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मैं साम्राज्यों का कब्रिस्तान हूं! ये है मेरी कहानी, मैं अफगानिस्तान हूं

 31 अगस्त 2021 विश्व के इतिहास में वो तारीख होगी जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद खुद को मॉर्डन वर्ल्ड का सरदार कहने वाले अमेरिका की मिलिट्री पावर उसी धारणा का शिकार हो गई जो कहती है कि अफगानिस्तान साम्राज्यों का कब्रिस्तान है. 

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30 अगस्त 2021 को काबुल में तालिबान का झंड़ा लेकर खड़े तालिबानी लड़ाके (फोटो- AP/PTI)
30 अगस्त 2021 को काबुल में तालिबान का झंड़ा लेकर खड़े तालिबानी लड़ाके (फोटो- AP/PTI)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • 'वैश्विक ताकतों की हसरतों से लहूलुहान हूं'
  • अफगानिस्तान पर कब्जे के लिए ये सनातन जंग क्यों?
  • बिना अफगानिस्तान को लांघे विश्व विजेताओं की मुकम्मल नहीं होती जीत

मैं अफगानिस्तान हूं...
वैश्विक ताकतों की हसरतों से लहूलुहान हूं...
जो चाहा रौंद गया...देखता रहा घमासान हूं...
कभी कोल्ड वार, कभी टेरर वार, 
तो कभी जिहाद हुआ सिर पर सवार,
दुनिया भर की साजिशों की जंग का मैदान हूं.
हां, मगर ये भी सच है...
अफगानी ज़िद को कोई जीत नहीं पाया...
इसलिए मैं साम्राज्यों का कब्रिस्तान हूं!

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अफगानिस्तान...कहते हैं मुझे जीता नहीं जा सकता. मुझे फतह करने की हसरत लेकर मेरी जमीन पर सैन्य बूटों को उतारने वाले दुनिया के साम्राज्यों को यहां से बड़ी रुसवाई के साथ रुख्सत होना पड़ा है. आज यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका (USA) भी चला गया. वो मेरी जमीन से अपनी आधी-अधूरी हसरतों के साथ मुंह छुपाये विदा हो गया. बाइडेन के पास अमेरिका की प्रेसिडेंटशिप तब है, जब ग्लोबल पावर सेंटर के रूप में उसकी प्रतिष्ठा का क्षरण हुआ है.

31 अगस्त 2021, ये विश्व के इतिहास में वो तारीख होगी जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद खुद को मॉर्डन वर्ल्ड का सरदार कहने वाले अमेरिका की मिलिट्री पावर उसी धारणा का शिकार हो गई जो कहती है कि मैं साम्राज्यों का कब्रिस्तान हूं. 

इतिहास से सबक न सीखने वाले इतिहास दोहराने को मजबूर होते हैं

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जब रणनीतिकार और विदेशी नीति पर टीका करने वाले डेविड इसबी ने मुझ पर एक किताब (Afghanistan :Graveyard of Empires) लिखी और अफगानिस्तान को साम्राज्यों की कब्रगाह (Graveyard of empires) कहा तो मुझे लगा कि अंकल सैम इस प्रतिस्थापना से कुछ सबक लेंगे. लेकिन महात्वाकांक्षाओं के घनीभूत टकराव में डूबी इन दंभी ताकतों को शायद इस थ्योरी पर विश्वास नहीं था. स्पैनिश विचारक George Santayana कहते हैं कि जो इतिहास से नहीं सीखते वो इतिहास दोहराने को अभिशप्त होते हैं. अमेरिका ने इतिहास से नहीं सीखा और आज वो इतिहास दोहराने को अभिशप्त हुआ. 

वही इतिहास जिसे 1842 में ब्रिटिश ने दोहराया. जिस ब्रिटेन के साम्राज्य का सूरज कभी अस्त नहीं होता था, 1842 में उस ब्रिटेन को अफगानिस्तान में नाकों चने चबाने पड़ गए थे. उसके 4500 जवान बर्फ से ढकी हिन्दूकुश की पहाड़ियों पर मार दिये गए, ब्रिटेन की मदद करने वाले 12000 अन्य लोग भी मारे गए थे. 

