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यूपी उपचुनाव: मैनपुरी-खतौली-रामपुर के नतीजों से मिलेंगे सपा के भविष्य से जुड़े इन 3 सवालों के जवाब

मैनपुरी लोकसभा और खतौली-रामपुर विधानसभा उपचुनाव के नतीजे मुलायम सिंह के गुजरने के बाद अखिलेश के नेतृत्व की परीक्षा है. मैनपुरी में मुलायम की विरासत की परीक्षा होगी तो खतौली सीट पर जयंत चौधरी और अखिलेश की दोस्ती की परीक्षी होगी जबकि रामपुर सीट पर आजम खान के साथ-साथ मुस्लिम सियासत का भी लिटमस टेस्ट होना है.

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शिवपाल यादव और अखिलेश यादव
शिवपाल यादव और अखिलेश यादव

उत्तर प्रदेश के मैनपुरी लोकसभा सीट और रामपुर व खतौली विधानसभा उपचुनाव के लिए मतदान हो रहे हैं. यह उपचुनाव भले ही तीन सीटों के लिए हो, लेकिन इसके संदेश सूबे के सियासी भविष्य का फैसला करेंगे. इसे बीजेपी और सपा के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले का लिटमस टेस्ट माना जा रहा है. सपा के सबसे मजबूत दुर्ग मैनपुरी-रामपुर को ढहाकर बीजेपी यूपी फतह का संदेश देना चाहती है जबकि खतौली सीट पर बीजेपी को मात देने के लिए आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी ने चक्रव्यूह रचा है. इस तरह से उपचुनाव में बीजेपी ही नहीं बल्कि अखिलेश-जयंत-शिवपाल की एकता की भी असल टेस्ट होना है? 

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यूपी के नगर निकाय और लोकसभा चुनाव 2024  से ठीक पहले होने वाले मैनपुरी, रामपुर खतौली उपचुनाव पर पूरे देशभर  की निगाहें लगी हुई है. मैनपुरी लोकसभा सीट पर मुलायम सिंह यादव के निधन के चलते उपचुनाव हो रहा है. आजम खान और विक्रम सैनी को कोर्ट से सजा मिलने के चलते रामपुर और खतौली सीट पर उपचुनाव हो रहे हैं. सपा के लिए रामपुर और मैनपुरी सीट को बचाए रखने की चुनौती है तो खतौली सीट के साथ-साथ बाकी दो सीटें पर बीजेपी अपनी झोली में डालना चाहती है. 

1- सपा अपने गढ़ को सुरक्षित रख पाएगी?

मैनपुरी सीट पर सपा ने डिंपल यादव को मैदान में उतारकर सैफई परिवार की साख दांव पर लगा रखी है तो बीजेपी ने पूर्व सांसद रघुराज शाक्य पर दांव लगाया है. रामपुर विधानसभा सीट पर सपा ने आजम खान के करीबी आसिम रजा को उतारा है तो बीजेपी से आकाश सक्सेना चुनाव लड़ रहे हैं. खतौली सीट पर बीजेपी ने विक्रम सैनी की पत्नी राजकुमारी सैनी पर दांव लगाया जबकि आरएलडी ने मदन भैया को उतारा है. उपचुनाव में सपा और आरएलडी एकजुट हैं तो दलित नेता चंद्रशेखर आजाद और जेडीयू का भी समर्थन उन्हें प्राप्त है. 

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मुलायम सिंह यादव की कर्मभूमि रही मैनपुरी सीट को बचाने के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने किसी तरह की कोई भी गुंजाइश नहीं छोड़ी है. डिंपल यादव के नामांकन के बाद से अखिलेश मैनपुरी में डेरा डाले हैं और चाचा शिवपाल यादव के साथ भी अपने सारे गिले-शिकवे दूर कर लिए हैं. बीते चुनाव में एक-दो सभाएं करने वाले सैफई परिवार ने इस बार गांव-गांव की दौड़ लगाई है और घर-घर जाकर वोट मांगे हैं.

