जैसा भड़काऊ बयान दे दिया. वे ''मौलवी मुलायम'' बन गए. और हिंदू वोट बटोरने की फिराक में कांग्रेस ने अयोध्या में शिलापूजन की अनुमति दे दी. बाद में राम रथ के नायक आडवाणी ने लिब्रहान आयोग के समक्ष स्वीकार किया कि वे ''किसी धार्मिक भावना के नहीं बल्कि राजनैतिक कारणों'' से आंदोलन में शामिल हुए थे. {mospagebreak}
इस मामले को सुलझने के लिए 1949 से अदालती जंग के अलावा राजनैतिक स्तर पर भी प्रयास किए जा रहे हैं. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 20 नवंबर, 2008 को लिब्रहान आयोग के समक्ष गवाही में कहा था कि 1989 में उनके प्रधानमंत्रित्व काल में सुलह की पहल की गई थी. विहिप के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंघल ने शांतिपूर्वक समाधान निकालने के उनके प्रयास का विरोध किया. सिंघल ने कहा था कि कांग्रेस ने शिलान्यास की अनुमति देकर उनके संगठन को बेहतर अवसर दिया था. विश्वनाथ प्रताप सिंह के मुताबिक, ''किसी तरह से इस समझैते की खबर कांग्रेस को लग गई और उसने शिलान्यास का प्रस्ताव दे डाला.'' दूसरी ओर, जिलानी ने बताया कि मुस्लिम नेताओं ने विश्वनाथ प्रताप सिंह की बनाई समिति के साथ सहयोग नहीं किया. वजहः उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद उनकी ऐतिहासिक विरासत है और ''हम उसे सौंप नहीं सकते.''
लेकिन 1993 में अयोध्या आंदोलन पर जारी भाजपा के श्वेत पत्र में एक दिलचस्प अंतःकथा थीः ''इस अवरोध को दूर करने के लिए मुंबई के एक्सप्रेस टावर्स में एक महत्वपूर्ण बैठक आयोजित की गई. उसमें भाग लेने वालों में इंडियन एक्सप्रेस के मालिक आर.एन. गोयनका, आरएसएस के भाऊराव देवरस और प्रो. राजेंद्र सिंह, नानाजी देशमुख, पत्रकार प्रभाष जोशी, और एस. गुरुमूर्ति, जो दिवंगत गोयनका के निकट सलाहकार थे, शामिल थे. उसी बैठक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहाः ''अरे भाई, मस्जिद है कहां? यह तो अभी मंदिर है. पूजा चल रही है. यह इतना जीर्णशीर्ण है कि अगर आप एक धक्का दोगे तो टूट जाएगा. इसे किसी को गिराने की जरूरत क्यों है?'' {mospagebreak}
लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की समझैता समिति को मुसलमानों ने गंभीरतापूर्वक लिया. आर.एस. शर्मा, डी.एन. झ, सूरज भान और प्रो. अतहर जैसे कई इतिहासकारों को उसमें शामिल किया गया. जिलानी ने कहा, ''इन इतिहासकारों से बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी को लाभ हुआ क्योंकि पहली बार कई ऐतिहासिक तथ्यों का पता चला.'' लेकिन चंद्रशेखर सरकार को समर्थन दे रही कांग्रेस चौकन्नी हो गई और उसने संदिग्ध आधार पर सरकार को गिरा दिया.
इसी वजह से लोग कहते हैं कि अयोध्या विवाद के हर चरण में कांग्रेस का हाथ रहा है- कांग्रेस के कार्यकाल में मस्जिद के भीतर प्रतिमा रखी गई, कांग्रेस के समय में ही मस्जिद बंद की गई, कांग्रेस के कार्यकाल में ही दरवाजा खोला गया, कांग्रेस के (राजीव गांधी के) वरदहस्त से शिलान्यास किया गया और देश में जब कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तब मस्जिद ढहा दी गई. अदालत और उसके बाहर लंबे समय से लड़ाई जारी रहने के बावजूद यह विवाद सांप-सीढ़ी के खेल में उलझ गया है.
- फरजंद अहमद, सुभाष मिश्र और श्यामलाल यादव (दिल्ली). साथ में ममता त्रिपाठी