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अखिलेश के 'मिशन कांशीराम' की काट...बीजेपी के सबसे कमजोर दुर्ग में सबसे बड़ा दलित कार्ड चलेंगे शाह

अमित शाह उत्तर प्रदेश के कौशांबी में दलित सम्मेलन को संबोधित करने जा रहे हैं. दलित राजनीति का कौशांबी केंद्र माना जाता है, जहां 2022 में बीजेपी अपना खाता भी नहीं खोल सकी थी. इस तरह शाह बीजेपी के सबसे कमजोर दुर्ग से सबसे बड़ा दलित दांव चलेंगे और उनकी सपा के 'मिशन कांशीराम' को काउंटर करने की भी रणनीति है.

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केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह

लोकसभा चुनाव में एक साल का वक्त बाकी है, लेकिन उत्तर प्रदेश में अभी से राजनीतिक बिसात बिछाई जाने लगी है. सूबे की सियासी पिच पर बसपा के कमजोर होने और मायावती के सक्रिय न होने से दलित वोटों के पाने का रास्ता सभी पार्टियों के लिए खुल गया है, जिसका फायदा सपा से लेकर बीजेपी तक उठाना चाहती है. सपा 'मिशन कांशीराम' के जरिए दलितों के साधने में जुटी है तो बीजेपी भी दलितों को अपने पाले में मजबूती के साथ बनाए रखना चाहती है. 

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दलित सम्मेलन को शाह करेंगे संबोधित
यूपी में बीजेपी के दलित मिशन को धार देने के लिए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने मोर्चा संभाल लिया है. वह आज (शुक्रवार) दो दिवसीय कौशांबी महोत्सव का उद्घाटन करेंगे और दलित सम्मेलन को संबोधित करेंगे. यह आयोजन बीजेपी के स्थानीय सांसद विनोद सोनकर करवा रहे हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ ही उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक, कैबिनेट मंत्री नंद गोपाल गुप्ता नंदी, प्रभारी मंत्री सुरेश राही और सहकारिता मंत्री जेपीएस राठौर, प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी भी इसमें शिरकत करेंगे. 

अमित शाह कौशांबी में करीब 612 करोड़ के विकास की सौगात देंगे, जिनमें ज्यादातर योजनाएं दलित उत्थान और दलित बस्तियों के लिए समर्पित बताई जा रही हैं. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कौशांबी महोत्सव और दलित सम्मेलन को सूबे के दलित वोट बैंक को लुभाने की कवायद के तौर पर देखा जा रहा है. 

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बीजेपी का सबसे कमजोर दुर्ग!
कौशांबी में दलित सम्‍मेलन ऐसे समय में हो रहा है, जब यूपी विधानसभा चुनाव के बाद से बसपा बेहद कमजोर और हताशा की स्थिति में है. वहीं प्रदेश में सपा दलित मतदाताओं को साधने में लगी है. ऐसे में दलित वोटों को लेकर सपा और बीजेपी के बीच शह-मात का खेल शुरू हो चुका है.

कौशांबी दलित बहुल इलाका है, जहां पासी समुदाय बड़ी संख्या में हैं. 2022 विधानसभा चुनाव में बीजेपी कौशांबी की सभी सीटें हारी थी और सपा क्लनी स्वीप करने में कामयाब रही थी. बीजेपी के ओबीसी चेहरा माने जाने वाले केशव प्रसाद मौर्य भी अपनी सीट हार गए थे. कौशांबी में सपा के जीत में सबसे अहम भूमिका इंद्रजीत सरोज ने अदा की थी, जो बसपा से आए और अखिलेश यादव ने उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना रखा है.

