मुनव्वर राना, हिंदी-उर्दू अदब का वो नाम, जिसने इश्क़-मोहब्बत की भी शायरी की और फ़लसफ़े की भी, लेकिन सबसे ज्यादा मक़बूलियत 'मां ' पर लिखने को लेकर पाई. उनकी क़लम से जब भी मां के रिश्तों पर लिखने की गुज़ारिश होती तो अपने आप ही बंदिश की जमालियत को एक नई ऊंचाई मिलना लाज़िमी सा हो जाता. इस दौर के आला शायरों में से शायद ही किसी ने मां पर उनके जैसे और उनके जितना लिखा हो.
वे अपनी मां को अपना महबूब मानते थे, जिसे लेकर उन्हें काफी आलोचना भी सहनी पड़ी. इसपर उनका तर्क था कि तुलसीदास जब भगवान राम को अपना प्रेम मान सकते हैं तो अपनी मां को क्यों नहीं? मां-बेटे के रिश्तों को ग़ज़ल में गुथते हुए कागज पर उकेरने को उन्होंने जिस बखूबी से अंजाम दिया, वह नायाब ही है. नायाब शायर मुनव्वर राना ने दुनिया को अलविदा कह दिया है. उन्होंने लखनऊ के पीजीआई में 71 साल की उम्र में आखिरी सांस ली.
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई.
मैं घर में सब से छोटा था मिरे हिस्से में मां आई.
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है.
मां जब बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है.
मेरी ख्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं.
मां से ऐसे लिपटूं कि फिर से बच्चा हो जाऊं.
साफ़गोई, संजीदगी, ख़ालिसी और गहराई के बिना कोई बात कहना सैयद मुनव्वर अली (असल नाम) के लिए मानो ना-क़ाबिल-ए-बरदाश्त था. मौजूदा दौर में महफ़िलों में चल रहे 'बाज़ारूपन' को उन्होंने अपने आसपास फटकने भी नहीं दिया.
कई मुशायरों में इशारों-इशारों में वे इस कोफ़्त को जाहिर करने से ख़ुद को रोक नहीं पाते थे. उर्दू के उम्दा जानकार होने के बावजूद उनके झऱ्फ कलाम में वे हिंदी और अवधी भाषा के लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हुए आमफ़हम होने को ही तरजीह दिया करते थे. दिल में छुपी मज़लूमों की फ़िक्र और अपनी मिट्टी की खूशबू का ज़िक्र, उनके हर्फ़ों में हमेशा मुतासिर रहा. उन्होंने उस दौरा में गिरे-पड़े मौज़ूआत को अपनी क़लम में शामिल किया, जिन्हें उसे वक्त के उर्दू शायर छूना भी पसंद नहीं करते थे.
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं.
तुम्हारे पास जितना है, हम उतना छोड़ आए हैं.
उनकी मशहूरियत और क़ुबूलियत ही ऐसी थी कि उनकी रचनाओं का हिंदी, उर्दू के अलावा बांग्ला और गुरुमुखी तर्जुमा ख़ासी तादाद में छापा गया. लफ्जों के इस जादूगर के लिए मुरीदगी को कुछ इस तरह पेश किया गया-
बादशाहों को सिखाया है क़लंदर होना।
आप आसान समझते हैं मुनव्वर होना।।
रायबरेली में हुई थी पैदाइश
उर्दू साहित्य के लिए 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजे जा चुके राना साहब की पैदाइश 26 नवंबर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली में हुई. उनके वालिद का नाम सैयद अनवर अली और वालिदा का आएशा खातून था. देश के बंटवारे के दौरान उनके ज्यादातर रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन उनके वालिद ने हिंदुस्तान में रहने का फैसला किया. मुनव्वर ने अपने कई लख़्त-ए-जिगरों को जुदा होते देखा. इस दर्द का अक्स उनके अशआर में भी हमेशा झलका.
