पाकिस्तान को शायद ही कभी अपने किसी मित्र देश की सार्वजनिक तौर पर आलोचना करते देखा गया हो. हालांकि, इसी सप्ताह जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने सऊदी अरब को खुले आम निशाने पर लिया तो हर कोई हैरान रह गया. पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने कश्मीर मुद्दे पर सऊदी की अगुवाई वाले इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) की निष्क्रियता पर सवाल खड़े किए और इस्लामिक दुनिया के नेतृत्व को लेकर उसे सीधी चुनौती दे डाली. कुरैशी ने अपने इस बयान से पाकिस्तान की विदेश नीति में बड़े बदलाव के संकेत दिए हैं.
कुरैशी ने एक पाकिस्तानी न्यूज चैनल से बातचीत में कहा था कि अगर इस्लामिक सहयोग संगठन कश्मीर मुद्दे पर विदेश मंत्रियों के स्तर की बैठक नहीं बुलाता है तो फिर पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे पर अपने साथ खड़े मुस्लिम देशों के साथ बैठक बुलाने पर मजबूर हो जाएगा. कुरैशी ने ये भी कहा कि सऊदी अरब के कहने पर ही पाकिस्तान दिसंबर की कुआलालंपुर समिट में शामिल नहीं हुआ था और अब सऊदी से उम्मीद की जाती है कि वह कश्मीर मुद्दे पर आगे बढ़कर नेतृत्व करे.
कुरैशी ने ये भी कहा कि वह भावुक होकर ऐसा नहीं कह रहे हैं बल्कि वे अपने बयान के मायने को अच्छी तरह समझते हैं. कुरैशी ने कहा, "ये सही है, मैं सऊदी अरब के साथ अच्छे संबंधों के बावजूद अलग रुख अख्तियार कर रहा हूं क्योंकि हम कश्मीरियों की प्रताड़ना पर और खामोश नहीं रह सकते हैं." पाकिस्तान लंबे समय से सऊदी के वर्चस्व वाले ओआईसी की बैठक बुलाने की मांग कर रहा है. पाकिस्तान ये भी आरोप लगाता रहा है कि सऊदी समेत कई मुस्लिम देश भारत के साथ अपने आर्थिक हितों की वजह से चुप हैं.
कुरैशी का ये बयान काफी हैरान वाला था क्योंकि पाकिस्तान में कभी किसी ने सऊदी की इस तरह से आलोचना नहीं की थी. दोनों देशों के बीच दशकों पुराने आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य संबंध हैं. हालांकि, कश्मीर पर सऊदी अरब की चुप्पी पाकिस्तान के साथ उसकी दोस्ती पर भारी पड़ रही है. पाकिस्तान पहले भी कई मौकों पर कश्मीर मुद्दे पर भारत के खिलाफ कदम ना उठाने को लेकर सऊदी के सामने असंतोष जाहिर कर चुका है. जहां सऊदी अरब और यूएई कश्मीर मुद्दे पर भारत के साथ हैं, वहीं तुर्की, मलेशिया और ईरान ने मुखर होकर कश्मीर पर भारत के खिलाफ कड़े बयान जारी किए. तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोआन ने पाकिस्तानी संसद में दिए भाषण में भी कश्मीर मुद्दे पर भारत की आलोचना की थी.
मुस्लिम दुनिया कई धड़ों में बंटी हुई है और हर कोई इस्लामिक दुनिया का नेतृत्व करने की होड़ में है. खाड़ी के अरब देश और मिस्त्र जहां अमेरिका के गुट में शामिल हैं, वहीं कतर और तुर्की अपने ही बनाए रास्ते पर चल रहे हैं जबकि ईरान, सीरिया और लेबनान में हिजबुल्लाह अलग गुट बनाए हुए हैं. कुरैशी के इस बयान के बाद पाकिस्तानी मीडिया में सवाल किया जा रहा है कि क्या पाकिस्तान इनमें से किसी गुट में शामिल होना चाहता है या वो अपने जैसी सोच वाले देशों के साथ एक अलग गुट खड़ा करना चाहता है. खासकर, ऐसे देश जो भारत के खिलाफ खड़े होने के लिए तैयार हों.
पिछले कुछ वक्त में पाकिस्तान, मलेशिया और तुर्की मिलकर मुस्लिम देशों का अलग गठजोड़ खड़ा करने की कोशिश करते दिखे हैं. पिछले साल संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान तीनों देशों ने इस्लामोफोबिया को लेकर आवाज उठाई थी. मुस्लिम देशों की समस्याओं पर चर्चा के लिए आयोजित की गई कुआलालंपुर समिट में पाकिस्तान भी हिस्सा लेने वाला था. हालांकि, सऊदी ने इसे अपनी बादशाहत के लिए चुनौती के तौर पर लिया और पाकिस्तान को इससे पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया.
