23 Oct 2024
आपने हमेशा देखा है कि रेलवे ट्रैक्स पर छोटी-छोटी गिट्टियां या पत्थर बिछे होते हैं. वहीं अगर बात मेट्रो की करें तो मेट्रो ट्रैक्स पर ये पत्थर नहीं बिछे होते हैं.
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क्या आपने कभी सोचा है कि इन दोनों के ट्रैक्स में ये अंतर क्यों होता है? आइए जानते हैं.
सबसे पहले तो यह समझ लीजिए कि रेलवे ट्रैक पर बिछे इन पत्थरों को बैलेस्ट कहा जाता है. जब रेल इन ट्रैक पर चलती है तो तेज कंपन और काफी शोर होता है.
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ट्रैक पर पड़ी ये गिट्टियां इस शोर को कम करती हैं और कंपन के समय ट्रैक के नीचे की पट्टी, जिसे स्लीपर्स कहते हैं को फैलने से रोकती हैं.
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हालांकि, ट्रैक पर पड़ी इन गिट्टियों के रख रखाव में काफी खर्चा होता है. कई बार तो इनके रख-रखाव की प्रक्रिया के चलते रेलवे ट्रैक को ब्लॉक तक करना पड़ जाता है.
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दरअसल जब पटरी में पत्थरों का इस्तेमाल किया जाता है. तो पत्थर धीरे-धीरे बिखरते रहते हैं. जिसकी वजह से रेगुलर रखरखाव और मरम्मत की जरूरत पड़ती है.
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मेट्रो ट्रैक्स बहुत व्यस्त होते हैं, इसीलिए इनको बार-बार ब्लॉक नहीं किया जा सकता है इसीलिए इसे बैलेस्ट के बिना बनाया जाता है.
इसलिए छोटी दूरी के ट्रैक्स पर कंक्रीट से स्लीपर्स को फिक्स कर दिया जाता है और पत्थरों का इस्तेमाल नहीं किया जाता. दूसरी तरफ पत्थर सस्ते होते हैं. हजारों किलोमीटर लंबी पटरियों को कंक्रीट से पाटना किफायती नहीं रहता. इसलिए वहां पत्थरों का इस्तेमाल किया जाता है
शहरी क्षेत्रों में मेट्रो ट्रैक कई बार एलीवेटेड (ऊंचे) या अंडरग्राउंड होते हैं, जहां गिट्टी डालने की जगह सीमित होती है ऐसे में इन जगहों पर गिट्टी वाले ट्रैक का मेंटेनेंस करना सम्भव नहीं हैं.
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मेट्रो ट्रैक्स को बनाने में खर्चा थोड़ा ज्यादा होता है पर इनका मेंटेनेंस बिल्कुल न के बराबर होता है. गिट्टी रहित इन ट्रैक्स में कंपन को अवशोषित करने के लिए अलग-अलग प्रकार के डिज़ाइन होते हैं.
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