एक वक्त ऐसा भी था कि खानदानी जमींदारी जाने पर उनके पिता को कोलकाता जाकर ट्रांसपार्ट का काम करना पड़ा. उनके पिता जब ट्रक लेकर घर से निकलते तो कई-कई दिन घर से दूर रहते. ऐसे में परिवार का ध्यान उनकी मां ही रखती. ये दौर मुनव्वर राना और उनके परिवार के लिए काफी मुश्किलात से भरा था. उनकी पढ़ाई तो बीकॉम तक ही हुई, लेकिन दुनियावी पाठशाला में उनकी तरबियत कुछ ऐसी हुई कि उनको ज़िदगी के इम्तेहानों में वज़ीफे मिलते चले गए.
होश संभालने के बाद उनका नक्सली विचाराधारा के लोगों के साथ उठना बैठना होने लगा. इसपर खफा उनके पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया. इसके बाद करीब दो साल तक ट्रक के पहियों के साथ ही उनकी ज़िदगी का पहिया भी घूमता रहा. उनकी जिंदगी का एक अहम और लंबा वक्त कोलकाता में बीता. लेकिन उनकी तबीयत को लखनऊ की आब-ओ-हवा कुछ ऐसी फबी कि वे यहीं के होकर रह गए.
आपबीती को जगबीती बनाना कोई उनसे सीखे. गंगा-जमुनी तहज़ीब की नुमाइंदगी करने वाले राना ने अमन, भाईचारे को अपनी गज़लों का जामा पहनाते हुए हमेशा अमन, भाईचारे का पैग़ाम दिया. बकौल मुनव्वर राना, 15-16 साल की उम्र तक उन्हें पता ही नहीं था कि हिंदू-मुसलमान क्या होता है.
मां पर की गई शायरी खुशबू की तरह आहिस्ता-आहिस्ता फैलती है
शायरी कहते हुए उन्होंने कभी कहा था कि 'एक अच्छे शायर में खूबियों के साथ-साथ खराबियां भी होनी चाहिए, वरना फिर वह शायर कहां रह जाएगा, वह तो फिर फरिश्ता हो जाएगा और फरिश्तों को अल्लाह ने शायरी के इनाम से महरूम रखा है.' मुनव्वर द्वारा मां पर कही गई शायरी अगरबत्ती की खुशबू की तरह आहिस्ता-आहिस्ता फैलती है और दिल के दरवाजे खोलकर सुनने और पढ़ने वालों की रूह में उतर जाती है.
पिता भी थे शायरी के शौकीन
मुनव्वर ने कहीं लिखा था कि मेरे अब्बू ट्रक चलाकर थक जाते थे, उन्हें नींद आती थी और मुमकिन है उन्होंने बहुत से ख्वाब देखें हो, अम्मी से नींद कोसों दूर थी, लिहाजा अम्मी ने कभी ख्वाब नहीं देखे. मुनव्वर के पिता ने साल 1964 में ट्रांसपोर्ट का काम कलकत्ते में शुरू किया था. इसके बाद साल 1968 में मुनव्वर भी पिता के पास रायबरेली से कलकत्ता पहुंच गए. मुनव्वर राना ने कोलकाता से हायर सेकेंडरी और बीकॉम किया. मुनव्वर के पिता शायरी के शौकीन थे, इसलिए मुनव्वर का शायरी की तरफ झुकाव हो गया, लेकिन मुनव्वर के पिता नहीं चाहते थे कि मुनव्वर शायर बनें. एक वक्त तक गज़ल जो कभी मयखाने, कोठों और महबूब के गेसुओं में उलझी थी, उसे मुनव्वर ने नया आयाम दिया.
मुनव्वर न चाहते हुए भी शायर बन गए
शुरुआती दिनों में वे कोलकाता में प्रो. एजाज अफजल साहब से इस्लाह लेते थे. उनका तख़ल्लुस 'आतिश' यानी कलमीनाम मुनव्वर अली 'आतिश' था. इसके बाद एक मुशायरे में उनकी मुलाकात शायर वाली आसी से हुई. वाली आसी ने मुनव्वर अली 'आतिश' से उनका कलाम सुना और काफी प्रभावित हुए. इसी के साथ नया नाम मुनव्वर राना दिया. इसके बाद कुछ ही सालों में मुनव्वर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में होने वाले मुशायरों में नौजवान शायर के तौर पर पहचाने जाने लगे.
