ये हुक्म है कि अंधेरे को रोशनी समझो... जेहरा निगाह के चुनिंदा शेर

22 Feb 2024

By अतुल कुशवाह

शायरा जेहरा निगाह का जन्म 14 मई 1936 को भारत के हैदराबाद में हुआ था. विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया. वे मशहूर शायरा और पटकथा लेखिका हैं. उन्होंने कई सीरियल भी लिखे.

शायरा जेहरा निगाह

Photo: Social Media/Pexels

ये उदासी ये फैलते साए हम तुझे याद करके पछताए गुल ही उकता गए हैं गुलशन से बागबां से कहो न घबराए.

नहीं नहीं हमें अब तेरी जुस्तुजू भी नहीं तुझे भी भूल गए हम तेरी खुशी के लिए कहां के इश्को मोहब्बत किधर के हिज्र ओ विसाल अभी तो लोग तरसते हैं जिंदगी के लिए.

बस्ती में कुछ लोग निराले अब भी हैं देखो खाली दामन वाले अब भी हैं देखो वो भी हैं जो सब कह सकते थे देखो उनके मुंह पर ताले अब भी हैं.

इस उम्मीद पे रोज चराग जलाते हैं आने वाले बरसों बाद भी आते हैं देखते देखते इक घर के रहने वाले अपने अपने खानों में बंट जाते हैं.

नक्श की तरह उभरना भी तुम्हीं से सीखा रफ्ता रफ्ता नजर आना भी तुम्हीं से सीखा छोटी सी बात पे खुश होना मुझे आता था पर बड़ी बात पे चुप रहना तुम्हीं से सीखा.

ये हुक्म है कि अंधेरे को रोशनी समझो मिले नशेब तो कोहो दमन की बात करो खिजां ने आ के कहा मेरे गम से क्या हासिल जहां बहार लुटी उस चमन की बात करो. (नशेब- ढलान), (कोहो दमन- पर्वत घाटी)

रौनकें अब भी किवाड़ों में छुपी लगती हैं महफिलें अब भी उसी तरह सजी लगती हैं रोशनी अब भी दराजों से उमड़ आती है खिड़कियां अब भी सदाओं से खुली लगती हैं.

ये सच है यहां शोर जियादा नहीं होता घर बार के बाजार में पर क्या नहीं होता शब भर का तेरा जागना अच्छा नहीं जेहरा फिर दिन का कोई काम भी पूरा नहीं होता.