अपने सैकड़ों सैनिकों की कब्र से गुजर अमेरिका अफगानिस्तान से चला गया. अल-कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को मारने आया अमेरिका तालिबान के पश्तून लड़ाकों से 20 साल तक लड़ता रहा, और जो हासिल हुआ उसका आकलन इतिहास को करना है.
तालिबान को खड़ा करने में मदद करने वाला पाकिस्तान भी अपने हाथ जला चुका है. करीब पचास साल बाद पाकिस्तान यह स्वीकार कर रहा है. 22-23 जून 2021 को अमेरिकी अखबार द वॉल स्ट्रीट जर्नल में लिखे लेख में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा कि अतीत में पाकिस्तान ने आपस में लड़ रहे अफगानों के बीच पक्ष लेकर गलती की. हमने अनुभव से सीखा है. अफगानिस्तान में जंग के चलते 70 हजार पाकिस्तानी मारे गए. पाकिस्तान को 150 अरब डॉलर का नुकसान हुआ और पर्यटन चौपट हो गया.
(जान गंवा चुके सैनिकों को सलामी देते अमेरिकी फोटो-AP)
दरअसल, अस्सी के दशक में पाकिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के बाद सैन्य तानाशाह मोहम्मद जिया उल हक ने इस्लाम को राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. 1978 से 1985 के बीच जिया उल हक ने कदम-दर-कदम पाकिस्तान को धर्मांध मुल्क बनाने का काम किया. लंदन में रहने वाले पाकिस्तानी लेखक अली जाफर जैदी ने अपनी आत्मकथा 'बाहर जंगल अंदर आग, पाकिस्तान की राजनीतिक कशमकश का सफ़र' में इसका ब्योरा रखा कि कैसे जिया उल हक ने तालिबान को खड़ा कर पाकिस्तान को मजहब की आग में झोंक दिया.
(पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद जिया उल हक, फोटो-Getty Images)
अली जाफर जैदी लिखते हैं, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान ने 27 अप्रैल, 1978 को हुकूमत पर कब्जा किया तो अफगानिस्तान में कबाइली जंग शुरू हो गई. दिसंबर 1979 में सोवियत संघ अफगानिस्तान में आ धमका और जिया उल हक की लॉटरी निकल आई. सोवियत संघ खुद अफगानिस्तान में नहीं आया था, बल्कि तत्कालीन अफगानिस्तान हुकूमत की दरख्वास्त पर आया था. मगर अफगानिस्तान में आकर सोवियत संघ फंस गया. जिया उल हक अमेरिका और ब्रिटेन, सऊदी अरब की मदद से सोवियत विरोधी मुजाहिदीन पैदा करने में जुट गए.
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जैदी लिखते हैं, ओसामा बिन लादेन के बुश के साथ गहरे संबंध थे. अमेरिका के हितों को आगे बढ़ाने के लिए वो जमाअत-ए-इस्लामी की मदद के साथ जिया उल हक की सरपरस्ती में पाकिस्तान में आ बैठा. पाकिस्तान को अमेरिका की फ्रंट लाइन रियासत बनाकर सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका की जंग को इस्लामी जंग बनाकर मुल्क को दांव पर लगा दिया गया. इस्लामी जिहाद का साइन बोर्ड लगाकर पहाड़ों से, गांवों से वहशी इंसानों को पकड़ पकड़ कर मदरसों में भर्ती किया जाने लगा. डॉलर की रेलम पेल हो गई. चेचन्या से लेकर अफ्रीका के जंगलों तक से उन 'इस्लामी मुजाहिदीन' को ला-लाकर जमा किया गया. पंजाब के शहरों और देहात के गरीब बच्चे भी उनसे न बच सके. दीन मदरसे, इस्लामी मुजाहिदीन पैदा करने वाली फैक्ट्रियां बन गए.
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जैदी लिखते हैं, ब्रिटेन की तत्कालीन प्रधानमंत्री मिसेज मारग्रेट थैचर ने जब तूरखम के बॉर्डर पर बंदूक लहराते हुए जिहाद का नारा बुलंद किया तो अरबों डॉलर का 'इस्लामी खेल' शुरू हो गया. हथियार और मजहब दोनों बिक रहे थे. इस कारोबार का आलम ये था कि असलहा की एक बड़ी खेप जो अफगानिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल होनी थी, अरबों में बेचकर औजड़ी कैम्प को आग लगा दी, ताकि जखीरे का हिसाब किताब जलकर बराबर हो जाए. पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोहम्मद खान जुनेजो ने इस दुर्घटना की तहकीकात का ऐलान किया तो प्रधानमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा. दरअसल, जुनेजो ने जांच को लेकर जनरल जिया हक से सलाह नहीं ली. जनरल जिया चाहते थे कि जांच का नेतृत्व उनकी पसंद के लोग करें ताकि उनके किसी करीबी का जांच में नाम आने पर उसे बचाया जा सके. जुनेजो को शायद इसकी भनक थी और इसीलिए उन्होंने विदेश दौरे पर गए जनरल जिया के पाकिस्तान लौटने से पहले जांच कमिटी का गठन कर दिया था. जनरल इमरानुल्लाह ने इस त्रासदी के लिए आईएसआई के डायरेक्टर जनरल को जिम्मेदार ठहराया था और उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग भी की थी.