'मुहाजिरनामा' को दुनियाभर में मिली तारीफ़
भारत की आजादी के बाद जब देश का बंटवारा हुआ और भारत का दूसरा टुकड़ा पाकिस्तान बन गया. उस दौर में जिस तरह देश से पलायन हुआ, उनके कई रिश्तेदार वतन छोड़कर पाकिस्तान चले गए, लेकिन उनके पिता ने यहीं रुकना चुना. वो कोलकाता जो तब कलकत्ता था, वहां जाकर बस गए. इन सभी घटनाओं का असर मुनव्वर के जेहन में गहरे से उतर गया था. उन्होंने पलायन पर बाद में मुहाज़िरनामा नज़़्म लिखी, जिसे देश ही नहीं, विदेशों में भी दिल खोलकर सराहा गया.
'बहुत दिन रह लिये दुनिया के सर्कस में...'
मुनव्वर वो अज़ीम शायर थे, जो खुद को दूसरों की आंखों में परखे जाने से पहले खुद की आंखों के आईने में परखते. उनकी लिखी और पढ़ी नज़्मे, शेर-ओ-शायरियां उनके चाहने वालों के हिस्से में किसी दुआ की तरह बनकर आईं. अब यही 'दुआएं' हजारों धड़कते दिलों में हमेशा उनकी अनमोल तस्वीर बनकर रहेंगी.
बहुत दिन रह लिये दुनिया के सर्कस में तुम ऐ राना,
चलो अब उठ लिया जाए तमाशा खत्म होता है.
मुनव्वर राना की प्रमुख किताबें
नीम के फूल, कहो जिल्ले इलाही से, मां, घर अकेला हो गया, चेहरे याद रहते हैं, फिर कबीर, मुनव्वर राना की सौ गजलें, बगैर नक्शे का मकान, सफेद जंगली कबूतर, गजल गांव, मोर पांव, पीपल छांव, सब उसके लिए, बदन सराय, जंगली फूल, नए मौसम के फूल, मुहाजिरनामा
मुनव्वर राना का परिवार
शायर मुनव्वर राना अपनी मां आइशा खातून से सबसे ज्यादा मुहब्बत करते रहे. छह भाइयों और एक बहन के परिवार में सबसे बड़े बेटे मुनव्वर को भी उनकी मां अपना सबसे करीबी मानती रहीं. उनकी मां का इंतेकाल साल 2016 में हुआ था. उर्दू और अरबी में अच्छी महारत रखने वाली मां आइशा खातून का बेटे के तसव्वुर में ताज़िदगी अलग ही मुकाम रहा. उनके परिवार की नींव को सबसे ज्यादा मजबूती मुनव्वर राना के पिता सैयद अनवर अली राना ने दी. मूल रूप से रायबरेली के रहने वाले सैयद अनवर अली ने देश की आजादी से पहले ट्रांसपोर्ट का बिजनेस डाला था. उनका परिवार खाते-पीते संपन्न लोगों में गिना जाता था.
उनके छह बेटों में मुनव्वर राना सबसे बड़े थे, जिनकी बचपन से ही साहित्य में दिलचस्पी थी. मुनव्वर के अलावा उनके दूसरे भाई इस्माइल राना, राफे राना, जमील राना, शकील राना सभी ने वालिद का कारोबार संभाला और ट्रांसपोर्टर के तौर पर पहचाने गए. एक मंझले भाई याहिया राना का इंतेकाल हो गया था, वहीं मुनव्वर की इकलौती बहन शाहीन कतर में रहती हैं. मुनव्वर की शादी के बाद वे लखनऊ में बस गए थे, यहां उनकी पांच बेटियां हुईं. वो अपनी मां के बाद अपनी बेटियों से भावनात्मक जुड़ाव महसूस करते थे.
उनकी बेटियों में सुमैया राना सबसे बड़ी हैं. सुमैया में अपने पिता की झलक साफ मिलती है.वे साहित्य में भी काफी सक्रिय रही हैं. मौजूदा वक्त में वे समाजवादी पार्टी उप्र में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष महिला सभा एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता की ज़िम्मेदारी निभा रही हैं. सुमैया के शौहर वासिफुद्दीन सिविल इंजीनियर हैं. दूसरे नंबर की बेटी फौजिया राना बिहार कांग्रेस में हैं, फौजिया के पति खुर्रम अहसन पटना में रहते हैं और कॉलेज संचालक हैं.
