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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 41 साल बाद रद्द की आजीवन कारावास की सजा, जानें पूरा मामला

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बदायूं की एक अदालत का 41 साल पुराना फैसला रद्द कर दिया है, जिसमें हत्या के आरोपी को दोषी साबित करते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी. हाई कोर्ट ने गवाहों के बयानों में विरोधाभास का हवाला देते हुए यह फैसला सुनाया है.

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इलाहाबाद HC ने रद्द किया 41 साल पुराना फैसला
इलाहाबाद HC ने रद्द किया 41 साल पुराना फैसला

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक पूर्व सैनिक को हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाए जाने के 41 साल बाद स्थानीय अदालत के फैसले को रद्द कर दिया है. जस्टिस सिद्धार्थ वर्मा और जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की बेंच ने दोषी साबित किए गए मुरारी लाल की याचिका पर गवाहों के बयानों में विरोधाभास का हवाला देते हुए अपना फैसला सुनाया है. मुरारी लाल फिलहाल जमानत पर बाहर हैं.  

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न्यूज एजेंसी के मुताबिक, 6 जुलाई 1982 को जो एफआईआर दर्ज की गई थी, उसमें सियोदान सिंह ने आरोप लगाया था कि मुरारी लाल ने अपने भाई पूल सिंह पर अपनी लाइसेंसी बंदूक से गोली चलाई थी, जब पूल सिंह अपने गांव से वजीरगंज जा रहा था. इस मामले में 3 मई, 1983 को बदायूं की एक सेशंस कोर्ट ने मुरारी को आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या का दोषी ठहराया था और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.  

गवाहों के बयानों में था विरोधाभास: HC

हाई कोर्ट ने पिछले महीने अपने आदेश में कहा था कि अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों में भी विरोधाभास बहुत स्पष्ट था. जहां पहले गवाह ने कहा था कि शव को घटनास्थल से पुलिस स्टेशन ले जाया गया था, जबकि चौथे गवाह ने कहा पुलिस स्टेशन में शव कभी नहीं लाया गया था. 

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दूसरा गवाह ही एकमात्र चश्मदीद, बयानों की नहीं हुई पुष्टि: HC 

कोर्ट ने कहा, "न्यायालय का विचार है कि जब अभियोजन पक्ष का गवाह 2 एकमात्र चश्मदीद गवाह था और उसके बयानों की पुष्टि अन्य गवाहों द्वारा नहीं की गई थी तो एकमात्र चश्मदीद गवाह के साक्ष्य की ठीक से सावधानी के साथ जांच की जानी चाहिए, जो वर्तमान मामले में नहीं किया गया है." उच्च न्यायालय ने 14 अगस्त के अपने फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों में विरोधाभास बहुत स्पष्ट है.

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