अधर में लटका अफगानिस्तान का भविष्य (काबुल एयरपोर्ट पर अफगानिस्तान के एक बच्चे को पकड़ता ब्रिटिश सैनिक, फोटो-AP/PTI)

मेरी जमीन पर अमेरिका आज उसी इतिहास को जीवंत कर गया जिसे 1989 में तत्कालीन सोवियत रूस (USSSR) ने दोहराया था जब 1979 से 89 तक चले 10 साल के भीषण संघर्ष के बाद सोवियत रूस के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव ने भारी मन से मेरी जमीन से अपने सैनिकों को वापस बुलाने के समझौते पर दस्तखत किए. कोल्ड वार के उस दौर में मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा के अगुवा और इस्टर्न ब्लॉक के प्रमुख USSR को इस युद्ध में अपने 15000 जवानों को गंवाना पड़ा था. 

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अफगानिस्तान पर कब्जे के लिए ये सनातन जंग क्यों?

आखिर अफगानिस्तान की जमीन पर कब्जे को लेकर इतना टकराव क्यों है? न उद्योग, न धंधे, न स्किल्ड मैन पावर, न ही विलासितापूर्ण जीवन की उम्मीद. मैं तो अभी भी मध्य युग में जी रहा एक अनमना सा ऊंघता हुआ देश हूं. तकनीक और विज्ञान से दूर. मजहब के विकृत रूपों को ढोने पर मजबूर. आप कह सकते हैं मैं एक Deficient स्टेट हूं. 

फिर मेरे लिए ये जंग क्यों? क्या आप जानते हैं  इतिहास में जितने भी विजेता हुए मेरी जमीन से गुजरे जरूर हैं. प्राचीन इतिहास की बात करें तो सिकंदर, चंद्रगुप्त मौर्य, चंगेज खान, तैमूर लंग, बाबर, और न जाने कितने लड़ाकू कबीले मुझे लांघकर गए हैं. मैं वो जमीन हूं जिस पर गुजरे बिना किसी शासक का विश्व विजेता का सपना मुकम्मल नहीं होता है. क्योंकि मध्य एशिया और दक्षिण एशिया का दरवाजा तो मैं ही हूं.

दरअसल पृथ्वी की सतह पर अफगानिस्तान नाम के भूखंड की बनावट और बसावट ऐसी है कि दुनिया के लिए मैं दुरुह और लुभावना दोनों हूं. अब देखिए अफगानिस्तान से होकर आप आसानी से पश्चिम एशिया जा सकते हैं. तुर्कमेनिस्तान, तजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान जैसे मध्य एशियाई देशों के लिए रास्ता सुगम है. मेरी सीमा चीन से लगती है. वाखान गलियारे से होकर आप चीन जा सकते हैं. ईरान मेरा पड़ोसी है. यहां से होकर आप फारस में जाकर यूरोप पहुंच सकते हैं. पूर्व में पाकिस्तान से मेरी लंबी सीमा मिलती है. 

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इस अमेरिकी सैनिक का अफगानिस्तान की मिट्टी पर आखिरी कदम, प्लेन में चढ़ते ही मिशन खत्म 

भारत के लिए मध्य एशिया में जाने का रास्ता मेरी ही जमीन से होकर जाता है. भारत चाहे पाकिस्तान होकर मध्य एशिया जाए या फिर ईरान होकर, गुजरेगा अफगानिस्तान होकर ही. भारत से मेरी सीमा भले ही अभी न मिलती हो लेकिन PoK के जिस गिलगित बाल्टिस्तान पर अभी पाकिस्तान का कब्जा है, वहां मेरी सीमा छूती है. अगर पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का होता तो मैं और भारत नजदीकी पड़ोसी होते.

19 अगस्त को काबुल एयरपोर्ट पर वतन से निकलने का इंतजार करती अफगानी लड़कियां (फोटो-AP/PTI)

कभी दुनिया का प्रसिद्ध रेशम मार्ग मेरी ही जमीन से होकर गुजरता था. कुषाण वंश का इस पर नियंत्रण रहा करता था. यही शासक मेरी गोद में बुद्ध का संदेश लेकर आए. बामियान में विशाल बुद्ध अवतरित हुए, लेकिन अतीत का वो सुनहरा दौर अब मेरी जमीन में कट्टरपंथ का मलबा बनकर दब गया है.