तीसरे और पांचवें नंबर की बेटी अर्शिया राना और हिबा राना हाउसवाइफ हैं. अर्शिया के पति अलीम अब्बासी और हिबा राना के पति सैय्यद साकिब बिल्डर हैं. वहीं चौथे नंबर की बेटी उरुषा राना भी राजनीति में सक्रिय हैं. उरुषा उप्र महिला सभा कांग्रेस में प्रदेश उपाध्यक्ष हैं और उनके पति इमरान सिद्दीकी बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन का काम करते हैं.
सभी पांच बेटियों के बाद सबसे छोटा बेटा है तबरेज राना. तबरेज भी ट्रांसपोर्ट कंपनी संभालते हैं और उनकी पत्नी नायला राना हाउसवाइफ हैं. उनकी बेटी उरुषा को छोड़कर सभी बेटियां और बेटा लखनऊ में ही रहते हैं.
गजल के मानी महबूब से गुफ्तगू करना
इसमें कोई शक नहीं कि मुनव्वर राना ने शायरी की रवायत से हटकर शेर कहे. उनका मानना था कि गज़ल के मानी महबूब से गुफ़्तगू करना है, तुलसी के महबूब राम थे और मैं अपनी मां को अपना महबूब मानता हूं. मुनव्वर राना के मां पर कहे उनके शे'र पूरी दुनिया में मकबूल हुए.
चलती-फिरती हुई आंखों में अजां देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, मां देखी है
तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फलक
मुझको अपनी मां की मैली ओढ़नी अच्छी लगी
बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान छुआ
उठाया गोद में मां ने तो आसमान छुआ
ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूं मेरी मां सजदे में रहती है
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
मां दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है
'मुनव्वर' मां के आगे कभी खुलकर नहीं रोना
जहां बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आयी
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में मां आयी
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू
मुद्दतों मां ने नहीं धोया दुपट्टा अपना.
मुनव्वर राना ने गज़ल को रवायत की कैद से निकाला. वे लंबे वक्त तक घुटनों की बीमारी से जूझते रहे. उन्होंने अस्पताल में एक गज़ल कही थी, जिसका मतला और एक शे'र इस तरह है -
मौला ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊं
जिस शान से आया हूं उसी शान से जाऊं
क्या सूखे हुए फूल की किस्मत का भरोसा
मालूम नहीं कब तेरे गुलदान से जाऊं.
उन्होंने एक शे'र यह भी लिखा था-
जाने अब कितना सफर बाकी बचा है उम्र का
जिंदगी उबले हुए खाने तलक तो आ गयी.
जिंदगी की यह कड़वी सच्चाई है कि एक दिन मौत से सामना होना है. लोग आपस में कड़वाहटें लिए एक-दूसरे से जलन रखने लगते हैं, मुनव्वर राना ने इस हकीकत को शेर में कुछ इस तरह ढाला.
थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गये
हम अपनी कब्र-ए-मुकर्रर में जा के लेट गये
तमाम उम्र हम इक दूसरे से लड़ते रहे
मगर मरे तो बराबर में जा के लेट गये.
किसी समय कवि सम्मेलन-मुशायरे के अलग आदाब होते थे, लेकिन मौजूदा दौर में काफी कुछ बदल चुका है. इसी बदलाव पर मुनव्वर राना ने कभी कहा था-
ये कौन कहता है इंकार करना मुश्किल है
मगर जमीर को थोड़ा जगाना पड़ता है
मुशायरा भी तमाशा मदार शाह का है
यहां हर एक को करतब दिखाना पड़ता है.
मुनव्वर राना ने अपनी शायरी में पवित्र शब्द 'मां' का रिवायत से हटकर प्रयोग किया है. बेटे की उम्र कितनी ही हो जाए, मां के लिए वह बच्चा ही रहता है, इस एहसास को एक गजल में मुनव्वर राना ने खूबसूरती से पिरोया..
