अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी हो चुकी है. उसके मजबूत होने से भारत की चिंताएं बढ़ गई हैं. सुरक्षा के मोर्चे पर लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे गुट भारत की चुनौतियों को और बढ़ाएंगे. तालिबान के सत्ता में आने का अर्थ है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसियों की भूमिका बढ़ जाएगी. भारत की भूमिका सिमट जाएगी.
अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे का मतलब है पाकिस्तान का रणनीतिक रूप से मजबूत होना. लेकिन अब तालिबान अफगानिस्तान में सच्चाई है. इससे इनकार करना मुश्किल है, और विश्लेषकों का मानना है कि भारत को भी अपनी रणनीति उसी लिहाज से तय करनी होगी.
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भारत के लिए अफगानिस्तान काफी मायने रखता है. तालिबान के सिर उठाते ही कश्मीर में सुरक्षा संकट बढ़ जाता है. पाकिस्तान की तालिबान से नजदीकी होने से भारत के हितों को नुकसान होने की स्वाभाविक गुंजाइश रहती है. अफगानिस्तान में पिछले दशकों में भारत की ओर से किए विकास कार्यों को बचाना भी भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है. भारत ने अफगानिस्तान में कई विकास कार्यों सहित वहां की नई संसद के निर्माण में भी मदद की है. एक अनुमान के मुताबिक भारत अफगानिस्तान में 3 बिलियन डॉलर निवेश कर चुका है.
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दिल्ली यूनिवर्सिटी के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में राजनीति विज्ञान विभाग में अस्सिटेंट प्रोफेसर राजन झा मानते हैं कि भारत को अमेरिकी छाया से निकल कर अपनी नीतियां तय करनी होंगी, बल्कि वह यहां तक कहते हैं कि भारत को तालिबान को लेकर सकारात्मक अप्रोच अपनाने में संकोच नहीं होना चाहिए.
(भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर, फोटो-PTI)
राजन झा कहते हैं, 'अफगानिस्तान पर 2001 में हमला करने के दो दशक बाद अमेरिका ने आखिरकार देश से अपने सभी सैनिकों को करीब-करीब वापस बुला चुका है. अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी को अपने मिशन के पूरा होने के तौर पर प्रचारित करने की कोशिश की. उसने जिन परियोजनाओं को शुरू किया था, उनमें से वो किसी को पूरा नहीं कर पाया. अफगानिस्तान फिर गृहयुद्ध के कगार पर खड़ा है.'
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राजन झा ने कहा, 'देश का लोकतंत्रीकरण करने में अपनी विफलताओं और लोगों के बुनियादी मानवाधिकारों की गारंटी के बावजूद, अमेरिका मुख्य रूप से बढ़ते घरेलू दबाव और विश्व राजनीति में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति का विस्तार नहीं कर सका. अफगानिस्तान में संस्थाओं को खड़ा करने, सेना को मजबूत बनाने, महिलाओं को अधिकार दिलाने, प्रगतिशील समाज खड़ा करने, सहित अमेरिका हर मोर्चे पर विफल रहा.'
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अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार राजन कहते हैं कि जिस तरह चीन ने यह स्वीकार किया है कि तालिबान अफगानिस्तान में राजनीतिक और सैन्य ताकत है, भारत को भी यह स्वीकार करना होगा. इतिहास बताता है कि अफगानिस्तान में कोई सैन्य हस्तक्षेप कामयाब नहीं रहा है. यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि मानवाधिकार अफगानिस्तान के राष्ट्र निर्माण में शामिल हो.
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राजन झा ने कहा, 'दूसरे विश्व युद्ध के बाद लोकतंत्र के वेस्टर्न मॉडल को ही नेशन बिल्डिंग का आधार माना गया. उपनिवेशवाद की चपेट से आजाद देशों के पास इसके अलावा कोई दूसरा ऑप्शन भी नहीं था. लेकिन दुनिया में कई जगह राष्ट्र निर्माण की इस प्रक्रिया को सफलता नहीं मिल सकी. अफगानिस्तान का तालिबान शासन उन्हीं में से एक है. तालिबान को भी इन अधिकारों को सुनिश्चित करना ही होगा.
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राजन झा की दलील है कि तालिबान भारत को आश्वासन दे चुका है कि वो अफगानिस्तान की जमीन को उसके खिलाफ किसी हमले के लिए इस्तेमालन नहीं होने देगा. लिहाजा भारत को भी तालिबान को लेकर अमेरिकी छाया से निकलना चाहिए और मौजूदा हालात में सकरात्मक नजरिया अपनाना चाहिए.
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बहरहाल, भारत ईरान और रूस के साथ मिलकर भी अफगानिस्तान समस्या का समाधा तलाशने में जुटा हुआ है. ऐसी रिपोर्ट्स आ चुकी हैं कि भारत तालिबान से संपर्क कर चुका है. हालांकि तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने इंडिया टुडे से इस बात से इनकार किया था कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने तालिबान से कतर में मुलाकात की थी. विश्लेषकों का कहना है कि भारत को वास्तव में कामयाबी तभी मिल सकती है जब वह चीन के साथ मिलकर इस मामले का हल निकालने की कोशिश करे.
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