तुर्की ने हाल ही में एक म्यूजियम को मस्जिद में तब्दील कर साफ संदेश दिया कि वह अब यूरोप की तरफ नहीं बल्कि इस्लामवाद की तरफ आगे बढ़ना चाहता है. तुर्की की इस कोशिश में पाकिस्तान उसे भरपूर समर्थन दे रहा है. इसके लिए वो सऊदी से भी बगावत करने के लिए तैयार है जिसने उसे अरबों डॉलर का कर्ज दे रखा है. पाकिस्तानी मीडिया में छपी कुछ रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि सऊदी के कर्ज की भरपाई पाकिस्तान चीन से कर सकता है. वैसे भी सऊदी की अर्थव्यवस्था खुद डांवाडोल चल रही है. यानी अगर पाकिस्तान सऊदी अरब से दूर जाना चाहता है तो चीन की मदद के बिना ये संभव नहीं होगा.
तुर्की और पाकिस्तान के संबंध-
ब्रिटिश भारत में 1918-1922 के दौरान खिलाफत आंदोलन की शुरुआत के साथ तुर्की और पाकिस्तान के संबंध की नींव रखी गई थी. खिलाफत आंदोलन का मकसद ब्रिटेन को ऑटोमन साम्राज्य को तोड़ने से रोकना और इस्लामिक खलीफा व्यवस्था को बनाए रखना था. भारत में खिलाफत आंदोलन के मेनिफेस्टो में हिंदुओं के साथ मिलकर उपनिवेशवादी ब्रिटेन के खिलाफ भी लड़ाई भी शामिल थी. बता दें कि ऑटोमन साम्राज्य के बिखरने के बाद ही वर्तमान तुर्की का जन्म हुआ. आधुनिक तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोआन ऑटोमन साम्राज्य को इस्लाम और अपने देश का गौरवशाली अतीत मानते हैं.
हालांकि, 1922 के बाद तुर्की मुस्तफा कमाल अतातुर्क के शासन में सेक्युलर स्टेट बन गया जिसके बाद खिलाफत आंदोलन मद्धम पड़ गया. चूंकि भारत में रह रहे मुस्लिमों ने तुर्की के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अतातुर्क को आर्थिक मदद पहुंचाई थी इसलिए 1947 में पाकिस्तान के बनते ही तुर्की ने उसके साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित कर लिए. पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना अतातुर्क की जमकर तारीफ करते थे. जब परवेज मुशर्रफ 1999 में सत्ता में आए तो वो भी जिन्ना के ही रास्ते पर आगे बढ़े.
तुर्की और पाकिस्तान ने शुरुआत से ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक-दूसरे को समर्थन देना जारी रखा. 1974 में पाकिस्तान इकलौता ऐसा देश था जिसने साइप्रस में तुर्की के ऑपरेशन को समर्थन दिया था. 90 के दशक में जब तुर्की-पाकिस्तान के रिश्ते नाजुक दौर से गुजर रहे थे, तब भी तुर्की के राष्ट्रपति अहमत सेजेर ने 2001 में कश्मीर संघर्ष में पाकिस्तान को अपना समर्थन दिया. तुर्की और पाकिस्तान के बीच मजबूत सैन्य साझेदारी भी रही है. दोनों देश सैन्य-राजनीतिक ब्लॉक CENTO का हिस्सा थे. तुर्की और पाकिस्तान साथ-साथ सैन्य अभ्यास भी करते रहे हैं. पिछले दो सालों में चीन के बाद तुर्की पाकिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता देश बन गया है.
जहां तुर्की कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान को खुलकर समर्थन देता है, वहीं पाकिस्तान भी उसके साथ खड़ा रहता है. 11 अक्टूबर 2019 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने तुर्की के सीरिया में सैन्य ऑपरेशन पीस स्प्रिंग को लेकर अपना समर्थन दिया था. इन सारे सकारात्मक पहलुओं के बीच दोनों देशों की फलती-फूलती दोस्ती में बस एक ही अड़चन है और वो है व्यापार. दोनों देशों के बीच व्यापार बहुत कम है. 2004 में दोनों देशों के बीच ट्रेड टर्नओवर ना के बराबर (160 मिलियन डॉलर) था. इस साल फरवरी महीने में दोनों देशों के बीच व्यापार 900 मिलियन डॉलर तक पहुंचा है.
राजनीतिक तौर पर, पाकिस्तान और तुर्की के बीच सिर्फ चीन के वीगर मुसलमानों को लेकर मतभेद रहे हैं. चीन के दबाव की वजह से पाकिस्तान वीगर मुसलमानों को लेकर चुप्पी साधे रहता है जबकि तुर्की मूल के वीगर मुसलमानों को लेकर तुर्की चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की खुलकर आलोचना करता रहा है. हालांकि, चीन के साथ आर्थिक संबंध मजबूत करने की चाह में अब तुर्की भी वीगर मुद्दे पर नरम रुख अख्तियार कर रहा है. एक तरफ, जहां तुर्की के अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के साथ संबंध खराब हुए हैं, वहीं रूस से उसकी नजदीकी बढ़ी है. कुल मिलाकर, ऐसा लग रहा है कि चीन और पाकिस्तान के समर्थन से तुर्की सऊदी से उसकी जगह छीनकर इस्लामिक दुनिया का नेतृत्व करने की भूमिका में आना चाह रहा है.