
2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से 37 लोकसभा सीट पाने के बाद देश की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनकर उभरी समाजवादी पार्टी का कोर वोट बैंक यूं तो मुस्लिम और यादव ही रहा है, लेकिन सीएसडीएस के सर्वे में यह बात सामने आने के बाद कि हर तीसरा यादव वोट बीजेपी को जाता है, मुस्लिम वोटों पर समाजवादी पार्टी की निर्भरता और भी ज्यादा बढ़ गई है. मगर खास बात यह है कि समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव पर मुसलमानों के सरोकारों पर चुप्पी साधने और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे शफीकुर रहमान बर्क के पोते व मौजूदा सपा सांसद जियाउर रहमान बर्क और सपा के संस्थापक सदस्य मोहम्मद आजम खान जैसे नेताओं की अनदेखी करने के आरोप लग रहे हैं. ऐसे में बड़ा सवाल यह खड़ा हो रहा है कि क्या वाकई अखिलेश यादव को मुस्लिम वोटों को समेटने के लिए आजम और बर्क जैसे नेताओं की जरूरत है भी या नहीं.
आजम खान के परिवार से मिलने जब-जब आजाद समाज पार्टी के मुखिया चंद्रशेखर आजाद ने रामपुर में कदम रखा, तब-तब सपा मुखिया की बेचैनी बढ़ती नजर आई. वहीं, पहले चंद्रशेखर सीतापुर जेल में आजम खान से मिलने गए, फिर हरदोई जेल में उनके बेटे अब्दुल्लाह आजम खान से मिलने गए. इसी के बाद अखिलेश और उनकी पार्टी आजम फैमिली के लिए सुपर एक्टिव हुई. लेकिन गुजरे वक्त के साथ अब वो बात नहीं रह गई.
अब जबकि अब्दुल्ला आजम खान की जमानत हो चुकी है वह जेल से बाहर हैं लेकिन अभी तक ना तो उन्होंने आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद को लेकर और ना ही अखिलेश यादव को लेकर कोई बयान दिया है. ना ही सोशल मीडिया पर कुछ लिखा है. खुद अखिलेश भी बेफिक्र नजर आ रहे हैं. जबकि, इससे पहले जब आजम खान जेल से रिहा हुए थे, तब अखिलेश और सपा ने काफी गर्मजोशी दिखाई थी.
गौरतलब है कि समाजवादी पार्टी के पोस्टरों और बैनरों से भी धीरे-धीरे आजम खान बाहर होने लगे हैं. अब्दुल्ला तो पहले ही बाहर थे. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अखिलेश यादव मुस्लिम वोटों से बेपरवाह हैं? क्या चंद्रशेखर आजाद से आजम ख़ान और अब्दुल्ला आजम की गुपचुप बात चल रही है? क्या ओवैसी के आजम के साथ आने की संभावनाएं हैं? रामपुर और पश्चिम उत्तर प्रदेश के लोगों में और ख़ासकर मुसलमानों के बीच ये चर्चाएं तेज़ तो हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं कि अखिलेश यादव को आगामी विधानसभा चुनावों में मुसलमान वोटर्स की सबसे अधिक ज़रूरत है और मुसलमानों की इस अहमियत का अंदाज़ा भाजपा को भी है. इसीलिए भाजपा भी मोदी की ईदी बांटने निकल पड़ी है. ऐसे में अखिलेश यादव भी बहुत फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं. यह कहना कठिन है कि जेल से बाहर आने के बाद अब्दुल्ला आज़म अखिलेश यादव से मिलने नहीं गए या अखिलेश ने ख़ुद ही उनसे दूरी बना रखी है लेकिन इतना तय है कि अब्दुल्ला आज़म के जेल से बाहर आने का नोटिस अखिलेश यादव ने बिल्कुल भी नहीं लिया और न ही कोई गर्मजोशी दिखाई जो पहले आजम ख़ान के रिहा होने पर दिखाई थी.
समाजवादी पार्टी के पोस्टरों-बैनरों से भी आज़म फैमिली बाहर होने लगी है. इसका मतलब यह है कि आजम ख़ान और उनका कुनबा अखिलेश यादव के लिए लायबिलिटी बन चुका है. हालांकि, यह अनायास ही नहीं है. नगर निकायों के चुनाव में जब रामपुर में आजम के चुनाव प्रचार के बावज़ूद उनकी कैंडिडेट रामपुर नगरपालिका का चुनाव हार गईं, और फिर लोकसभा चुनाव में मोहिबुल्ला नदवी आज़म ख़ान के विरोध के बावज़ूद समाजवादी पार्टी के लिए लोकसभा की सीट जीत गए, तभी आज़म के राजनीतिक करियर पर प्रश्नचिह्न लग गया था. अखिलेश के लिए आजम का मामला अब केवल मुस्लिम सेंटीमेंट के सवाल से जुड़ा था जिसके कारण आजम को स्पष्ट रूप से नजरअंदाज़ करने में हिचक बनी हुई थी.
लेकिन अब परिस्थितियां बदल रही हैं. मुसलमान वोटर के पास समाजवादी के अलावा कोई मजबूत विकल्प बचा नहीं है और वक़्फ़ बिल व समान नागरिक सहित भाजपा के विरुद्ध उसकी एकजुटता को अखिलेश यादव भी ठीक से भुनाना चाहते हैं. पसमांदा मुसलमानों पर फोकस करके भाजपा उन्हें अपनी ओर खींच तो पाई नहीं लेकिन अखिलेश का ध्यान पसमांदा मुसलमानों की ओर डाल दिया है.
अब अखिलेश यादव ऐसी मुस्लिम लीडरशिप उभारने में लगे हैं जहां उनके पिता और उनके दौर का साया ना हो और कोई इन्हें दबाव में भी ना ले सके. इसीलिए मौलाना मोहिबुल्ला जैसे प्रत्याशी उनकी पसंद बनने लगे हैं. युवाओं को आकर्षित करने के लिए इकरा हसन जैसे युवाओं को आगे करना उन्हें अधिक उपयुक्त लग रहा है. इसलिए अब आजम ख़ान और उन जैसे लोगों की दबाव की रणनीति को अखिलेश यादव नकारने लगे हैं. इतना ही नहीं, विधानसभा के बजट सत्र के दौरान समाजवादी पार्टी के मुस्लिम विधायकों, ख़ासकर इक़बाल महमूद की सरकार के प्रति नरम रवैये पर जिस तरह से अखिलेश के बिफरने की बात सामने आई थी, इससे स्पष्ट है कि अखिलेश यादव अब किसी समझौते के मूड में नहीं है.
अब तो यही लगता है कि आजम ख़ान अखिलेश यादव के लिए बीते दौर की बात हो चुके हैं और रामपुर की जनता भी आजम ख़ान को इसी नजरिए से देख रही है. ये अलग बात है अभी अखिलेश आजम ख़ान का नाम मुस्लिम सेंटीमेंट को भुनाने के लिए गाहे बगाहे ले लें.