कल अपने आप को देखा था मां की आंखों में
ये आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है
लिपट के देखिये इक रोज अपने दुश्मन से
यह तजुर्बा कोई अपना नहीं बताता है.
मुनव्वर राना ने इंसानी बीमारियों को भी अपनी गजल का हिस्सा बनाया. उन्होंने लिखा था -
उधर का रुख नहीं करते जो रस्ता छोड़ देते हैं
जो कमरा छोड़ देते हैं वो कमरा छोड़ देते हैं
मोहब्बत के लिए थोड़ी सी रुसवाई जरूरी है
शकर के डर से बुजदिल लोग मीठा छोड़ देते हैं.
इंसान से जाने-अनजाने में अक्सर गलतियां हो जाती हैं. सबमें खूबियों के साथ खामियां भी होती हैं, लेकिन अपनी खामियों को स्वीकार कर लेने की क्षमता सब में नहीं होती. मुनव्वर राना ने लिखा था-
किरदार पे गुनाह की कालिख लगा के हम
दुनिया से जा रहे हैं ये दौलत कमा के हम
क्या जाने कब उतार पे आ जाए यह पतंग
अब तक तो उड़ रहे हैं सहारे हवा के हम.
मुनव्वर की गजल का ये शे'र भी देखिये...
जो देर थी कफस से निकलने की देर थी
फिर आसमान सारा कबूतर का हो गया.
एक गज़ल में मुनव्वर राना ने लिखा-
फकीरों की ये कुटिया है फरावानी नहीं होगी
मगर जब तक रहोगे हां परेशानी नहीं होगी
यह आंसू आपको रुसवा कभी होने नहीं देंगे
मेरे पाले हुए हैं इनसे नादानी नहीं होगी
मुनव्वर में यकीनन कुछ न कुछ तो खूबियां होंगी
ये दुनिया यूं ही इस पागल की दीवानी नहीं होगी.
एक गज़ल का मतला और एक शेर यूं भी कहा था ...
मुहब्बत करने वाला जिंदगी भर कुछ नहीं कहता
के दरिया शोर करता है, समंदर कुछ नहीं कहता
तो क्या मजबूरियां बेजान चीजें भी समझती हैं
गले से जब उतरता है तो जेवर कुछ नहीं कहता...
मुनव्वर राना कभी कलंदर शायर भी लगे, उनके ये मिसरे इसके गवाह हैं...
ये दरवेशों कि बस्ती है यहां ऐसा नहीं होगा
लिबास ऐ जिंदगी फट जाएगा मैला नहीं होगा
जाओ, जाकर किसी दरवेश की अजमत देखो
ताज पहने हुए पैरों में पड़े रहते हैं
कलंदर संगेमरमर के मकानों में नहीं मिलता
मैं असली घी हूं, बनिए की दुकानों में नहीं मिलता
चले सरहद की जानिब और छाती खोल दी हमने
बढ़ाने पर पतंग आए तो चरखी खोल दी हमने
पड़ा रहने दो अपने बोरिये पर हम फकीरों को
फटी रह जाएंगी आंखें जो मुट्ठी खोल दी हमने.
मुनव्वर ने अपनी शायरी में काफिये भी रवायत से हटकर इस्तेमाल किए.
दुनिया सलूक करती है हलवाई की तरह
तुम भी उतारे जाओगे मलाई की तरह
मां-बाप मुफलिसों की तरह देखते हैं बस
कद बेटियों के बढ़ते हैं महंगाई की तरह
हम चाहते हैं रक्खे हमें भी जमाना याद
गालिब के शे'र तुलसी की चौपाई की तरह
हमसे हमारी पिछली कहानी न पूछिए
हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह.
