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विश्व

ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन की जीत से क्यों डरे हुए हैं मुसलमान?

ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन की जीत से क्यों डरे हुए हैं मुसलमान?
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ब्रिटेन में कंजरवेटिव पार्टी को भारी बहुमत मिल चुका है. पीएम बोरिस जॉनसन ने कहा है कि उन्हें अब एक नया जनादेश मिला है जिससे वह ब्रिटेन को यूरोपीय यूनियन से अलग करने वाले ब्रेक्जिट को लागू कर सकेंगे.
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न्यूज एजेंसी आईएएनएस ने ब्रिटिश मीडिया के हवाले से बताया कि इन चुनाव परिणामों के बाद वहां के मुस्लिमों को लेकर भी बातें शुरू हो गई हैं. ब्रिटिश-मुस्लिमों का कहना है कि नई जॉनसन सरकार के अंदर उनके समुदाय को अपने भविष्य की चिंता है.
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मेट्रो यूके की एक रिपोर्ट के मुताबिक बोरिस पर व्यक्तिगत रूप से इस्लामोफोबिया के आरोप लगते रहे हैं और इसी क्रम में ब्रिटेन में ब्रिटिश-मुसलमानों के स्थान को आश्वस्त करने के लिए मुस्लिम काउंसिल ऑफ ब्रिटेन (एमसीबी) ने प्रधानमंत्री जॉनसन से मुलाकात की है.
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मुस्लिम काउंसिल ऑफ ब्रिटेन के महासचिव हारुन खान ने कहा कि जहां एक ओर सत्तारूढ़ कंजरवेटिव अपनी जीत का जश्न मना रही है, वहीं दूसरी ओर देश भर में मुस्लिम समुदाय में एक 'स्पष्ट डर' दिखाई दे रहा है.
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उन्होंने आगे कहा कि हमारी सत्तारूढ़ पार्टी और राजनीति में कट्टरता की चिंताओं के साथ हमने चुनाव प्रचार अभियान में प्रवेश किया था और अब सरकार पहले से ही इस्लामोफोबिया की शिकार है.
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हारुन खान ने यह भी कहा कि जॉनसन को एक बार फिर भारी मतों के साथ सत्ता पर काबिज होने का मौका मिला है और हम प्रार्थना करते हैं कि वह पूरे ब्रिटेन के लिए कार्य करेंगे.
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बता दें कि मार्ग्रेट थैचर की 1987 की जीत के बाद से जॉनसन की कंजरवेटिव पार्टी की यह सबसे बड़ी जीत है. इसके उलट लेबर पार्टी की हालत 1930 के बाद से सबसे अधिक खस्ता हालत देखने को मिली है.
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पांच साल में तीसरी बार चुनाव: 

‘ब्रेक्जिट’ के मुद्दे पर 2016 में हुए जनमत संग्रह के बाद से देश की राजनीति शिथिल पड़ गई है. पांच साल से कम समय में तीसरी बार आम चुनाव हो रहे हैं. इसके साथ ही 1923 के बाद पहली बाद सर्दियों के महीने दिसंबर में चुनाव कराए गए.
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क्या है ब्रेक्जिट? 

ब्रेक्जिट यानी ब्रिटेन+एक्जिट. ब्रेक्जिट का सीधा सा अर्थ है ब्रिटेन का यूरोपियन यूनियन से बाहर जाना. पूरी दुनिया में इस बात को लेकर असमंजस है कि ब्रिटेन अब EU में रहेगा या नहीं. बोरिस जॉनसन की पार्टी को मिल रहे रुझानों से जाहिर हो रहा है कि वह ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से अलग कर देंगे.
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क्यों उठी ब्रेक्जिट की मांग: 

इसकी शुरुआत 2008 में हुई जब ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ गई थी. देश में महंगाई बढ़ गई थी, बेरोजगारी बढ़ गई थी, जिसका समाधान निकालने और अर्थव्यवस्था को ठीक करने के प्रयास चल रहे थे.
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इसी बीच यूनाइटेड किंगडम इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकेआईपी) ने 2015 में हो रहे चुनावों के दौरान यह मुद्दा उठाया कि यूरोपीय यूनियन ब्रिटेन की आर्थिक मंदी को कम करने के लिए कुछ नहीं कर रहा है. उनका कहना था कि इसकी वजह से ही ब्रिटेन की स्थिति लगातार खराब हो रही है.

उस दौरान आर्थिक मंदी को कारण मानते हुए वजह बताई गई कि ब्रिटेन को हर साल यूरोपियन यूनियन के बजट के लिए 9 अरब डॉलर देने होते हैं. इसकी वजह से ब्रिटेन में बिना रोक-टोक के लोग बसते हैं. फ्री वीजा पॉलिसी से ब्रिटेन को भारी नुकसान हो रहा है.
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ब्रेक्जिट का विरोध भी हुआ: 

वहीं, इससे उलट ब्रिटेन के कई लोग यूरोपीय यूनियन से हो रहे फायदों के बारे में जानते हैं और ब्रेक्जिट के फैसले को गलत बताते हैं. ब्रेक्जिट का विरोध करने वाले लोगों की दलील है कि इससे दूसरे यूरोपिय देशों से कारोबार पर बुरा असर होगा. ब्रिटेन का सिंगल मार्केट सिस्टम खत्म हो जाएगा और ब्रिटेन की जीडीपी को भारी नुकसान होगा.
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डेविड कैमरन के बाद बने दोनों पीएम टेरेसा मे और बोरिस जॉनसन ने ब्रेक्जिट को अपना मुद्दा बनाया और इसे लागू करने की शर्त पर प्रधानमंत्री का पदभर संभाला. लेकिन इनमें से टेरेसा मे ब्रेक्जिट पर बहुमत हासिल नहीं कर पाईं और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.
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2016 में ब्रिटेन में जनमत संग्रह हुआ था, जिसमें बहुमत ब्रिटेन का यूरोपीय यूनियन से अलग होने के पक्ष में था. ब्रेक्जिट पर जनमत संग्रह के रुझान के बाद तत्कालीन कैमरन सरकार को इस्तीफा देना पड़ा था. तब कंजरवेटिव पार्टी की टेरेसा मे की अगुवाई में सरकार बनी. लेकिन ब्रेक्जिट के लिए वह आवश्यक समर्थन नहीं जुटा सकीं और अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.
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इसके बाद बोरिस जॉनसन प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी. 31 अक्टूबर की अंतिम समयसीमा तक ब्रेक्जिट लागू करने में नाकाम रहने के बाद जॉनसन ने 12 दिसंबर को चुनाव कराने की घोषणा कर दी थी.
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