बात आधुनिक विश्व की. 1945 में दूसरे महायुद्ध के बाद न सिर्फ दुनिया का नक्शा बदला, बल्कि ब्रिटेन के सिर से वर्ल्ड पावर का ताज भी छिन गया. अब इस मुकुट को हासिल करने की रेस में वो दो शक्तियां थीं जो विश्व युद्ध के दौरान मिलकर हिलटर-मुसोलनी का मुकाबला कर रही थीं, लेकिन अब ये ताकतें आमने-सामने थीं. ये देश थे यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (USSR) और  यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका (USA). 

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कोल्ड वार की घातक दुश्मनी

1947 से पहले मेरी चौहद्दी भारत से मिलती थी, लेकिन 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान पैदा हुआ. ये देश हमेशा से अमेरिकी खेमे में रहा. नतीजतन USSR को डर सताने लगा कि अगर अमेरिका पाकिस्तान तक आ सकता है तो एक देश अफगानिस्तान को लांघ कर वो USSR में भी घुस सकता है. याद रहे कि तब सोवियत रूस की सीमाएं अफगानिस्तान से मिलती थीं. ये 1970-80 के दशक का शीत युद्ध का दौर था. तब अमेरिका और सोवियत रूस के बीच कट्टर प्रतिद्वंदिता रहती थी. दोनों देशों के परमाणविक हथियारों का मुंह एक दूसरे के ठिकानों की ओर ही रहता था. बस एक न्यूक्लियर बटन दबाने की देर थी और महाविनाश की शृंखला शुरू हो सकती थी. 

टकराव, जासूसी, प्रोपगैंडा, हथियारों की होड़ के उस दौर में अफगानिस्तान ही वो जमीन थी जहां दुनिया की दो महाशक्तियां एक दूसरे को पटखनी देने में जुटी हुई थी. ये कहानी मैं आपको बताऊं उससे पहले 182 साल और पीछे चलते हैं और आपको एक बार फिर बताते हैं कि इस भूमि को साम्राज्यों की कब्रगाह क्यों कहते है? 

19वीं सदी में ब्रिटेन और सोवियत रूस में थी होड़

साल 1839. जमीन वही अफगानिस्तान. 20वीं सदी के उत्तरार्ध में वर्चस्व की जो जंग अमेरिका और USSR के बीच चल रही थी, वैसी ही रस्साकशी 19वीं सदी में ब्रिटेन और USSR के बीच होती थी. दोनों ताकतें मध्य एशिया पर कंट्रोल चाहती थीं और इसके लिए अफगानिस्तान मंच बना हुआ था. ब्रिटेन तब दुनिया का चौधरी था. 

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अफगान-ब्रिटेन के बीच तीन लड़ाई, मुंह की खाई

काबुल पर कब्जा करने के लिए ब्रिटेन ने 1839 से लेकर 1919 तक अफगानिस्तान के अमीरों से तीन युद्ध किए. अगर दूसरे युद्ध में ब्रिटेन की मामूली जीत को छोड़ दिया जाए तो बाकी की दोनों लड़ाइयों में ब्रितानिया साम्राज्य को भयानक जन-धन की क्षति उठानी पड़ी.

जैसा कि हर बड़ी ताकत भय के आवरण में जीती है, उसी तरह ब्रिटेन को लगता था कि अगर काबुल उसके कब्जे में न आया तो सोवियत रूस काबुल पर कब्जा कर लेगा. 1839 में पहले संग्राम में ब्रिटेन ने काबुल पर कब्जा कर लिया और वहां अपना अमीर बिठा दिया. लेकिन अफगान की स्थानीय मिलिशिया और कबीलों का संघर्ष जारी रहा और 1842 में अफगानिस्तान और ब्रिटेन में खौफनाक जंग हुई. अफगानिस्तान के कबीलाई लड़ाकों ने दुनिया की शीर्षस्थ ताकत को पानी पिला दिया. 