डिंपल यादव को प्रत्याशी घोषित के करने के बाद से ही अखिलेश यादव ने पूरे उपचुनाव की कमान खुद संभाल ली. चाचा शिवपाल यादव के साथ अखिलेश का मिलन सुखियां बना. ऐसा प्रचार अखिलेश यादव ने करहल विधानसभा सीट पर अपने खुद के चुनाव में भी नहीं किया था. इसके अलावा मैनपुरी सीट पर अखिलेश-शिवपाल ने सिर्फ यादव और मुस्लिम वोटों को ही नहीं बल्कि ब्राह्मण, गैर-यादव ओबीसी और दलित समुदाय के वोटों को साधने के लिए भी कवायद करते नजर आए. सपा ने मैनपुरी सीट को बचाए रखने के लिए अपने नेताओं की पूरी फौज उतार रखी थी. 

बीजेपी-सपा के बीच कांटे की टक्कर

मैनपुरी सीट पर सपा और बीजेपी ही मैदान में है, कांग्रेस और बसपा ने अपने कैंडिडेट नहीं उतारे हैं. बीजेपी ने भी इस बार मैनपुरी के चुनावी इतिहास का सबसे जबरदस्त प्रचार किया है. बीजेपी ने अखिलेश यादव के इस बदले अंदाज को भी प्रहार का हथियार बनाया. बीजेपी नेताओं ने हर मंच से कहा कि अखिलेश के सामने हार दिख रही है, इसलिए गांव-गांव घूमने को मजबूर हुए हैं. इसके चलते ही बीजेपी और सपा के बीच कांटे का मुकाबला होना तय माना जा रहा है. 

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बीजेपी और सपा के लिए मैनपुरी का महत्व 

सपा का गढ़ माने जाने वाले ज्यादातर लोकसभा क्षेत्रों पर बीजेपी अपनी जीत का परचम लहरा चुकी है. कन्नौज, फिरोजाबाद, फर्रुखाबाद, बदायूं, इटावा, आजमगढ़ और रामपुर जैसे इलाके शामिल हैं. मैनपुरी सैफई परिवार की घर की सीट मानी जाती है. मुलायम सिंह से लेकर धर्मेंद्र यादव और तेज प्रताप यादव तक सांसद रहे हैं. यही वजह है कि बीजेपी यह सीट जीतकर पूरे देश में नया संदेश देना चाहती है. 

वहीं, सपा घर की सीट बचाकर अपना दबदबा कायम रखना चाहती है. मुलायम सिंह यहां से खुद पांच बार सांसद रहे. सपा यह संदेश देने की कवायद में है कि मुलायम सिंह के नहीं रहने पर भी धाक बरकरार है. मैनपुरी सीट के बहाने प्रत्यक्ष रूप से सैफई परिवार की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है. ऐसे में मैनपुरी खोने का सीधा असर अखिलेश के सियासी भविष्य पर भी पड़ना तय माना जा रहा है. इसीलिए लंबे समय से चली आ रही राजनीतिक तल्खी को भुलाते हुए अखिलेश ने चाचा शिवपाल यादव को भी साथ लिया है. इस लिए अखिलेश के साथ-साथ शिवपाल का भी सियासी भविष्य दांव पर लगा है. 

दूसरा सवाल- रामपुर से तय होगी मुस्लिम सियासत?

रामपुर विधानसभा सीट सपा की मजबूत सीट मानी जाती है. सपा ने यहां से आसिम रजा को उतारा है तो बीजेपी से आकाश सक्सेना मैदान में हैं. बीजेपी इस सीट पर हरहाल में अपना कब्जा जमाना चाहती है, जिसके लिए आजम खान के कई करीबी मुस्लिम नेताओं को अपने साथ मिलाया है. ऐसे में रामपुर उपचुनाव के नतीजे तय करेंगे कि सपा के परंपरागत वोटर मुस्लिम क्या उसके साथ रह पाएंगे, क्योंकि रामपुर लोकसभा उपचुनाव बीजेपी पहले ही जीत चुकी है और अब विधानसभा सीट को भी अपने नाम करने के लिए पूरी ताकत झोंक रखी है. 