अखिलेश का 'मिशन कांशीराम'
सपा ने 'मिशन कांशीराम' को लेकर माहौल बनाने की जिम्मेदारी स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ-साथ दलित नेता इंद्रजीत सरोज को दे रखी है. इसके अलावा, दलित नेता अवधेश प्रसाद को भी अखिलेश ने जिम्मेदारी दे रखी है. सपा की कोशिश अपने कोर वोटबैंक यादव-मुस्लिम को साधे रखते हुए दलितों को जोड़ने की है. सपा की रणनीति है कि 2022 के चुनाव में मिले करीब 36 फीसदी वोटबैंक में पांच से सात फीसदी अतिरिक्त वोट जुड़ जाए तो बीजेपी से मुकाबला आसान हो जाएगा. रायबरेली से शुरू हुआ 'मिशन कांशीराम' इसी रणनीति का हिस्सा है.

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अखिलेश की दलित पॉलिटिक्स को देखते हुए बीजेपी सिर्फ सतर्क ही नहीं हुई है, बल्कि दलितों वोटों का सपा की तरफ जाने से रोकने की रणनीति पर भी काम शुरू कर दिया है. अंबेडकर जयंती से बीजेपी अनुसूचित जाति मोर्चा के लोग दलितों के घर-घर जाकर गेस्ट हाउस कांड की याद दिलाएगी और उन्हें बताएगी कि मायावती की जान बीजेपी के लोगों ने उस समय बचाई थी. इस तरह सपा की दलित राजनीति को बीजेपी काउंटर करने और 2024 लोकसभा चुनाव में बीजेपी की दलित वोटों को अपने साथ हर हाल में जोड़ने रखने की रणनीति है. 

सपा को काउंटर करने का प्लान
बीजेपी सिर्फ दलित सम्मेलन के जरिए ही नहीं बल्कि सपा के नेरेटिव की शूद्र पॉलिटिक्स को तोड़ने के लिए रामकथा का सहारा ले रही है. कौशांबी महोत्सव कार्यक्रम के दौरान कवि कुमार विश्वास 'राम कथा' सुनाएंगे. राम कथा के जरिए कुमार विश्वास शोषित वंचित और दलित समाज के बीच मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की छवि पेश करेंगे. कार्यक्रम का नाम 'अपने-अपने राम' दिया गया है. माना जा रहा है कि इस तरह बीजेपी दलितों के बीच अपनी पैठ बनाने की रणनीति अपना रही है. 

यूपी में दलित सियासत
बता दें कि यूपी में 22 फीसदी दलित मतदाता हैं, जो प्रदेश की सियासत में किसी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं. दलित यूपी में दो हिस्सों में बंटा है. एक जाटव जिनकी आबादी 55 फीसदी फीसदी तो दूसरा गैर-जाटव जिसकी आबादी 45 फीसदी है. गैर-जाटव दलित  करीब 50-60 जातियां और उप-जातियां शामिल हैं. मायावती दलितों की सबसे बड़ी आबादी वाले जाटव समुदाय से आती है और कांशीराम भी इसी जाति से थे.  

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जाटवों के बाद पासी और धोबी सबसे आबादी वाली जाति हैं. पासी, धोबी, कोरी, खटिक, धानुक, खरवार, वाल्मिकी सहित अन्य दलित जातियों को गैर-जाटव कहा जाता है. दलित वोट एक समय कांग्रेस के साथ रहा, लेकिन कांशीराम के चलते बसपा का परंपरागत वोटर बन गया था. मायावती के लगातार चुनाव हारने से उनकी पकड़ दलित वोटों पर कमजोर हुई और बीएसपी से दलितों को मोहभंग होता दिखा है. गैर-जाटव दलित मायावती का साथ छोड़ चुका है. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में गैर-जाटव वोट बीजेपी के पाले में खड़ा दिखा है. 

