शायर मजरूह सुल्तानपुरी का मूल नाम असरार उल हसन खान था. उनका जन्म यूपी के आजमगढ़ के निजामाबाद गांव में 1 अक्टूबर 1919 को हुआ था. उनकी पुश्तैनी जमीन सुल्तानपुर में थी.
Photo: Pexels
कोई हमदम न रहा कोई सहारा न रहा हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा शाम तन्हाई की है आएगी मंजिल कैसे जो मुझे राह दिखा दे वही तारा न रहा.
यूं तो आपस में बिगड़ते हैं खफा होते हैं मिलने वाले कहीं उल्फत में जुदा होते हैं ऐसे हंस हंस के न देखा करो सबकी जानिब लोग ऐसी ही अदाओं पे फिदा होते हैं.
हम हैं मता ए कूचा ओ बाजार की तरह उठती है हर निगाह खरीदार की तरह 'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल ए वफा का नाम हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह.
हमारे बाद अब महफिल में अफसाने बयां होंगे बहारें हमको ढूंढे़ंगी न जाने हम कहां होंगे न हम होंगे न तुम होगे न दिल होगा मगर फिर भी हजारों मंजिलें होंगी हजारों कारवां होंगे.
ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहां कोई न हो अपना पराया मेहरबां ना-मेहरबां कोई न हो जाकर कहीं खो जाऊं मैं नींद आए और सो जाऊं मैं दुनिया मुझे ढूंढ़े मगर मेरा निशां कोई न हो.
डरा के मौजो तलातुम से हमनशीनों को यही तो हैं जो डुबोया किए सफीनों को जमाले सुब्ह दिया रू ए नौ बहार दिया मेरी निगाह भी देता खुदा हसीनों को.
आबला पा कोई गुजरा था जो पिछले सन में सुर्ख कांटों की बहार आई है अब के बन में देखना दीदा वरो आमद ए तूफान तो नहीं टपकी है दर्द की इक बूंद मेरे दामन में.
गो रात मेरी सुब्ह की महरम तो नहीं है सूरज से तेरा रंगे हिना कम तो नहीं है कुछ जख्म ही खाएं चलो कुछ गुल ही खिलाएं हर चंद बहारां का ये मौसम तो नहीं है.