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रामपुर विधानसभा सीट पर 50 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम मतदाता है, जिनके दम पर आजम खान 70 के आखिरी दशक से लगातार जीत दर्ज कर रहे हैं. बीजेपी कभी भी यह सीट नहीं जीत सकी है. आजम खान सिर्फ दो बार इस सीट से चुनाव हारे हैं, लेकिन इस बार उनके सामने अपने दुर्ग को बचाए रखने चुनौती है. आजम के तमाम सिपहसलार साथ बीजेपी के खेम में खड़े हुए हैं, जिसके चलते उनके लिए यह सीट बचाए रखना मुश्किल लग रहा है. हालांकि, सपा प्रमुख अखिलेश यादव और दलित नेता चंद्रशेखर आजाद ने यहां सपा के समर्थन में रैली की है. 

तीसरा सवाल- खतौली में जयंत चौधरी का प्रयोग होगा सफल?

खतौली विधानसभा सीट पर बीजेपी के खिलाफ जयंत चौधरी ने गुर्जर समुदाय के मदन भैया को उतारकर जबरदस्त तरीके से सियासी चक्रव्यूह रचा है. खतौली सीट मुजफ्फरनगर जिले में आती है, यहां पर जाट-गुर्जर-सैनी-मुस्लिम वोटर काफी बड़ी संख्या में है. इसी समीकरण को देखते हुए जयंत ने इस बार सैनी के बजाय गुर्जर समुदाय पर दांव खेला है. खतौली सीट के जरिए जयंत ने अपने सियासी कैंबिनेशन को मजबूत करने की रणनीति अपनाई है, जिसके लिए उन्हें मदन भैया के जरिए गुर्जर-मुस्लिम-जाट समीकरण बनाया है. इसके अलावा दलित नेता चंद्रशेखर का समर्थन जुटाकर दलित मतों को भी साधने की कवायद की है. 

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दरअसल, खतौली विधानसभा सीट पर अभी तक आरएलडी सैनी समुदाय का दांव खेलती रही है, लेकिन यह फॉर्मूला 2017 के बाद से सफल नहीं रहा. इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में सपा से आए राजपाल सैनी को खतौली से प्रत्याशी बनाया था और उससे पहले 2017 में शहनवाज राणा को चुनाव लड़ाया था. राजपाल सैनी और शाहनवाज राणा दोनों ही बीजेपी के विक्रम सैनी से हार गए थे. इस हार की एक वजह यह है कि सैनी समुदाय के वोटों का ज्यादातर हिस्सा बीजेपी के साथ गया था. जयंत चौधरी ने पूर्व विधायक मदन भैया को खतौली विधानसभा सीट से प्रत्याशी बनाया है.

जयंत चौधरी ने गुर्जर समुदाय से आने वाले मदन भैया को उतारकर अपना राजनीतिक एजेंडा भी साफ कर दिया है, जिससे खतौली उपचुनाव का सियासी पारा और चढ़ गया था. खतौली उपचुनाव जयंत चौधरी और केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान के लिए भी प्रतिष्ठा का सवाल बना हुआ है. खतौली विधानसभा सीट मुजफ्फरनगर लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत ही आता है, यहां पर 2019 के लोकसभा चुनाव में संजीव बालियान ने आरएलडी के चौधरी अजीत सिंह को हरा दिया था. बालियान की जीत में खतौली विधानसभा सीट पर बीजेपी को मिले वोटों का महत्वपूर्ण योगदान रहा था. यही वजह है कि बालियान इस सीट को हरहाल में बीजेपी के झोली में रखना चाहते हैं. 

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खतौली से पश्चिमी यूपी का लिटमस टेस्ट 

खतौली सीट के उपचुनाव से भले ही एक विधायक चुना जाए, लेकिन इसका सियासी संदेश काफी दूर तक जाएगा. माना जा रहा कि उपचुनाव के जरिए पश्चिमी यूपी के सियासी मिजाज का भी टेस्ट हो जाएगा. जयंत चौधरी 2022 चुनाव के बाद से ही अपने सियासी समीकरण को दुरुस्त करने में लगे हैं, जिसके तहत जाट-मुस्लिम के साथ-साथ दलित और अन्य जातियों को जोड़ने की कवायद कर रहे हैं. ऐसे में गुर्जर समुदाय को भी साथ लेने की रणनीति है. ऐसे में खतौली सीत के नतीजे यह तय करेंगे कि पश्चिमी यूपी में बीजेपी की पकड़ है या फिर जयंत चौधरी अपना गढ़ वापस छीनने में कामयाब रहते हैं? 

 

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