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ना तालिबान, ना महिलाओं पर बंदिशें, 60 साल पहले दिखा था अफगानिस्तान का स्वर्णिम काल

हमेशा से अफगानिस्तान ऐसा नहीं था. वहां की सड़कें भी लोगों की चहल-पहल से जगमगा जाती थीं. वहां भी सभी धर्मों का सम्मान था, जीने की आजादी थी. महिलाएं भी बंदिशों से मुक्त थीं, काम करती थीं, स्कूल जाती थीं और समाज का एक अहम अंग थीं.

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अफगानिस्तान में महिलाओं को कभी पूरी आजादी थी ( फोटो- William Podlich)
अफगानिस्तान में महिलाओं को कभी पूरी आजादी थी ( फोटो- William Podlich)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • राजशाही के समय अफगानिस्तान का स्वर्णिम काल
  • महिलाओं को मौका देने के मामले में अमेरिका से भी आगे
  • तस्वीरें जिन्होंने बयां किया अफगानिस्तान का स्वर्णिम काल

अफगानिस्तान का नाम सुनते ही लोगों के मन में खौफ पैदा हो जाता है. तालिबान की क्रूरता की वो तस्वीरें डराने लग जाती हैं जहां पर महिलाओं पर जुल्म ढाए जाते हैं, पुरुषों को पीटा जाता है और लोकतंत्र का लगातार चीरहरण होता है. पिछले कुछ दिनों में अफगानिस्तान ने ऐसे समय देखे हैं जिन्हें कोई भी जीना नहीं चाहेगा.

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लेकिन हमेशा से अफगानिस्तान ऐसा नहीं था. वहां की सड़कों पर भी लोगों की बेरोक-टोक चहल-पहल होती थी. वहां भी सभी धर्मों का सम्मान था, सभी का आदर था और जीने की आजादी थी. महिलाएं भी तमाम बंदिशों से मुक्त थीं, काम करती थीं, स्कूल जाती थीं और समाज का एक अहम अंग थी.

राजशाही के समय अफगानिस्तान ने समय से आगे की सोची

ये सब होता था, अफगानिस्तान में ही होता था. इसे अफगानिस्तान के इतिहास में स्वर्णिम काल के तौर पर याद किया जाता है. ब्रिटेन के चुंगुल से खुद को आजाद करने के बाद अफगानिस्तान ने राजशाही को चुना था. वहां पर राजाओं का राज था. 1919 में अमानुल्लाह खान अफगानिस्तान के राजा बने थे. उन्हें इतिहास हमेशा समय से आगे सोचने वाले राजा के तौर पर याद रखता है. लंबे समय तक यूरोप में रहे अमानुल्लाह खान वहां की संस्कृति से काफी प्रभावित थे. आलम ऐसा था कि वे अपने देश को भी आधुनिक बनाना चाहते थे. वे अपने देश के लिए हर वो विकास करना चाहते थे जिससे अफगानिस्तान को भी सशक्त मुल्क के तौर पर देखा जाए.

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जब अफगानिस्तान में लागू हुआ था यूरोपीय ड्रेस कोड

आज से 102 साल पहले राजा अमानुल्लाह खान शिक्षा का महत्व समझते थे. उनकी नजरों में अच्छी शिक्षा से ही बेहतरीन समाज का निर्माण हो सकता था. ऐसे में उन्होंने उस दौर में आधुनिक शिक्षा पर जोर दिया था. इसके अलावा सिविल सेवा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी और संचार क्षेत्रों में भी उन्होंने अभूतपूर्व काम किया. उनकी तरफ से तब काबुल के चारों ओर भव्य सरकारी बिल्डिंग, महल, विला और रिजॉर्ट बनवाए गए थे. ये जानकर और ज्यादा हैरानी होगी कि उस दौर में अमानुल्लाह खान ने यूरोपीय ड्रेस कोड के पक्ष में एक फरमान जारी कर दिया था. उस फरमान के मुताबिक पारंपरिक कपड़ों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. तो कुछ ऐसा था 102 साल पुराना अफगानिस्तान, जहां पर ना सिर्फ सभी को पूरी आजादी थी बल्कि एक खुले विचारों वाला माहौल था.

