
जेवर... उत्तर प्रदेश का वह इलाका, जिसे कभी शायद ही कोई जानता था. लेकिन अब यह किसी पहचान का मोहताज नहीं है. यहां देश का सबसे बड़े एयरपोर्ट बन रहा है. यहां के किसानों की जमीनों ने इस परियोजना को आधार दिया. जमीनें गईं, बदले में करोड़ों का मुआवजा मिला. लेकिन क्या इस "विकास" ने जेवर के किसानों की जिंदगियों को बेहतर बनाया? क्या सचमुच मुआवजा उनकी तकलीफों का मरहम बन सका?
दरअसल, जब भी लोग किसानों की जमीन के बदले मिले करोड़ों मुआवजे के बारे में सुनते हैं तो दिमाग में यही आता है कि उनके तो मजे हो गए. करोड़ों रुपये मिले हैं. अब क्या ही परेशानी, जिंदगी आराम से बीतेगी. महंगी गाड़ियां, आलीशान कोठी और सोने की चेन-अंगूठियां.
ऐसा ही एक तस्वीर अब जेवर के किसानों को लेकर भी बन गई है. लेकिन क्या यह आखिरी सच है? अगर हां तो क्या ये किसान वाकई आराम की जिंदगी जी रहे हैं? और अगर नहीं तो जमीन जाने के बाद अब उनकी हालत क्या हैं. इन्हीं सवालों के जवाब टटोलने हम निकल पड़े जेवर के रास्ते...
एयरपोर्ट की परछाई में कितनी बदली किसानों की किस्मत?
नोएडा से यमुना एक्सप्रेस-वे होते हुए जैसे ही जेवर की सीमा में दाखिल हुए, एयरपोर्ट के निर्माण के सबूत हर जगह नजर आने लगे. बड़ी-बड़ी क्रेनें, भारी मशीनरी और मजदूरों की टोली. सब जगह यही नजर आ रहा था. एयरपोर्ट निर्माण के कारण पुराने रास्तों पर कहीं कटीले तारों वाली बैरिकेडिंग थीं तो कहीं ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर दी गई थीं. और कई रास्ते अब धूल फांक रहे थे.
जेवर के किसानों की तलाश में हमने रनहेरा गांव पहुंचने का फैसला किया. यहां पहुंचने का रास्ता कच्ची-पक्की गलियों से गुजरता था. कई जगह पानी भरा हुआ था, और खाली पड़े मकान बाढ़ग्रस्त इलाके का भ्रम पैदा कर रहे थे. खेतों के बीच एयरपोर्ट की ऊंची दीवारें अब भी मौजूद जमीनों पर जैसे निगरानी कर रही थीं. इन दीवारों के दूसरी ओर, कहीं उम्मीदें दम तोड़ चुकी थीं, तो कहीं गुस्से की लहरें अभी भी उफान पर थीं.
"पैसा तो मिला, लेकिन खेत चले गए"
किसानों की तलाश में हम पहुंचे रनहेरा की चौपल पर. यहां किसान अपनी मांगों को लेकर धरने पर बैठे हुए हैं. इन्हीं में से एक देवराज सिंह बताते हैं, "किसानी का जीवन सबसे बेहतर होता है. अपने बच्चों को भी पाल रहे थे और रोजगार भी मिला हुआ था. लेकिन जबसे एयरपोर्ट आया है जमीन भी चली गई और रोजगार भी. अब बच्चों के भविष्य पर संकट गहरा गया है. गांव का स्कूल भी बंद हो गया. गांव के बच्चों की शिक्षा तक पर अब संकट है."
उनकी आंखों में गहरी उदासी थी. पुराने दिन याद करते हुए उन्होंने बताया, "पहले खेतों में दिन कट जाता था. सुबह उठकर काम शुरू करो और शाम तक सब भूल जाओ. अब बस चारदीवारी में बंद रहते हैं. दिन काटना मुश्किल हो गया है. जो मुआवजा मिला, उससे हमने कुछ खेती की जमीन खरीदने का सोचा. दूसरी जगह गए तो वहां हमारे गांव का नाम सुनते ही 6 लाख के खेत की कीमत हमें दोगुनी बता दी गई. सभी लोगों को लगता है कि एयरपोर्ट में जमीन जाने से हमें बहुत मुआवजे की मोटी रकम मिली है. लेकिन हकीकत या तो हमें पता है या सरकार को."
