पश्चिम यूपी की सियासत का कुरुक्षेत्र बनी मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट पर आरएलडी ने जोरदार तरीके से सियासी चक्रव्यूह रचा, जिसे बीजेपी भेद नहीं पाई. आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी ने खतौली उपचुनाव में गुर्जर समाज के मदन भैया को उतारकर नया दांव चल दिया, जिसके आगे बीजेपी चारो खाने चित हो गई. मदन भैया ने बीजेपी की प्रत्याशी राजकुमारी सैनी को 22 हजार मतों से शिकस्त देकर खतौली सीट अपने नाम कर ली तो जयंत चौधरी ने इसी बहाने पश्चिमी यूपी में बीजेपी के खिलाफ नई सोशल इंजीनियरिंग को एक रूप दे दिया.
खतौली विधानसभा उपचुनाव में आरएलडी अध्यक्ष जयंत सिंह और बीजेपी के दिग्गज जाट नेता व केंद्रीय राज्यमंत्री डॉ. संजीव बालियान की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी. ऐसे में जयंत ने बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए चार बार के विधायक रह चुके मदन भैया को गाजियाबाद से ले जाकर खतौली सीट पर चुनाव लड़ाया, जिनका मुकाबला बीजेपी के विधायक रहे विक्रम सैनी की पत्नी राजकुमारी सैनी से था.
जयंत ने जाट-मुस्लिम तक अपनी पार्टी को सीमित रखने के बजाय पश्चिमी यूपी में सियासी समीकरण को देखते हुए खतौली सीट पर नया राजनीतिक प्रयोग किया. खतौली सीट पर सैनी कैंडिडेट उतारने के बजाय गुर्जर समाज के मजबूत नेता मदन भैया को उतारा और चंद्रशेखर आजाद के जरिए दलित समुदाय के वोटों का साधने का दांव चला. जयंत का यह सियासी प्रयोग बीजेपी के लिए चिंता सबब बन गया.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित बीजेपी के तमाम नेताओं ने खतौली सीट पर प्रचार किया. डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान ने डेरा जमाए रखा. इसके बाद भी बीजेपी उम्मीदवार राजकुमार सैनी को जीत नहीं दिला सके. खतौली सीट पर मदन भैया को 97071 वोट मिले तो बीजेपी राजकुमारी सैनी को 74906 वोट मिले. इस तरह से मदन भैया ने 22160 मतों से जीत दर्ज की.
खतौली सीट पर मदन भैया की जीत के साथ ही आरएलडी ने मुजफ्फरनगर की एक और सीट बीजेपी से छीन ली है और अब जिले में सपा-आरएलडी गठबंधन की पांच सीटें हो गई हैं. आरएलडी के यूपी में अब 9 विधायक हैं. भले ही उपचुनाव में आरएलडी ने एक सीट जीती हो, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मिली यह जीत पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत में जयंत के लिए सियासी संजीवनी से कम नहीं है.
खतौली सीट मुजफ्फरनगर जिले में आती है और बीजेपी दो बार से यह सीट जीत रही थी. मुजफ्फरनगर दंगे मामले में विक्रम सैनी को सजा हुई है. ऐसे में जयंत चौधरी ने स्पीकर को चिट्ठी लिखकर विक्रम सैनी की सदस्यता ही खत्म नहीं कराई बल्कि सीट भी बीजेपी के हाथों से छीन ली है. आरएलडी यह सीट तब जीती है जब बीजेपी सूबे की सत्ता में है. यह जयंत चौधरी के जितनी अहम है उतनी ही बीजेपी के लिए सियासी झटके की तरह है.
