अगस्त महीना भारत के लिए बहुत अहम होने जा रहा है. इस महीने ही भारत आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है. इसी महीने अफगानिस्तान से नेटो और अमेरिकी सैनिक पूरी तरह से चले जाएंगे और जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म होने के दो साल भी पूरे हो रहे हैं. कहा जा रहा है कि इन तमाम अहम परिघटनाओं में भारत के लिए खुशी की बात यह है कि उसे अगस्त महीने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता मिली है.
अफगानिस्तान और कश्मीर के मामले में कहा जा रहा है कि भारत को अध्यक्षता मिलने की टाइमिंग बहुत अच्छी है. पाकिस्तानी मीडिया में इस बात को लेकर चिंता जताई जा रही है कि जम्मू-कश्मीर से पांच अगस्त को अनुच्छेद 370 हटाने के दो साल पूरे होने के मौके पर पाकिस्तान चाहकर भी सुरक्षा परिषद में कुछ नहीं कर पाएगा क्योंकि कमान भारत के पास है. इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की भूमिका अफगानिस्तान में भी अहम रहेगी. अफगानिस्तान का संकट भारत की विदेश नीति के लिए अभी सबसे बड़ी चुनौती है. पिछले हफ्ते मंगलवार को अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन जब भारत पहुंचे थे तो तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल चीन के दौरे पर था.
तालिबान के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व मुल्लाह अब्दुल गनी बरादर कर रहे थे. इस प्रतिनिधिमंडल से चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने पिछले हफ्ते बुधवार को उत्तरी चीन के तिआनजिन में मुलाकात की थी.
चीन के सरकारी प्रसारक सीजीटीएन के अनुसार, चीनी विदेश मंत्री ने तालिबान से मुलाकात में साफ कर दिया था कि तालिबान और आतंकवाद के बीच स्पष्ट फर्क रखना होगा. इसके साथ ही वांग यी ने ये भी कहा कि उसे चीन विरोधी आतंकवादी संगठन ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट से संबंध तोड़ने होंगे और वीगर मुसलमानों के मामले में उसका कोई हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया जाएगा. तालिबान के प्रतिनिधिमंडल के दौरे को लेकर चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता चाओ लिजिअन ने कहा कि तालिबान नेताओं ने चीन को आश्वस्त किया है कि अफगानिस्तान की जमीन से किसी भी तरह की चीन विरोधी गतिविधि नहीं होने दी जाएगी.
तालिबान ने ये भी कहा कि वह भविष्य में अफगानिस्तान के विकास में चीन की अहम भूमिका चाहता है. चीन के लिए अफगानिस्तान काफी अहम है. मध्य एशिया पहुंचने के लिए अफगानिस्तान सबसे बेहतर जरिया है. चाइना पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर यानी सीपीईसी की सुरक्षा के लिए भी तालिबान का साथ चीन के लिए अहम है. पाकिस्तान में चीन की यह सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना है. 60 अरब डॉलर की यह चीनी परियोजना अफगानिस्तान और तालिबान के साथ के बिना अधूरी है.
ऐसे में चीन ने अफगानिस्तान की सरकार और तालिबान दोनों से अच्छे संबंध रखे हैं. अगर अफगानिस्तान की सरकार जाती भी है और तालिबान सत्ता में आता है तो चीन के लिए सौदा करना मुश्किल होता नहीं दिख रहा है. दूसरी तरफ, भारत ने अनाधिकारिक रूप से तालिबान से बातचीत देर से शुरू की. भारत अफगानिस्तान की सरकार के साथ रहा और तालिबान को जैसे अमेरिका देखता था, उसी तरह से भारत भी देखता रहा.