देवराज सिंह की बात खत्म हुई ही थी कि बुजुर्ग किसान सर्वोत्तम सिंह, जिनकी जमीन एयरपोर्ट के दोनों चरणों में गई थी, ने अपना दर्द बयां किया. उन्होंने कहा, "हमारी 13 बीघा जमीन गई. बदले में 2 करोड़ रुपये मिले. पहले तो लगा कि जिंदगी आसान हो जाएगी. बेटियों की शादी की, प्लॉट खरीदा, कुछ कर्ज था वो चुकाया. और इसी में वो पैसा खत्म हो गया. प्लॉट लिया लेकिन उस पर मकान तक नहीं बना पाए. और ना कमाई का कोई साधान बन सका."
करोड़ों रुपये की रकम किसानों के लिए बन गई उलझन?
दरअसल, जब सरकार ने जेवर एयरपोर्ट के लिए किसानों की जमीन का अधिग्रहण किया, तो इसके बदले में उन्हें जो मुआवजा दिया गया, उससे कहीं ज्यादा की उम्मीदें किसान कर रहे थे. कई किसानों ने अपने जीवन में कभी इतनी बड़ी रकम नहीं देखी थी. अचानक से हाथ में करोड़ों रुपये आना उनके लिए एक नई स्थिति थी. कुछ किसानों ने इसे एक अवसर के रूप में देखा, जबकि अन्य के लिए यह एक उलझन भरा दौर बन गया. कई किसान बताते हैं कि करोड़ों का मुआवजा मिला लेकिन उसका सही इस्तेमाल ना कर पाने के चलते आज वह रकम लगभग खत्म हो चुकी है.
इस बीच मन में एक सवाल ये भी था कि आखिर कैसे सभी किसानों का पैसा खत्म हो सकता है. करोड़ों रुपये का मुआवजा मिला और कोई भी किसान क्यों खुश नहीं है. इसी सवाल का जवाब टटोलने की कोशिश में हमने एक सवाल दाग दिया. इस पर राहुल नाम के युवा बताते हैं, "पहले फेज में जिन किसानों को मुआवजा मिला, उनमें से करीब 35 फीसदी किसान बर्बाद हो चुके हैं. पैसा मिलने के बाद लोगों ने गाड़ी-मोटरसाइकिल आदि ले ली. इसके अलावा किसानों को जानकारी थी नहीं और उन्होंने कॉलोनियों में प्लॉट खऱीद लिए. लेकिन कुछ समय बाद प्राधिकरण ने वो प्लॉट अवैध बातकर तोड़ दिए. साथ ही कहीं खेती की जमीन ली तो उसमें भी कइयों के साथ धोखाधड़ी हो गई."
"न नौकरी मिली, न वादे पूरे हुए"
चौपाल पर बुजुर्गों को मन की बात बयां करते देख युवा और बच्चे भी जुटने लगे. यहीं पर हमारी बात हुई विजय नाम के ग्रामीण से. वह बताते हैं, "हमारी जमीनें गईं. सरकार ने कहा था कि हर घर से एक व्यक्ति को नौकरी देंगे. इसके लिए मुआवजे से 5 लाख रुपये भी काट लिए गए. लेकिन अब तक किसी को नौकरी नहीं मिली. जब पूछने जाते हैं तो पटवारी से लेकर डीएम तक के चक्कर काटने पड़ते हैं. कोई सुनने वाला नहीं है."
विजय का गुस्सा जायज था. गांव के युवाओं की नौकरी करने की उम्र जो बीते जा रही है. वह आगे बताते हैं, "जमीन हमारी थी. बदले में हमें बस उम्मीदें दी गईं. अब गांव भी छोड़ने की नौबत आ गई है. मुआवजा लेकर क्या करेंगे जब हमारे पास काम नहीं है? हमारे पास थोड़ी बहुत जमीन थी, जिसके बदले कितना ही मुआवजा मिलता. अब जो मुआवजा मिला भी, वो रहने के लिए प्लॉट खरीदने और उस पर मकान बनाने जैसी जरूरतों में खत्म हो जाएगा. इसके बाद ना हमारे नाम पर कोई खेती की जमीन होगी और ना कोई रोजगार."
उनकी बात सुनकर वहां मौजूद और लोग भी अपनी तकलीफें बताने लगे. हर कोई यही कह रहा था कि पैसा आया, लेकिन यह स्थाई समाधान नहीं था. एयरपोर्ट के लिए जमीन जाने के बाद उनके जीवन की दिशा ही बदल गई.
"हमारे भविष्य पर संकट पैदा हो गया..."
गांव के बुजुर्ग जयदेव सिंह बताते हैं, "हमारा जीवन एयरपोर्ट के पहले बहुत अच्छा चल रहा था. हम गाय-भैंस पालते थे. खेती से घर का खर्च निकलता था. बच्चों को पढ़ा पा रहे थे और आराम से गांव में रह रहे थे. लेकिन अब सब खत्म हो गया. हमें जो मुआवजा मिला, उससे हमारे जीवन को कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि हमारे बच्चों के भविष्य पर संकट पैदा हो गया है."
