शिया मुसलमानों के पवित्र दिन आशूरा (मुहर्रम का दसवां दिन) पर अफगानिस्तान में दो मस्जिदों में हुए बम धमाकों में कम से कम 54 व्यक्तियों की मौत हो गई है. मरने वालों में बड़ी संख्या में बच्चे भी शामिल हैं जो आशूरा के मौके पर निकलने वाला जुलुस देखने के लिए मस्जिदों में आए थे.
पुलिस ने बताया कि पहला धमाका काबुल में और दूसरा मजार-ए-शरीफ में हुआ. मस्जिद में विस्फोट के बाद वहां हरे रंग का सलवार पहने एक बच्ची का शव पड़ा था उसके आसपास लोगों के शरीर के चिथड़े पड़े हुए थे. वहां घायल हुए लोग मदद के लिए पुकार रहे थे. वहां मौजूद लोग विस्फोट में चिथड़े हो चुके शवों में से अपनों को खोजने की कोशिश करते नजर आए.
एक अधिकारी ने बताया कि मध्य काबुल में एक मस्जिद में आशूरा का शोक मनाने के लिए शिया समुदाय के लोग एकत्र हुए थे तभी उसके गेट के पास विस्फोट हो गया जिसमें बच्चों समेत कम से कम 54 लोगों की मौत हो गई.
स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रवक्ता गुलाम साखी कारगर नूरुघली ने कहा, ‘54 की मौत हो गई है और 150 अन्य घायल हैं.’ काबुल पुलिस ने एक बयान में कहा, ‘एक आत्मघाती हमलावर ने स्वयं को अबू-उल फाजिल मस्जिद के पास उड़ा लिया.’ नाम न बताने की शर्त पर एक सुरक्षा अधिकारी ने बताया कि आशंका है कि हमलावर काबुल के दक्षिण में स्थित लोगार प्रांत से शिया समुदाय के लोगों के साथ आया था.
मजार-ए-शरीफ में एक अन्य मस्जिद में हुए एक अन्य विस्फोट में चार लोगों की मौत हो गई. अभी इस बात की पुष्टि नहीं हुई है कि इस हमले में शिया समुदाय को निशाना बनाया गया था या नहीं. तालिबान के शासन में वर्ष 2001 तक शिया समुदाय के लिए सार्वजनिक तौर पर आशूरा मनाना प्रतिबंधित था. आम सालों के मुकाबले इस साल ज्यादा जुलूस निकाले गए.
घटनास्थल पर मौजूद अहमद फवाद का कहना है, ‘मैं वहां आशूरा पर लोगों को शोक मानाते हुए देख रहा था तभी विस्फोट की जोरदार आवाज सुनायी दी.’ उन्होंने बताया, ‘मेरे आसपास लोग घायल होकर गिर पड़े. मैं जख्मी नहीं हुआ था इसलिए वहां से भाग निकला. यह बहुत भयावह था.’ घटना के बाद वहां बचे लोग अल-कायदा और तालिबान के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे. वह अल-कायदा मुर्दाबाद और तालिबान मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे.
इस्लामी कैलेंडर के पहले महीने मुहर्रम की 10वीं तारीख ‘आशूरा’ सचाई के लिए लड़ने और इंसानियत का झंडा हमेशा बुलंद रखने की कोशिश करने का पैगाम देती है. इसी पैगाम को लेकर हजरत हुसैन भी आगे बढ़े थे और कर्बला के मैदान में शहादत पाई. मुहर्रम की 10वीं तारीख को इस्लाम के मानने वाले दोनों धड़ों शिया एवं सुन्नी अलग-अलग नजरिए से देखते हैं और इसको लेकर उनके अकीदों में भी फर्क है. इसके बावजूद इन दोनों तबकों के लोग पैगम्बर के नवासे हजरत हुसैन के असल पैगाम को मानते हैं.