वहीं, चीन का संपर्क तालिबान और अफगान सरकार दोनों से रहा. एशिया प्रोग्राम के डेप्युटी डायरेक्टर माइकल कगलमैन ने फॉरन पॉलिसी मैगजीन में लिखा है, ''भारत और अमेरिका के हित कई मोर्चों पर साझे हैं लेकिन अफगानिस्तान का मामला अलग है. अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने सेना की वापसी का फैसला लिया तो स्वाभाविक रूप से तालिबान मजबूत हुआ. तालिबान के मजबूत होते ही अफगानिस्तान में भारतीय हितों पर हमला लाजिमी था. तालिबान अब सत्ता तक पहुंचता दिख रहा है और यह पाकिस्तान के हित में है. 2001 में अमेरिकी बलों के आने के बाद से अफगानिस्तान में पाकिस्तान समर्थित सरकारें नहीं रहीं.''
माइकल कगलमैन ने लिखा है, ''भारत ने पाकिस्तान में बड़ा निवेश कर रखा है. 2001 के बाद से भारत ने अफगानिस्तान को तीन अरब डॉलर की आर्थिक मदद की है. तालिबान के बेदखल होने के बाद से अफगानिस्तान की सभी सरकारें भारत के करीब रहीं. लेकिन चीन और पाकिस्तान भारत के लिए तनाव बनकर उभरे हैं. अफगानिस्तान से अमेरिका के जाने के बाद जो खालीपन होगा, उसे चीन और पाकिस्तान भरते दिख रहे हैं.’’
भारत ने पिछले कुछ हफ्तों में अफगानिस्तान को लेकर अपनी नीति में बदलाव की कोशिश की. जून में भारत ने तालिबान के साथ पहली बार औपचारिक बातचीत शुरू की. भारत ने अफगानिस्तान को लेकर अपनी नीति का दायरा बढ़ाया और मध्य एशिया में अफगानिस्तान को लेकर हुई कॉन्फ्रेंस में विदेश मंत्री एस जयशंकर तक शामिल हुए.
अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रहे विवेक काटजू ने एक अगस्त को अंग्रेजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स में एक लेख लिखा है और उनका आकलन है कि भारत अफगानिस्तान में हार रहा है. विवेक काटजू ने लिखा है, ''अमेरिका और तालिबान में फरवरी 2020 में समझौता हुआ लेकिन तब भी भारत सक्रिय नहीं हुआ. भारत के रणनीतिकार मौके खोते गए. हैरान करने वाली बात यह है कि काबुल स्थित राजनीतिक हस्तियों ने हाल में भारतीय नेतृत्व से बात करने के बाद कहा कि भारत अब भी 'वेट एंड वॉच' की स्थिति में है. भारत अफगानिस्तान में तमाशबीन बनकर रह गया है, जिसे ये पता नहीं है कि किस तरफ जाना है.''
29 जुलाई को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने राज्यसभा में कहा कि अफगानिस्तान में जबरन जो भी नतीजे आएंगे, उसे भारत स्वीकार नहीं करेगा. जाहिर है इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए लेकिन अगर बलपूर्वक अफगानिस्तान में कोई परिवर्तन होता है तो क्या भारत इसका सामना करने की तैयारी कर रहा है? अगर अफगानिस्तान का भविष्य युद्ध से न भी तय हो तो क्या तालिबान की उपेक्षा की जा सकती है? चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने तालिबान को अहम सैन्य और राजनीतिक बल कहा है. कई विश्लेषक पूछ रहे हैं कि भारत तालिबान से सीधे संपर्क करने में क्यों देरी कर रहा है? विवेक काटजू का कहना है कि तालिबान से बुद्धिजीवी अधिकारियों की वार्ता खुली वार्ता का विकल्प नहीं है.
हालांकि, कुछ विश्लेषक तालिबान से बात करने वाले देशों को ही कठघरे में खड़े कर रहे हैं. इनका कहना है कि तालिबान से संपर्क करने वाले देश इसकी कीमत चुकाएंगे क्योंकि वे तालिबान का असली चेहरा नहीं देख पा रहे हैं. तालिबान इस्लामिक अमीरात बनाना चाहता है, जो 1996 से 2001 तक था. तालिबान बदला नहीं है. इनका कहना है कि भारत को तालिबान के विरोधाभास उभरने का इंतजार करना चाहिए क्योंकि आने वाले दिनों में इसकी असलियत सामने आएगी. कई विश्लेषकों का मानना है कि भारत अभी इसी नीति पर भरोसा कर रहा है.