खतौली सीट पर जाट-गुर्जर-सैनी-मुस्लिम वोटर काफी बड़ी संख्या में हैं. इसी समीकरण को देखते हुए जयंत चौधरी ने इस बार सैनी और मुस्लिम के बजाय गुर्जर समाज पर दांव खेला है. इस तरह जयंत ने अपने सियासी कॉम्बिनेशन को मजबूत करने की रणनीति अपनाई है, और इसके लिए उन्होंने मदन भैया पर दांव लगाया. बसपा चुनावी मैदान में नहीं थी. ऐसे में दलित मतदाताओं को साधने के लिए दलित नेता चंद्रशेखर आजाद का साथ लिया.
जयंत चौधरी ने अकेले उपचुनाव का मोर्चा संभाला और सपा मुखिया अखिलेश यादव खतौली में प्रचार से दूर रखा. इस तरह से बीजेपी को किसी तरह का ध्रुवीकरण करने का मौका नहीं दिया जबकि संजीव बालियान से लेकर योगी आदित्यनाथ तक ने मुजफ्फरनगर दंगों के जख्मों को कुरेद कर याद दिलाया. सीएम की जनसभा के मंच से डॉ. संजीव बालियान ने लोगों से कहा कि विधायक बनाओगे तो सांसद भी मिलेगा. इसके बाद भी जयंत चौधरी के सियासी चक्रव्यूह को भेद नहीं सके.
खतौली विधानसभा सीट पर अभी तक आरएलडी सैनी समुदाय का दांव खेलती रही है, लेकिन यह फॉर्मूला 2017 के बाद से सफल नहीं रहा. इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में सपा से आए राजपाल सैनी को खतौली से प्रत्याशी बनाया गया था और उससे पहले 2017 में शहनवाज राणा को चुनाव लड़ाया था. राजपाल सैनी और शाहनवाज राणा दोनों ही बीजेपी के विक्रम सैनी से हार गए थे. इस हार की एक वजह सैनी समुदाय के वोटों का ज्यादातर हिस्सा बीजेपी के साथ गया था. यही वजह रही कि इस बार जयंत ने 2012 के फॉर्मूले पर गुर्जर दांव खेला है.
गाजियाबाद के रहने वाले मदन भैया साल 1991, 1993, 2002 और 2007 में विधायक रहे, लेकिन वो हर बार अलग-अलग सीट और पार्टी से जीत दर्ज की है. मदन भैया 2022 का चुनाव लोनी सीट से रालोद के टिकट पर ही लड़ा था, लेकिन बीजेपी के नंद किशोर गुर्जर से हार गए थे. गुर्जर समुदाय से आने वाले मदन भैया खतौली सीट पर उतरकर जयंत चौधरी ने बीजेपी को चारो खाने चित कर दिया.
2012 के फॉर्मूले से मिली जीत
खतौली विधानसभा सीट पर बीजेपी के खिलाफ आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी ने मदन भैया पर दांव लगाकर 2012 वाला सियासी दांव चला, जो कामयाब रहा. आरएलडी ने 2012 के चुनाव में खतौली सीट पर गुर्जर समुदाय से आने वाले करतार सिंह भड़ाना को उतारकर अपना कब्जा जमाया था. इसी फॉर्मूले पर आरएलडी ने गुर्जर समुदाय से आने वाले मदन भैया को प्रत्याशी बनाया और जाट-गुर्जर-मुस्लिम-दलित समीकरण के दम पर खतौली सीट पर जीत का परचम फहराने में कामयाब रही.
खतौली सीट का सियासी समीकरण
खतौली विधानसभा सीट के सामाजिक समीकरण में भी गुर्जर और सैनी समाज का दबदबा है. इस सीट पर करीब तीन लाख मतदाता है, जिनमें 27 फीसदी मुस्लिम 73 फीसदी हिंदू मतदाता हैं. 80 हजार के करीब मुस्लिम वोटर हैं, जो किसी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं तो 40 हजार दलित मतदाता हैं. सैनी समुदाय के 35 हजार वोट हैं तो जाट 27 हजार हैं और गुर्जर भी करीब 29 हजार हैं. साथ ही ब्राह्मण 12 हजार और राजपूत वोट 5 हजार हैं और 10 हजार कश्यप वोटर हैं. इस तरह से जयंत ने गुर्जर समुदाय के कैंडिडेट को उतारकर जाट-मुस्लिम के साथ गुर्जरों को भी मिला लिया और दलित वोट भी जुटा लिए.