विभाजन का दर्द झेला, फिर लिखा 'मुहाज़िरनामा'
मुनव्वर राना ने देश के विभाजन का दर्द झेला है. उनका पूरा परिवार उस वक्त पाकिस्तान चला गया. इस दर्द को उन्होंने अपनी किताब 'मुहाज़िरनामा' में बयां किया. एक ही रदीफ, काफिये पर उन्होंने करीब 500 शेर कहे. दर-अस्ल, मुहाज़िरनामा उन लाखों लोगों का दर्द है, जो बंटवारे के समय पाकिस्तान चले गए थे. मुहाज़िरनामा के जरिये पाकिस्तान की हुकूमत को एक करारा जवाब भी दिया गया है. इसमें मुनव्वर राना ने लिखा है...
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आये हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आये हैं
वुजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है
कि हम उजलत में जमुना का किनारा छोड़ आये हैं
तयम्मुम के लिए मिट्टी भला किस मुंह से हम ढूंढ़ें
कि हम शफ्फाक गंगा का किनारा छोड़ आये हैं
हमें तारीख भी इक खान- ऐ- मुजरिम में रखेगी
गले मस्जिद से मिलता इक शिवाला छोड़ आये हैं
ये खुदगर्जी का जज्बा आज तक हमको रुलाता है
कि हम बेटे तो ले आये भतीजा छोड़ आये हैं
न जाने कितने चेहरों को धुआं करके चले आये
न जाने कितनी आंखों को छलकता छोड़ आये हैं
गले मिलती हुई नदियां गले मिलते हुए मजहब
इलाहाबाद में कैसा नजारा छोड़ आए हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं.
मुनव्वर राना की शायरी में महबूब की ज़ुल्फें, मैख़ाने का मंज़र, साक़ह-ओ- पैमाना और हुस्न की तारीफ तो नज़र नहीं आती, पर उन्होंने मां, बेटी, बचपन, रिश्तों की नाजुकी, गुरबत, वतन, घर-आंगन और जिंदगी के तमाम रंगों पर शायरी कही. उनके ये शेर इसकी तस्दीक करते हैं.
गज़ल वो सिन्फ ए नाजुक है जिसे अपनी रफाकत से
वो महबूबा बना लेता है, मैं बेटी बनाता हूं
समझौतों की भीड़-भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया
इतने घुटने टेके हमने आखिर घुटना टूट गया
हम सायादार पेड़ जमाने के काम आये
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आये
तलवार की मयान कभी फेंकना नहीं
मुमकिन है, दुश्मनों को डराने के काम आये
शकर फिरकापरस्ती की तरह रहती है नस्लों तक
ये बीमारी करेले और जामुन से नहीं जाती
फिजां में घोल दी हैं नफरतें अहल ए सियासत ने
मगर पानी कुएं का आज तक मीठा निकलता है
उम्रभर सांप से शर्मिंदा रहे ये सुनकर
जब से इंसान को काटा है फन दुखता है
ये देखकर पतंगें भी हैरान हो गईं
अब तो छतें भी हिंदू- मुसलमान हो गईं
बदन में दौड़ता सारा लहू ईमान वाला है
मगर जालिम समझता है कि पाकिस्तान वाला है
हमारे फन की बदौलत हमें तलाश करे
मजा तो जब है कि शोहरत हमें तलाश करे.
ये गज़लें भी काफी पसंद की गईं
जहां तक हो सका हमने तुम्हें पर्दा कराया है
मगर ऐ आंसुओं! तुमने बहुत रुस्वा कराया है
चमक यूं ही नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर
अना को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है
बड़ी मुद्दत पे खायी हैं खुशी से गालियां हमने
बड़ी मुद्दत पे उसने आज मुंह मीठा कराया है
बिछड़ना उसकी ख्वाहिश थी न मेरी आरजू लेकिन
जरा सी जिद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है
कहीं परदेस की रंगीनियों में खो नहीं जाना
किसी ने घर से चलते वक्त ये वादा कराया है
खुदा महफूज रखे मेरे बच्चों को सियासत से
ये वो औरत है जिसने उम्र भर पेशा कराया है...
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इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिये
आप दरिया हैं तो फिर इस वक्त हम खतरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिये
ऐरे गैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों
आपको औरत नहीं अखबार होना चाहिये
जिंदगी कब तलक दर दर फिरायेगी हमें
टूटा फूटा ही सही घर बार होना चाहिये
अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क के हिस्से में भी इतवार होना चाहिये...