तालिबान की आमद के बाद अफगानिस्तान छोड़कर पाकिस्तान जाते अफगानी नागरिक, चमन बॉर्डर(फोटो-AP/PTI)

मेरी जमीन पर हुई अंग्रेजों की ये पराजय इतनी लज्जाजनक थी कि ये धारणा ही बदल गई थी कि ब्रिटेन अपराजेय है. ब्रिटेन के 4500 सैनिक जिनमें भारतीय लड़ाके भी शामिल थे मारे गए, ब्रिटेन का साथ दे रहे 12000 नागरिक भी मारे गए.

वर्ष 1878 से 1880 के बीच दूसरा एंग्लो-अफगान वार हुआ. पिछली गलतियों से सबक लेकर इस बार ब्रिटेन मुझे शिकस्त देने में कामयाब रहा, लेकिन जीत के बावजूद भी वो इतने खौफ में था कि उसने यहां की सत्ता एक अफगान अमीर अब्दुर रहमान खान को ही सौंपी और अपनी सेना को वापस बुला लिया. 

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अमीरात ऑफ अफगानिस्तान और अंग्रेजी फौजों के बीच तीसरा युद्ध 6 मई 1919 को शुरू हुआ. लड़ाई इसलिए हुई क्योंकि अफगानिस्तान के तत्कालीन अमीर अमानुल्लाह ने अंग्रेजों से खुद को आजाद घोषित कर दिया. इस लड़ाई को अफगानिस्तान की आजादी की लड़ाई भी कहा जाता है. इस युद्ध में इस मुल्क के वार लॉर्ड्स ने अमीर का काफी साथ दिया. 

ये लड़ाई तब हो रही थी जब रूस में बोल्शेविक क्रांति (1917) हो चुकी थी, और ब्रिटेन के लिए रूस का खतरा कम हो गया था. इधर ब्रिटिश भारत में अप्रैल में हुए जलियांवाला बाग के बाद अंग्रेजों को जबर्दस्त प्रतिशोध का सामना करना पड़ रहा था. प्रथम विश्व युद्ध के खर्चे ने ब्रिटेन का खजाना सोख लिया था. इसी परिदृश्य में ये लड़ाई अगस्त के पहले हफ्ते तक चली और फिर ये मुल्क आजाद हो गया. अफगानिस्तान के अमीर ने डूरंड रेखा को ब्रिटिश भारत और अफगानिस्तान के बीच सीमा मानना स्वीकार कर लिया. इसके साथ ही अंग्रेजी महाशक्ति ब्रिटेन से हमेशा के लिए चली गई. अफगानिस्तान की धरती विश्व की उस ताकत के लिए पतनकारी साबित हुई जिसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था.

कबीलाई वजूद के बीच असंभव सा रहा राष्ट्रीय पहचान का पनपना

1919 में अफगानिस्तान आजाद तो हो गया लेकिन मेरे इस मुल्क की प्रकृति ही ऐसी है कि यहां राष्ट्रीयता की पहचान से ज्यादा बलवती क्षेत्रीय और जनजातीय पहचान है. पख्तून, ताजिक, हजारा, उज्बेक, तुर्कमान जैसी जनजातियों की बहुसांस्कृतिक पहचान के बीच यहां राष्ट्रीय पहचान का पनपना बेहद मुश्किल है. लिहाजा आजादी के बाद भी ये देश आंतरिक संघर्षों से जूझता रहा. इसलिए आप देखते हैं कि मेरी जमीन पर एक अफगानिस्तान की बात नहीं होती है. दर्जनों वार लॉर्डस मेरी मिट्टी पर पनपते हैं, हजारों मिलिशिया पैसे के लिए लड़ते हैं, जिनके लिए राष्ट्रीय अस्मिता से ज्यादा महत्वपूर्ण जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता है. इसलिए इस मुल्क में कभी अमीर की हुकूमत रहती है तो कभी तालिबान पनपता है, तो कभी अहमद शाह मसूद, हिकमतयार और हक्कानी जैसे लड़ाके अपनी रिट चलाने की कोशिश करते हैं.

सोवियत रूस आया लेकिन 15000 सैनिकों को गंवा कर गया 

1979 में सोवियत रूस और अमेरिका के बीच जब शीत युद्ध चरम पर था, तो 24 दिसंबर 1979 की एक सर्द रात को रूसी सैनिकों की बूटों की आवाज से काबुल कौंध उठा. अमु दरिया पार कर सोवियत टैंक काबुल की गलियों में आ गए. रूस को लग रहा था कि वो असंगठित और बिखरे अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना कर लेगा. 

