तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा जमा लिया है. अफगानिस्तान में तालिबान इतनी तेजी से अपना नियंत्रण स्थापित कर लेगा, ये शायद ही किसी ने सोचा होगा. अधिकतर गवर्नरों ने बिना जंग के ही तालिबान के सामने सरेंडर कर दिया. तालिबान के काबुल पहुंचते ही राष्ट्रपति अशरफ गनी ने भी मुल्क छोड़ दिया. अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में अफरा-तफरी का माहौल है. काबुल से उड़ने वाले सभी विमान भरे हुए हैं. लोग काबुल से भागकर पड़ोसी देश जाना चाहते हैं, जहां भी जगह मिले.
भारत, अमेरिका, कतर, संयुक्त राष्ट्र, उज्बेकिस्तान, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, जर्मनी, नॉर्वे, ताजिकिस्तान, तुर्की और तुर्कमेनिस्तान सहित कई देश कह चुके हैं कि वो अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता को मान्यता नहीं देंगे. अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे से दुनिया के देश चिंतित हैं लेकिन माना जा रहा है कि इससे चीन और पाकिस्तान उतने असहज नहीं हैं. चीन ने तो इस बात के भी संकेत पहले ही दे दिए थे कि अगर अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता में आता है तो वह मान्यता देने के लिए तैयार है.
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चीन की नजरें अब अफगानिस्तान पर हैं. चीन के लिए मध्य एशिया तक पहुंचने का अफगानिस्तान सबसे बेहतर जरिया है. चीन बेल्ट एंड रोड एनीशिएटिव के तहत अफगानिस्तान में निवेश करने की तैयारी में है. पाकिस्तान में चीन की सबसे महत्वाकांक्षी चाइना पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर यानी सीपीईसी की सुरक्षा के लिए भी तालिबान का साथ चीन के लिए अहम है.
चीन ने इसी महीने तालिबान नेताओं के साथ मुलाकात की है. तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन पहले ही कह चुके हैं कि अगर चीन अफगानिस्तान में निवेश करता है तो तालिबान उसकी सुरक्षा की गारंटी देगा. चीन के विदेश मंत्री वांग यी से जब तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल मुलाकात के लिए पहुंचा था तो उन्होंने तालिबान को अफगानिस्तान की महत्वपूर्ण राजनीतिक और सैन्य ताकत करार दिया था.
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ताबिलान के प्रवक्ता सुहैल ने कहा कि अमेरिकी सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान में सबसे बड़े निवेशक चीन के साथ बातचीत करना जरूरी था. सुहैल ने कहा, 'हम कई बार चीन गए हैं और उनके साथ हमारे अच्छे संबंध हैं. चीन एक मित्र देश है जिसका हम अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और विकास के लिए स्वागत करते हैं. वहीं, अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने चीन से कर्ज लेने से इनकार कर दिया था. गनी जानते थे कि चीन पर आर्थिक निर्भरता उन्हें महंगी पड़ सकती है.
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अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की वापसी और तालिबान के सत्ता में आने के बाद विश्लेषक वहां चीन की भूमिका ही सबसे अहम मान रहे हैं. हालांकि, कहा जा रहा है कि सोवियत संघ और अमेरिका से अलग, चीन की अफगानिस्तान नीति में सबसे अहम पहलू आर्थिक होगा. चीन की नजर अफगानिस्तान की समृद्ध खनिज संपदा पर है.
अफगानिस्तान अपनी खनिज संपदा को लेकर भले ही सुर्खियों में न रहे लेकिन तथ्य यह है कि वह दुनिया के सबसे समृद्ध खनन क्षेत्रों में से एक है. अमेरिकन ज्योलॉजिकल सर्वे ने 2007 में अनुमान लगाया था कि अफगानिस्तान की अप्रयुक्त खनिज संपदा लगभग 1 ट्रिलियन डॉलर की होगी. बाद में बताया गया कि इसकी कीमत 3 ट्रिलियन डॉलर है, जिसमें 420 बिलियन डॉलर मूल्य का लौह अयस्क, 274 बिलियन डॉलर का तांबा, 25 बिलियन डॉलर का सोना, 81 बिलियन डॉलर का नाइओबियम और 50 बिलियन डॉलर का कोबाल्ट है.
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निवेश में जुटा चीनः अफगानिस्तान में तांबा, कोयला, लोहा, गैस, कोबाल्ट, पारा, सोना, लिथियम और थोरियम का दुनिया का सबसे बड़ा अप्रयुक्त भंडार है, जिसका मूल्य 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक है. 2011 में, चाइना नेशनल पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन (CNPC) ने 400 अमेरिकी मिलियन डॉलर में 25 वर्षों के लिए तीन तेल क्षेत्रों की निविदा जीती थी. इसमें लगभग 87 मिलियन बैरल तेल था. चीनी कंपनियों ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से लगभग 40 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में, लोगार प्रांत के मेस अयनाक में तांबे की खदान के अधिकार भी हासिल कर लिए हैं.