आरएलडी का यह समीकरण सिर्फ खतौली सीट पर ही नहीं बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आने वाले चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है. जयंत चौधरी ने मदन भैया के जरिए बड़ा दांव चला है. जयंत चौधरी 2022 चुनाव के बाद से ही अपने सियासी समीकरण को दुरुस्त करने में लगे हैं, जिसके तहत जाट-मुस्लिम के साथ-साथ दलित और अन्य जातियों को जोड़ने की कवायद कर रहे हैं. ऐसे में गुर्जर समुदाय को भी साथ लेने की रणनीति है.
मुजफ्फरनगर में गुर्जर समाज के चंदन चौहान आरएलडी के सबसे बड़े नेता हैं, जो मीरापुर से विधायक हैं और अब मदन भैया भी विधायक बन गए हैं. इस तरह से आरएलडी ने गुर्जर समुदाय का विश्वास जीतने की कोशिश में लगी है, क्योंकि यूपी में तीन फीसदी गुर्जर समुदाय है, लेकिन पश्चिमी यूपी की कई सीटों पर निर्णायक भूमिका में है. बसपा उपचुनाव नहीं लड़ी तो मायावती के दलित वोटबैंक को साधने के लिए जयंत चौधरी ने चंद्रशेखर आजाद को गठबंधन में साथ लेकर चलने का दांव चला है.
खतौली उपचुनाव सीट पर सपा-आरएलडी गठबंधन की जीत की कहानी लिखने उतरे जयंत-चंद्रशेखर ने मुजफ्फरनगर से दिल्ली पर निशाना साधकर गठबंधन का नया फॉर्मूला सामने रखा. चंद्रशेखर के जरिए गठबंधन दलित वोटों को साधने में जुटा है. खतौली में यह फॉर्मूला कामयाब रहा. चंद्रशेखर आजाद अब 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में सपा-आरएलडी गठबंधन का हिस्सा होंगे. यह बात खुद जयंत कह चुके हैं कि चंद्रशेखर की गठबंधन में एंट्री हो चुकी है.
अखिलेश-जयंत चौधरी और चंद्रशेखर की तिकड़ी आगामी लोकसभा चुनाव में एक साथ दिखेगी. यह पश्चिम यूपी में बीजेपी और बीएसपी दोनों के लिए राजनीतिक तौर पर कड़ी चुनौती हो सकती है. पश्चिम यूपी की सियासत में जाट, मुस्लिम और दलित काफी अहम भूमिका अदा करते हैं. आरएलडी का कोर वोटबैंक जहां जाट माना जाता है तो सपा का मुस्लिम है. चंद्रशेखर आजाद ने दलित नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाई है. इस तरह चंद्रशेखर-जयंत-अखिलेश दलित-मुस्लिम-जाट-गुर्जर का मजबूत कॉम्बिनेशन आगे काम आ सकता है.
बता दें कि पश्चिम यूपी में जाट 20 फीसदी के करीब हैं तो मुस्लिम 30 से 40 फीसदी और दलित समुदाय भी 25 फीसदी के ऊपर है तो गुर्जर तीन फीसदी है पर पश्चिमी में करीब 15 फीसदी हैं. पश्चिम यूपी में जाट-मुस्लिम-दलित-गुर्जर समीकरण बनता है कि बीजेपी के साथ-साथ बसपा के लिए भी चुनौती खड़ी हो जाएगी. खतौली में मिली आरएलडी की जीत कुछ ऐसे ही संकेत दे रही है, क्योंकि निकाय चुनाव सिर पर है और 2024 के लोकसभा चुनाव में डेढ़ साल का ही वक्त बाकी है.