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विश्व

तालिबान राज में अफगानिस्तान का असली खिलाड़ी कौन?

Taliban Afghanistan
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उन्नीसवीं सदी में रूसी और ब्रिटिश साम्राज्यों और 20वीं सदी में अमेरिका और सोवियत संघ ने अफगानिस्तान की जमीन पर अपनी-अपनी लड़ाई लड़ी. लेकिन जैसे ही तालिबान ने रणनीतिक फतह हासिल की, अब पाकिस्तान अफगानिस्तान में बड़ा गेम खेलने को तैयार है जबकि उसका दोस्त चीन इस क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत करने की फिराक में है. 

बेपर्दा पाकिस्तानः पश्चिमी देशों का दावा रहा है कि पाकिस्तान के तालिबान के साथ ताल्लुकात हैं, लेकिन इस्लामाबाद इन आरोपों को खारिज करता रहा है. पाकिस्तान तब बेपर्दा हो गया जब काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा कि अफगानों ने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ फेंकीं. 

(फोटो-Getty Images)

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तालिबान अफगानिस्तान में सरकार गठन की प्रक्रिया में जुटा हुआ और लगातार बैठकें कर रहा है. मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि इन बैठकों में कुछ पाकिस्तानी अधिकारी शामिल हैं. इस्लामाबाद में विदेश मंत्रालय का कहना है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में एक समावेशी राजनीतिक समझौता चाहता है ताकि इस क्षेत्र में स्थिरता और अमन शांति बहाल हो सके. लेकिन पाकिस्तान ने यह भी कहा कि अफगानिस्तान में उसकी भूमिका अहम है.

(पूर्व अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई से मिले तालिबान नेता फोटो-AP)

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चीन की तीखी नजरः चीन की इससे पहले अफगानिस्तान में कोई भूमिका नहीं रही है. लेकिन पाकिस्तान का वह मजबूत साझेदार है. चीन की नजर अफगानिस्तान के खनिज संपदा पर है. अफगानिस्तान में लिथियम का बड़ा भंडार है जिसका मुख्य रूप से इलेक्ट्रिक वाहनों में इस्तेमाल होता है. चीन पाकिस्तान में काराकोरम पहाड़ों के माध्यम से अपने लिए अतिरिक्त सुरक्षा की संभावना भी देख रहा है.

(फोटो, चीनी विदेश मंत्रालय)

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Taliban Afghanistan
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भारत और पाकिस्तान की अदावत पुरानी है. भारत का एक साल से अधिक समय से लद्दाख में विवादित सीमा पर चीन के साथ सैन्य गतिरोध बना हुआ है. भारत काबुल में अशरफ गनी सरकार का प्रमुख समर्थक था. मगर जैसे ही तालिबान काबुल पर काबिज हुआ पाकिस्तान और चीन अफगानिस्तान में मुख्य खिलाड़ी के रूप में सामने आ गए, और यही वजह से है कि नई दिल्ली के माथे पर चिंता की लकीरें लंबी हो गईं. 

(फोटो-AP) 

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चीन का हालांकि कहना है कि तालिबान तक पहुंचने का उसका मुख्य मकसद अपने पश्चिमी शिनजियांग क्षेत्र को बीजिंग विरोधी ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) के उग्रवादियों से बचाना है, जिनके अफगानिस्तान में पनाह लेने की आशंका है.

(फोटो, चीनी विदेश मंत्रालय)

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सिचुआन विश्वविद्यालय में साउथ एशियन स्टडीज के प्रोफेसर झांग ली ने कहा, "हालांकि पाकिस्तान भारत के खिलाफ अफगानिस्तान का फायदा उठाने के बारे में सोच रहा होगा, लेकिन यह जरूरी नहीं कि चीन के लिए भी यही विचार रखता हो. चीन की प्राथमिक चिंता अब तालिबान है. चीन अफगानिस्तान में एक समावेशी और उदार शासन की स्थापना चाहता है ताकि शिनजियांग और उसके अन्य क्षेत्रों में उग्रवाद न फैले. इससे आगे क्या होना है, यह अभी देखा जाना बाकी है."

(फोटो-Getty Images) 

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चीन ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट को लेकर आशंकित रहता है लेकिन अमेरिकी सरकार का कहना है कि ETIM अब औपचारिक संगठन के रूप में मौजूद नहीं है.

(फोटो-Getty Images) 

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नई दिल्ली में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के प्रोफेसर ब्रह्म चेलानी का कहना है कि तालिबान को लेकर चीन की अफगानिस्तान में दो चीजों पर नजर है. पहला राजनयिक रूप से तालिबान शासन को मान्यता देना और दूसरा अफगान में बुनियादी ढांचे का विकास और आर्थिक मदद.