लेकिन कहा जाता है कि अमानुल्लाह खान जरूर ये क्रांतिकारी कदम उठा रहे थे, लेकिन उन्हें वहां की जनता और कुछ संगठनों का पूरा समर्थन नहीं मिला था. वजह एकदम सरल थी- अमानुल्लाह खान समय से आगे का सोचते थे. वे यूरोप गए थे, इसलिए वहां की संस्कृति को समझते थे. लेकिन आम अफगानी के लिए उन पर अमल करना मुश्किल था. इसी वजह से कुछ साल राज करने के बाद उन्होंने अपनी सत्ता गंवा दी थी. फिर 1933 में मोहम्मद जहीर शाह ने अफगानिस्तान की सत्ता संभाली और पूरे 40 सालों तक राज किया. ऐसा कहा जाता है उन्हीं के दौर में अफगानिस्तान में सभ्यता के आधुनिक संसाधनों का विकास हुआ और अर्श से फर्श वाला सफर भी तय कर लिया.

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महिलाओं को मौका देने के मामले में अमेरिका से भी आगे

बात पहले स्वर्णिम काल की करते हैं. मोहम्मद जहीर शाह के सत्ता संभालने के बाद से ही अफगानिस्तान में आजादी की एक बहार थी. 1960 के बाद से तो वो तमाम बदलाव जमीन पर साफ महसूस किए जा सकते थे. 1964 में मोहम्मद जहीर शाह द्वारा संवैधानिक राजशाही को हरी झंडी दिखा दी गई थी. तब वहां की संसद में 13 प्रतिशत महिलाएं थीं. आज जरूर महिलाओं के वजूद को भी खतरे में बताया जा रहा है, लेकिन 60 साल पहले वाला अफगानिस्तान ऐसा नहीं था. साल 2009 में CNN को दिए इंटरव्यू में Women's Alliance for Peace and Human Rights in Afghanistan की फाउंडर रहीं Shorish-Shamley ने कहा था कि एक समय हमारा देश कई मामलों में अमेरिका से भी आगे था. 1964 में सदन में हमारे यहां अमेरिका की तुलना में ज्यादा महिलाएं थीं.

अब सिर्फ सदन में ही महिलाओं की भागीदारी ज्यादा नहीं थी, बल्कि तब हर क्षेत्र में महिलाओं को काम करने के लिए प्रेरित किया जाता था. उस दौर में जितने भी यात्री अफगानिस्तान गए थे, उनकी कहानी जान ये विश्वास करना मुश्किल हो सकता है कि खाड़ी देश में ऐसा भी कोई दौर हुआ करता था. तब महिलाएं पत्रकार होती थीं. वे मिनीस्कर्ट भी पहना करती थीं. बुर्का पहनना भी वैकल्पिक रहता था. किसी तरह का दवाब नहीं था. 

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तस्वीरें जिन्होंने बयां किया अफगानिस्तान का स्वर्णिम काल

अफगान के इस स्वर्णिम काल की एक नहीं सैकड़ों ऐसी तस्वीरें भी इतिहास के पन्नों में कैद हैं जिन्हें देख चेहरे पर मुस्कान तो आ सकती है लेकिन ये देख दुख भी होगा कि एक समृद्ध  देश कहा से कहा चला गया. साल 1967 में अमेरिकी डॉक्टर Bill Podlich काबुल गए थे. उन्होंने एक खास मिशन के लिए UNESCO संग हाथ मिलाया था और वे दो साल के लिए काबुल आए थे. तब उन्होंने काबुल के हायर टीचर कॉलेज में काम किया था. वे अपनी पत्नी और बच्चों को भी साथ लेकर आए थे. अब उस समय Bill Podlich को भी इस बात का अहसास नहीं होगा कि उस यात्रा के दौरान उन्होंने दुनिया को अफगानिस्तान की जो तस्वीरें दिखाई थीं, वो माहौल हमेशा के लिए बदलने वाला था.