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इसके अलावा, अफगान में बड़ा तेल भंडार है. लगभग 1,596 मिलियन बैरल तेल और 15,687 ट्रिलियन क्यूबिक फीट प्राकृतिक गैस भंडार होने का अनुमान है. हालांकि, अफगानिस्तान की धरती में अनुमानित तौर पर 1.4 मिलियन टन के दुर्लभ तत्व भी छिपे हुए हैं.
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चीन को अफगानिस्तान में अपने मकसद को हासिल करने में पाकिस्तान की भी मदद मिल रही है. जानकारों का मानना है कि चीन पाकिस्तान की मदद से अमेरिका के जाने से अफगानिस्तान में खाली स्थान को भरने की कोशिश में है. इससे उसे मध्य एशिया में बढ़त मिलने में मदद भी मिल जाएगी. चीन पाकिस्तान की मदद से अफगानिस्तान में अपने मकसद को हासिल करना चाहता है.
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पाकिस्तान ने तालिबान के खिलाफ अमेरिका को सैन्य बेस मुहैया कराने से भी इनकार कर दिया था. इस रुख के पीछे माना गया कि वो अफगानिस्तान में तालिबान के जरिये अपनी पकड़ मजबूत बना अपने दोस्त चीन की मदद करने के साथ ही भारत के खिलाफ रणनीतिक बढ़त हासिल करना चाहता है. भारत अफगानिस्तान में अशरफ गनी की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार का समर्थन करता रहा है. अब जब तालिबान का अफगानिस्तान पर कब्जा हो चुका है तो जाहिर है चीन और पाकिस्तान के लिए खुशखबरी वाली बात है. अमेरिका के लॉन्ग वार जर्नल चीन के खुफिया आकलन के हवाले से बता चुका है कि चीन तालिबान को अफगानिस्तान के नए शासक के तौर पर मान्यता देने की तैयारी में है.
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हालांकि, चीन के लिए बस एक ही चिंता की बात है और वो है अपने शिनजियांग प्रांत में सक्रिय ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ETIM) के साथ तालिबान के संबंध. चीन ने पिछले महीने तालिबान के प्रतिनिधिमंडल से कहा था कि ईटीआईएम उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा और क्षेत्रीय अखंडता के लिए सीधा खतरा है. चीनी विदेश मंत्री ने तालिबान से मुलाकात में साफ कर दिया था कि उसे चीन विरोधी आतंकवादी संगठन ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट से संबंध तोड़ने होंगे और वीगर मुसलमानों के मामले में उसका कोई हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया जाएगा.
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चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा था कि ईटीआईएम का मुकाबला करना अंतरराष्ट्रीय समुदाय की जिम्मेदारी है. चीन कहता रहा है कि तालिबान-नियंत्रित क्षेत्र का इस्तेमाल शिनजियांग के अलगाववादी ताकतों को शरण देने के लिए किया जाता है. लेकिन तालिबान चीन को यह आश्वासन दे रहा है कि वह चीन के खिलाफ अपनी धरती का इस्तेमाल करने की किसी संगठन को इजाजत नहीं देगा.
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चीनी मीडिया में भी तालिबान के सत्ता में आने को लेकर चर्चा है. चीन की सरकार के मुखपत्र कहे जाने वाले ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, अमेरिका से अलग, अफगानिस्तान में चीन की छवि दोस्त की है. इसलिए चीन अफगानिस्तान में किसी भी पक्ष का दुश्मन नहीं बनेगा और ना ही कोई पक्ष चीन का दुश्मन बनेगा. अमेरिका की तरह चीन के लिए कोई भी स्थिति असहज करने वाली नहीं है. चीन अफगानिस्तान में रचनात्मक कार्यों में भूमिका निभाने के लिए तैयार है. जंग की समाप्ति के बाद चीन बेल्ट ऐंड रोड प्रोजेक्ट के तहत वहां कई परियोजनाओं पर काम शुरू करेगा.
तालिबान ने चीनी हितों को कोई नुकसान न पहुंचाने का वादा भी किया है. हालांकि, विश्लेषकों का मानना है कि चीन के लिए स्थितियां जितनी आसान लग रही हैं, उतनी हैं नहीं. सिर्फ आर्थिक निवेश से तालिबान को साधना संभव नहीं है. पहले भी अमेरिका जैसे देशों की यह कोशिश कामयाब नहीं हो पाई है.
(फोटो-चीन विदेश मंत्रालय)