(फोटो-Getty Images) 

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रॉयटर्स के मुताबिक ब्रह्म चेलानी ने कहा कि चीन खनिज संपदा से संपन्न अफगानिस्तान में रणनीतिक पैठ बनाने और पाकिस्तान, ईरान और मध्य एशिया में अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिहाज से नए हालात का फायदा उठाने को लेकर बेफिक्र है.

(फोटो-Getty Images)

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काबुल पर तालिबान
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कड़वी यादें: काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद भारत की बेचैनी और उत्साहित पाकिस्तान पर न्यू यॉर्क के इथाका कॉलेज में पढ़ाने वाले राजनीतिक टिप्पणीकार रज़ा अहमद रूमी कहते हैं कि 1947 में विभाजन के बाद से दोनों देशों ने तीन युद्ध लड़े हैं. तालिबान के कब्जे के बाद पाकिस्तान में सोशल मीडिया और टीवी स्क्रीन पर जो उल्लास देखा गया, वह काफी हद तक काबुल पर भारतीय पकड़ के कमजोर पड़ने की प्रतिक्रिया थी. पाकिस्तानी अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी के भारत के साथ घनिष्ठ संबंधों को एक खतरे के रूप में देखते थे. 1996 से लेकर 2001 तक तालिबान के शासन के दौरान भारत के अफगानिस्तान से संबंध बेहतर नहीं रहे. तालिबान को लेकर भारत के अनुभव खराब ही रहे हैं.  

(फोटो-PTI)

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1999 में इंडियन एयरलाइंस के एक विमान को तालिबान ने अगवा कर लिया था. काबुल में भारत के पूर्व राजदूत जयंत प्रसाद कहते हैं कि हमारी स्थिति आज हकीकत के साथ तालमेल बिठाने की है. हमें अफगानिस्तान में लंबा खेल खेलना है. हमारी कोई सीमा नहीं है, लेकिन वहां हमारा दांव लगा हुआ है.

(फोटो-Getty Images)

Taliban Afghanistan
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नई दिल्ली में राजनयिक सूत्रों ने कहा कि पिछले एक साल में दोहा में अमेरिका के साथ समझौते के बाद जब से तालिबान एक प्रमुख ताकत के रूप में उभरा, भारत ने बातचीत करने की कोशिश की है. एक राजनयिक सूत्र ने बताया, 'हम सभी शेयरहोल्डर्स के साथ बात कर रहे हैं. लेकिन मैं चर्चा की बारीकियों पर नहीं जाना चाहता. इस बात की आलोचना हो रही है कि जब अमेरिका ने खुद तालिबान के साथ बातचीत शुरू की थी, तब भारत ने अपने सारे अंडे गनी सरकार की टोकरी में डाल दिए. लिहाजा, नई दिल्ली ने पहल करने में काफी देरी कर दी.'

(फोटो-Getty Images)

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भारत को झटका!  फिर भी, चीन पर अधिक निर्भरता से बचने के लिए प्रमुख आर्थिक ताकत के तौर पर भारत तालिबान के लिए मायने रखता है. सूत्र ने कहा कि भारत के पास अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से हर एक में विकास परियोजनाएं हैं चाहे वे छोटी हों या बड़ी. इसमें काबुल में संसद भवन का निर्माण भी शामिल है. 

(फोटो-Getty Images)

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दक्षिण एशिया पर तीन पुस्तकों की लेखिका और रॉयटर्स की पूर्व पत्रकार मायरा मैकडोनाल्ड कहती हैं, सही बात है कि तालिबान का काबुल पर कब्जा भारत के लिए एक झटका है. लेकिन यह भी सही है कि नई दिल्ली के लिए खेल अभी खत्म नहीं हुआ है. यह अतीत की पुनरावृति नहीं है. हर कोई इस बार अधिक सावधान रहने वाला है ताकि अफगानिस्तान की धरती से 9/11 जैसे आतंकी घटना को अंजाम न दिया जाए.

तालिबान के एक वरिष्ठ सदस्य वहीदुल्लाह हाशिमी ने रॉयटर्स को बताया है कि गरीब अफगानिस्तान को ईरान, अमेरिका और रूस सहित क्षेत्र के देशों से मदद की जरूरत है. हम उम्मीद करते हैं कि विशेष रूप से स्वास्थ्य, व्यापार और खनन क्षेत्र में वे हमारी मदद करेंगे. 

(फोटो-Getty Images)

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