अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी ने कई आतंकी संगठनों को फिर मजबूत कर दिया है. कभी अमेरिका के हमलों की वजह से कमजोर और छिन्न-भिन्न हो ये आतंकी संगठन अब तालिबान राज में फिर सिर उठाने लगे हैं. ये आतंकी हमले कर रहे हैं, लोगों की जान ले रहे हैं और अपने सबसे बड़े दुश्मन अमेरिका को चुनौती दे रहे हैं. ऐसे ही एक संगठन का नाम है ISIS K जो दोनों अमेरिका और तालिबान को अपना दुश्मन मानता है. ये बात हैरान कर सकती है लेकिन तालिबन और ISIS K के बीच कोई सीधा वास्ता नहीं है. दोनों एक दूसरे के कट्टर दुश्मन हैं और एक अलग विचारधारा रखते हैं.
ISIS K क्या है, कब हुआ जन्म?
ISIS K में K का मतलब खुरासन होता है. इस आतंकी संगठन को ISIS की ही एक शाखा या फिर साथी के तौर पर देखा जा सकता है. जब साल 2014 में ISIS ने सीरिया और इराक के कई इलाकों पर अपना कब्जा जमा लिया था और उसकी ताकत कई गुना बढ़ चुकी थी, उसी दौर में कई पाकिस्तनी तालिबानियों ने दूसरे आतंकी समूहों संग हाथ मिला लिया था. उनका लक्ष्य अफगानिस्तान में अपने वजूद को मजबूत करना था. नाम रख दिया गया था- आईएसआईएस- खुरासान. यहां पर खुरासन असल में एक प्राचीन जगह है जिसके अंतरगत कभी उज्बेकिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और इराक के हिस्सा आया करते थे.
अब तालिबान और ISIS K दोनों जिहाद के नाम पर आतंक फैलाते हैं. लोगों की जान दोनों ने ली है, दोनों का दुश्मन भी अमेरिका है. लेकिन फिर भी ये दोनों एक दूसरे को रास नहीं आते हैं. वजह बहुत साधारण है- दोनों का काम करने का स्टाइल.
जब 2015 में ISIS K खुद को मजबूत करने की कोशिश कर रहा था, तब इसने आरोप लगाया कि तालिबान ने जिहादी मुहिम को कमजोर किया है. यहां तक कहा जाता था कि तालिबान मजबूती से शरिया कानून का पालन नहीं करता है और वो अमेरिका की एक कठपुतली बनकर रह गया है.
तालिबान और ISIS K में अंतर
अब यहां पर ये समझना जरूरी है कि तालिबान ने खुद को अफगानिस्तान तक सीमित रखा है, लेकिन ISIS और ISIS K के सपने ज्यादा बड़े हैं. उसे कई दूसरे मुल्कों तक शरिया कानून का विस्तार करने का सपना देखा है. खुरासन की काल्पनिक सीमा अंतर्गत जितने भी देश आते हैं, सब जगह उस जिहादी मानसिकता को मजबूत करना और शरिया कानून को लागू करना उसका मिशन है. लेकिन तालिबान के साथ ऐसा नहीं है. तालिबान ने हमेशा से खुद को सिर्फ और सिर्फ अफगानिस्तान तक सीमित रखा है. उसे भी शरिया कानून लागू करवाना है, लेकिन सिर्फ अफगानिस्तान में. उसे भी अमेरिका से लड़ना है, लेकिन हथियारों के साथ बातचीत के जरिए.
कैसे बन गए बड़े दुश्मन?
अब ये 'बातचीत' ही वो पहलू है जो तालिबान और ISIS K को एक दूसरे से बिल्कुल अलग कर देती है. जब अमेरिका ने फैसला लिया था कि वो अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाएगा, तब तालिबान संग एक लंबी बातचीत चली थी. दोहा वार्ता के तहत कई समझौते हुए थे. तालिबान ने भी बड़े-बड़े वादे कर डाले थे. अब उन्हीं 'वादों' को ISIS K धोखा और गद्दारी मानता है. उसकी नजरों में तालिबान ने उसके सबसे बड़े दुश्मन अमेरिका से हाथ मिला लिया है. पूरी दुनिया जरूर वर्तमान में अफगानिस्तान में तालिबान की जीत मान रही है, लेकिन ISIS K के लिए ये सिर्फ एक समझौता है जिस वजह से उसकी जिहादी मुहिम कमजोर पड़ी है.
तालिबान के लिए भी ISIS K एक बड़े रोड़े की तरह है. अफगानिस्तान में तालिबान अपनी सरकार बनाना चाहता है, उसे पूरी दुनिया से अपने संगठन को मान्यता दिलवानी है. वो कोशिशें भी कर रहा है, लेकिन कई मौकों पर ISIS K ने उस पर पानी फेरा है. तालिबान कहता है कि अफगानिस्तान की धरती पर आतंक पनपने नहीं दिया जाएगा लेकिन तभी ISIS K आत्मघाती हमले कर देता है. ऐसे में अगर तालिबान और उसकी सत्ता के बीच सबसे बड़ा रोड़ा कोई है तो वो ISIS K है. यही वजह है कि दोनों अमेरिका और तालिबान ने कई मौकों पर ISIS K के लड़ाकों पर हमला किया है.
क्रोनोलॉजी क्या है?
ISIS K ने गुरुवार को काबुल एयरपोर्ट और उसके पास में बम धमाके जरूर किए. 100 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान भी गंवाई, लेकिन फिर भी ये आतंकी संगठन अपने मूल संगठन ISIS से हर मामले में पीछे है. एक समय ISIS ने जरूर इराक और सीरिया में खुद का राज किया था लेकिन ISIS K वहीं काम अफगानिस्तान में कभी नहीं कर सका. उसके लिए दोनों तालिबान और अमेरिका ऐसी चुनौती रहे जिससे पार पाना कभी आसान नहीं रहा. यहीं वजह है कि जब ISIS K 2015-16 में सबसे ज्यादा ताकतवर था, तब उसके पास मात्र 3000 लड़ाके थे. तब उसका कमजोर होना शुरू हुआ तो वो संख्या 500 तक आ गई. इसकी क्रोनोलॉजी कुछ इस तरह है- ISIS K और तालिबान का दुश्मन है अमेरिका. अमेरिका का दुश्मन भी है तालिबान और ISIS K. लेकिन ISIS K और तालिबान भी है एक दूसरे के दुश्मन. मतलब इस लड़ाई में अगर कोई सबसे ज्यादा अकेला पड़ रहा है तो वो है ISIS K.
लेकिन इस कमजोर ISIS K ने तालिबान से भी बड़े हमले किए है जिस वजह से अमेरिका इसे भी एक बड़े खतरे के रूप में देखता है. काबुल में जब एक लड़िकयों के स्कूल में विस्फोट हुआ था, तब 68 लोगों ने अपनी जान गंवा दी थी. उस हमले की जिम्मेदारी ISIS K ने ली थी. बाद में जब ब्रिटिश-अमेरिकी ठिकानों पर हमला हुआ. HALO ट्रस्ट के 10 लोगों को मार गिराया गया जहां पर कई सालों से अफगानिस्तान की भलाई के लिए काम किया जा रहा था. उस समय भी ISIS K का हाथ सामने आया. और अब जब काबुल एयरपोर्ट पर आत्मघाती हमला कर 100 से ज्यादा लोगों को मारा गया, तो फिर ये आतंकी संगठन जिम्मेदार माना गया. ऐसे में ISIS K कमजोर जरूर है लेकिन आतंक फैलाने के मामले में तालिबान से भी दो कदम आगे है.