यहीं चौपाल पर कई रिटायर्ड फौजी भी मौजूद थे. इन्हीं में से एक थे सीपी सिंह, जो रिटायर होकर गांव आए थे. वह बताते हैं, "मैंने अपनी जिंदगी बॉर्डर पर देश की सेवा करते हुए गुजारी. सोचा था कि रिटायरमेंट के बाद गांव में चैन से रहूंगा. लेकिन अब अपना गांव छोड़ने की नौबत आ गई है. डेढ़ करोड़ का मुआवजा मिला. कुछ बच्चों ने ले लिया, कुछ मैंने कर्ज उतारने में लगा दिया. अब सोचता हूं कि बच्चों का भविष्य कैसे सुरक्षित रहेगा. कहां रहेंगे और कैसे आगे का गुजारा करेंगे."
खाली पड़े घरों का मंजर
गांव की गलियों से गुजरते हुए हमने देखा कि कई घर खाली पड़े थे. दरवाजों पर ताले लगे थे. कुछ मकान तो पानी में डूबे हुए थे. यह नजारा हमें गांव की उस विरासत की याद दिला रहा था, जो अब अतीत बन चुकी है.
हमारी मुलाकात एक बुजुर्ग महिला से हुई, जो अपने छोटे से घर में ही दुकान चलाकर गुजारा करती हैं. वह बताती हैं, "जब से हमारा गांव खाली कराने की बात कही गई है, तब से दिल परेशान रहता है. हमारे घरों के बदले हमें 50 मीटर का प्लॉट दूसरी जगह देने का वादा किया गया है. लेकिन यह इतना छोटा है कि उसमें रहने की जगह भी नहीं है. हमारे बड़े-बुजुर्ग यहां रहते आए थे. अब हमें यहां से जाना पड़ेगा. यह सोचकर ही दिल भारी हो जाता है."
"हमने सबकुछ गंवा दिया"
गांव के एक और बुजुर्ग किसान धर्मबीर सिंह का दर्द भी कुछ अलग नहीं है. उन्हें दो करोड़ रुपये का मुआवजा मिला लेकिन आज वह दो वक्त की रोटी के मोहताज हैं. नम आंखों से धर्मबीर सिंह बताते हैं, "मुआवजे से हमने 3 बीघा खेत खरीदा और एक प्लॉट. दोनों ही धोखे से बेटे ने अपने नाम करा लिए. उम्र के इस पड़ाव पर ना मजदूरी कर सकते हैं ना कही जा सकते हैं. खेत में लगे रहते तो अपने खाने का इंतजाम हो जाता था. भैंस रखकर दूध बेचकर गुजारा होता था. लेकिन आज दो वक्त की रोटी जुटाना चुनौती हो गया है. मेरा तो बुढ़ापों अंधकार में नजर आ रहा है. किसी को अपनी तकलीफ बता भी नहीं सकता हूं."
'सैकड़ों साल पुरानी विरासत खो गई'
किसान विजयपाल बताते हैं, "जमीन के साथ हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति भी जा रही है. हमारा 1000-1100 साल पुराना गांव है. ये जो विरासत में बुजुर्गों से मिली है उसे ये कौड़ी के भाव में ले रहे हैं. गांव में हमारे मकानों का भी एयरपोर्ट के लिए अधिग्रहण किया जा रहा है. इसके बदले हमें 50 मीटर का प्लॉट देने की बात कही गई है. उसमें कौन-कौन रह सकता है? हमारे बच्चे कहां जाएंगे? जब हमसे जमीन ली गई थी तो इसके बदले कई और लाभ मिलने थे. बच्चों को नौकरी तक नहीं दी. कोई हमारी बात सुनने वाला नहीं है."
जेवर एयरपोर्ट परियोजना ने निश्चित रूप से देश के आर्थिक बुनियादी ढांचे में नए अवसर पैदा किए हैं, लेकिन इसकी असली कीमत उन किसानों ने सबसे ज्यादा चुकाई है, जिनकी जिंदगियां इस विकास के मार्ग में बदल गईं. मुआवजे से जरूर उनके जीवन में आर्थिक लाभ आया, लेकिन किसानों की बात सुनकर यही लग रहा है कि ये आर्थिक लाभ स्थाई समाधान नहीं दे पाया. किसानों की कहानी केवल जमीन खोने की नहीं है, बल्कि एक पहचान खोने, अपनी जड़ों से अलग होने और एक अस्थिर भविष्य का सामना करने की है. जेवर एयरपोर्ट की यह कहानी केवल एक भौतिक संरचना का निर्माण नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज के उन किसानों की कहानी है, जिन्होंने अपने संघर्ष और त्याग से हमें यह सिखाया है कि असली विकास क्या होता है.