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इस तरह पाकिस्तान को मध्यकालीन युग में ले जाने का अमल शुरू हुआ तो स्कूलों के पाठ्यक्रमों तक को तब्दील कर दिया गया. तालीम में इस्लामी सल्तनतों के फैलाव के बारे में बताया जाने लगा, जिसमें मुसलमानों ने आठ सौ साल तक स्पेन पर हुकूमत की, एक हजार साल तक हिंदुस्तान पर, सदियों तक उस्मानिया ने यूरोप को अधीन रखा. इसे इस्लामी बुद्धिजीवियों और विचारकों ने बढ़ा चढ़ाकर लिखना और पेश करना शुरू किया.
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पाकिस्तान में उस समय संगीत, आर्ट, तहजीब, अदब को जिया उल हक की आंखों से देखा जाने लगा. पाकिस्तान को मध्य काल तक ले जाने का आलम आज भी जारी है और जिया उल हक जैसे लोग पाकिस्तान को अलबाकिस्तान बनाने पर तुले हुए हैं.
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जिस तरह एक विशाल सल्तनत जिसकी बुनियाद बाबर ने रखी थी, औरंगजेब ने 1707 तक उसको मुकम्मल तबाही तक पहुंचा दिया था, और ये सब शरियत लागू करने के नाम पर किया था, इसी तरह अपने समय के औरंगजेब जिया उल हक ने पाकिस्तान को तबाही की गहरी और तारिक घाटी में धकेल दिया. जिया उल हक भी अपने तर्ज के इस्लामी निजाम के निफाज के नाम पर अपने सियासी दुश्मनों को कोड़े मारता, फांसी पर चढ़ाता और सालों-साल कैद रखता.
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जैदी लिखते हैं, सोवियत यूनियन के खिलाफ इस जंग में पाकिस्तान खुद एक मैदाने जंग बन गया. जिया उल हक और उनके साथियों को इससे कोई हर्ज नहीं था. इनमें से किसी एक का भी घर बर्बाद नहीं हुआ जबकि पूरा पाकिस्तान बर्बाद होकर रह गया. न तो उन्हें मशरिकी पाकिस्तान की अलहदगी का कभी गम रहा और न ही जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी देने का.
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जैदी ने लिखा कि जिया उल हक ने जिस मजहबी और भाषाई भेदभाव को खड़ा किया था, उसके हाथों हमारा समाज जल चुका है. भाई चारे की महलसराएं जलकर राख हो चुकी हैं. पाकिस्तानपरस्ती का जनाजा निकल गया है. इस्लामपरस्ती छा गई है. विनाश की नई नई इमारतें खड़ी कर दी गई हैं. समाज के वस्तुनिष्ठ हालात को समझने और परखने की सलाहियत मर गई है.
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जिया उल हक के चलते 1983 में पाकिस्तान छोड़ने वाले जैदी कहते हैं, अवाम ने लोकतांत्रिक, खुशहाल, शांतिपूर्ण और मजबूत पाकिस्तान का जो ख्वाब देखा था, जिया उल हक ने कोड़े और फांसियों के जरिये उसे रौंद डाला. आज भले ही लोग जिया उल हक के जुल्मों की शिद्दत को भूल चुके हैं. लेकिन मजहबी और भाषाई आतंक फैल चुका है. लोग एक दूसरे को काफिर कह कर कत्ल कर रहे हैं. जिया उल हक ने मजहब के कानूनों को एक ऐसा क्रूर दस्तावेज बना दिया है जिसको कोई नहीं सुधार सकता है. शायद यही वजह है कि काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद पाकिस्तान में जश्न मनाया गया.
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असल में, जनरल मुहम्मद जिया-उल-हक सेना में जनरल थे, जो 1977 में मार्शल लॉ घोषित करने के बाद पाकिस्तान के छठे राष्ट्रपति बन बैठे. वह 1978 से 1988 तक पाकिस्तान पर काबिज रहे. सबसे लंबे समय तक राज्य के प्रमुख और थल सेनाध्यक्ष रहे. तख्तापलट के बाद जिया उल हक ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी के फंदे पर लटका दिया. जिया उल हक ने अदालतों में शरिया का कानून लागू किया. एक तरह से पाकिस्तान को मजहबी आग में झोंक दिया. अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ तालिबान की मुहिम को हवा दी और इस दौरान पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता चरम पर पहुंच गई जिसकी आग से पड़ोसी मुल्क अभी तक निकल नहीं पाया.
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