बसपा के गिरते ग्राफ से दलित बेचैन
2022 के चुनाव में बसपा को कुल 12.88 फीसदी वोट और एक विधानसभा सीट मिली थी. बसपा की इतनी बुरी पराजय और चुनावी रिजल्ट के एक साल बीतने के बाद अब तक मायावती सक्रिय नहीं हो सकी, जिसके चलते विपक्षी दलों की नजर उनके वोटबैंक पर टिक गई है. यही नहीं 2022 के चुनाव में जाटव वोटों पर भी मायावती की पकड़ कमजोर हुई है. दलित के जाटव और गैर-जाटव होनों ही वोटों पर बीजेपी ने पकड़ बनाई तो सपा का भी ग्राफ पहले से बढ़ा है. 

बीजेपी ने दलितों पर फोकस करने की रणनीति इसीलिए शुरू की है कि 2022 के चुनाव में कुछ पासी बहुल जिलों में सपा ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था, जिसमें कौशांबी, रायबरेली, अमेठी, अंबेडकरनगर, आजमगढ़, जौनपुर और प्रतापगढ़ थे. इतना ही नहीं सपा ने 2022 में जिन 111 सीटों को जीता था, उसे अगर लोकसभा सीटों के लिहाज से देखतें है तो 27 सीटों पर बीजेपी से आगे सपा खड़ी दिख रही है. 

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यूपी की सुरक्षित सीटों पर किसकी पकड़?
यूपी में 86 विधानसभा सीट और 17 लोकसभा सीट अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है. इन सीटों के नतीजे तय करते हैं कि राज्य में किस पार्टी का दबदबा होगा. 2022 के विधानसभा चुनाव में सुरक्षित सीटों के नतीजे देखें तो बीजेपी गठबंधन ने 67 सीटें जीती थी तो सपा को 20 सीटें मिली थी. वहीं, 2007 में बसपा ने 61 सीटें जीती थीं. 2012 में सपा को 58 सीटें मिलीं, जबकि 2017 में बीजेपी गठबंधन ने 72 सीटें जीती थीं. 2019 लोकसभा चुनाव में 17 सुरक्षित सीट के नतीजे देखें तो बीजेपी गठबंधन 15 और बसपा दो सीटें जीतने में सफल रही थी. हालांकि, बीजेपी से जीते 14 सांसदों में से 9 बसपा या सपा से आए हुए नेता थे.  

दलित वोटों का झुकाव किस तरफ?
दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर सभी पार्टियां दलित उम्मीदवारों को खड़ा करती हैं. ऐसे में गैर-दलित मतदाता निर्णायक बन जाते हैं, क्योंकि दलित वोट विभाजित हो जाते हैं. यही कारण है कि बसपा उम्मीदवार इन सीटों पर बहुत बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाती है, लेकिन पिछले कुछ चुनाव से गैर-जाटव दलितों के साथ जाटव दलित भी मायावती से खिसका है. इनका झुकाव सपा की तुलना में बीजेपी की तरफ ज्यादा रहा है. सपा भी अब इसी वोटबैंक को अपने पाले में लाने की कसरत शुरू की है तो बीजेपी भी पूरी तरह से एक्टिव मोड में उतर चुकी है. 

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यूपी में दलित आबादी वाले जिले
यूपी में 17 जिले ऐसे हैं, जहां दलितों की आबादी 25 फीसदी से अधिक और 41 फीसदी तक है. ये जिले महोबा, आजमगढ़, कानपुर देहात, खीरी, मिर्जापुर, बाराबंकी, चित्रकूट, जालौन, झांसी, औरैया, रायबरेली, उन्नाव, हरदोई, सीतापुर, कौशांबी, सोनभद्र और फतेहपुर हैं. इसके अलावा अमेठी, सहारनपुर, बिजनौर, आगरा, बदायूं, शाहजहांपुर, प्रयागराज, प्रतापगढ़ और जौनपुर में दलितों की आबादी 20 फीसदी के करीब है. इस तरह से सूबे में भले ही 17 लोकसभा सीटें आरक्षित है, लेकिन उनका प्रभाव कहीं इससे ज्यादा सीटें पर है.

 

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