Bill Podlich की उस काबुल यात्रा की कोई भी तस्वीर उठाकर देख लें, स्पष्ट हो जाएगा कि अफगानिस्तान एक खुले विचारों वाला देश था. वहां पर कट्टरपंथ के लिए कोई जगह नहीं थी. हिंसा भी ना के बराबर रहती थी. दिखता था तो सिर्फ उम्मीदों से भरा एक भविष्य और उस लक्ष्य को पाने के लिए अफगानियों द्वारा की जा रही मेहनत. स्कूल जाती बच्चियां, सड़क किनारे स्वादिष्ट व्यंजन पकाते हलवाई और खुशी से झमूने वाले अनेक यात्री. अफगानिस्तान का ये काल कुछ ऐसा था कि सबकुछ परफेक्ट दिखाई पड़ता था. उस समय का सिनेमा भी अफगानिस्तान के इस गौरवशाली इतिहास की गवाही देता था.

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फिल्मों ने बताया- सेना में शामिल होती थीं अफगानी महिलाएं

तालिबान जब पहली बार सत्ता में आया, तब उसने फिल्मों पर पूरी तरह बैन लगा दिया था. कई पुराने फिल्मी कैसेट को भी नष्ट कर दिया गया था. लेकिन फिर भी उसकी नजरों से कई ऐसी पुरानी फिल्में छूट गईं जो अब अफगानिस्तान के स्वर्णिम काल के बारे में बता रही हैं. डायरेक्टर Ariel J. Nasr ने साल 2019 में The Forbidden Reel नाम की डॉक्यूमेंट्री बनाई थी. उस डॉक्यूमेंट्री के जरिए उन्होंने अफगानिस्तान के बेहतरीन सिनेमा के दर्शन करवाए थे. उन्होंने उन फिल्मों के जरिए ऐसा दौर भी दिखा दिया था जब महिलाएं सेना में शामिल हुआ करती थीं. अब अगर फिल्मों को समाज का दर्पण माना जाए, तो इस लिहाज से ये सबकुछ एक समय अफगान की धरती पर होता था.

सभी धर्मों का सम्मान, मनाए जाते थे सारे त्योहार

अब बात जरा उस धर्म की करते हैं जिसके आधार पर आज तालिबान अफगानिस्तान को बांटना चाहता है. तालिबान ने ऐलान कर दिया है कि अफगानिस्तान में शरिया कानून को ही माना जाएगा, लोकतंत्र की कोई जगह नहीं होगी. लेकिन सैकड़ों साल पहले अफगानिस्तान बुद्ध की धरती थी. यहां पर हिंदू और सिखों की भी बड़ी आबादी रहती थी. शरिया मानने वाले इस्लामिक लोग भी थे. लेकिन तब सभी साथ में रहते थे. इस बात की गवाही खुद वो लोग देते हैं जिनके पूर्वज अफगानिस्तान में कई सालों तक रहे हैं. Shorish-Shamley बताती हैं कि उनकी मां एक मुसलमान थीं लेकिन उनके जितने भी दोस्त हुआ करते थे, वो सभी यहूदी थे. वहीं उस दौर में क्या यहूदी, क्या हिंदू और क्या सिख, हर कोई सभी त्योहार को उसी उत्साह के साथ मनाया करता था.

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लेकिन अफगानिस्तान का ये मुक्त काल 1970 के बाद से बदलने लगा था. राजनीतिक अस्थिरता बढ़ने लगी थी और विदेशी ताकतें भी हस्तक्षेप करने लगी थीं. फिर 80 के दौर में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान की धरती पर दस्तक दी और वहां से इस देश के पतन का सफर शुरू हो गया. सोवियत संघ से लड़ाई के दौरान ही अफगानिस्तान में कई मुजाहिदीन खड़े हो गए थे. उन्हीं में से एक था तालिबान जिसने बाद में इस देश पर अपना राज भी किया और यहां की संस्कृति को हमेशा के लिए तबाह कर दिया. 

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