बर्फ से ढके अफगानिस्तान में USSR आर्मी के टैंक (फोटो-GETTY)

लेकिन सोवियत रूस के इस अतिक्रमण को मेरी जमीन पर भयंकर प्रतिशोध का सामना करना पड़ा. प्रतिशोध की इस चिंगारी को अमेरिका ने डॉलर के दम और सऊदी अरब ने पेट्रो डॉलर के दम पर भड़काया. ये न समझिए कि अमेरिका यहां दानवीर और मानवता की मिसाल कायम करते हुए अफगानियों की मदद करने आया था. उसके भी सामरिक और रणनीतिक हित इस मिट्टी में मिले थे. अमेरिका कभी नहीं चाहता था कि अफगानिस्तान जिस भू-रणनीतिक स्थिति में है उस पर सोवियत रूस का कब्जा हो. क्योंकि इससे तो अमेरिका का दक्षिण एशिया आने का एक अहम रास्ता ही बंद हो जाने वाला था.

इसके अलावा पाकिस्तान जो कि उस वक्त तक अमेरिका का क्लायंट स्टेट बन चुका था उसके भी रूस की जद में आने का खतरा था. इसलिए अमेरिका ने रूस के इस विस्तारवाद का प्रोपगैंडा, हथियार और डॉलर के जरिए भरपूर विरोध किया. अमेरिका के इस विरोध का पाकिस्तान मोहरा बना. 

पाकिस्तान और अफगानिस्तान के हजारों बेरोजगार युवकों को बरगलाया गया. पाकिस्तानी ने नौजवानों को जेहाद का नारा देकर मुजाहिद्दीन बनाया गया और USSR के खिलाफ लड़ने भेज दिया. बिना नौकरी, गरीबी और अंधकारमय भविष्य से जूझ रहे युवकों को इस धार्मिक नारे में अपनी जिंदगी का मकसद दिखा. अमेरिकी हथियारों के दम पर ये युवक रूसी फौजों से लड़ने लगे. 80 के दशक के यही लड़ाके आज तालिबान के नेता बन बैठे हैं.

काबुल से रुख्सती के 2 साल बाद 15 देशों में बंट गया USSR

USSR ने 10 साल ये लड़ाई खींची, अफगानिस्तान के कई शहरों पर कब्जा किया, लेकिन मुजाहिद्दीन थम नहीं रहे थे. पाकिस्तान ने  FIM-92 Stinger  मिसाइलें मुजाहिद्दीनों को सप्लाई करनी शुरू कर दी. इस मिसाइल से मुजाहिद्दीन सोवियत हेलिकॉप्टर गिराने लगे. वे गुरिल्ला वार की रणनीति अपना रहे थे. इधर USSR में सत्ता बदल चुकी थी. राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव ने समझ लिया कि इस युद्ध को अब आगे खींचना संभव नहीं है.

1989 में USSR आर्मी को छोड़ना पड़ा काबुल (फोटो-Getty)

1988 में गोर्बाचोव ने जेनेवा समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए जिसके तहत फरवरी 1989 तक सोवियत रूस ने काबुल से अपनी सेना हटा ली.  वहीं इस वापसी के मात्र दो सालों के बाद सोवियत रूस का विघटन हो गया और ये विशाल देश 1991 में 15 गणतंत्रों में बंट गया. एक बार फिर काबुल साम्राज्यों का कब्रगाह ही साबित हुआ. कहा जाता है कि जब काबुल से रूसी कम्युनिजम का जनाजा निकल रहा था तो अमेरिका इस सुंदर दृश्य को देखने में मगन था. लेकिन मेरी इस जमीन पर अभी उसका भी इंसाफ होने वाला था. 

अफगानिस्तान का अमेरिकन चैप्टर

वर्ष 2000 में सदी बदल गई, नहीं बदली तो मेरी तकदीर. जिन मुजाहिद्दीनों को अमेरिका और पाकिस्तान ने खड़ा किया था USSR के जाने के बाद वे बेजार और बिखरे थे. एक बार फिर से उनकी क्षेत्रीय पहचान टकरा रही थी. इनमें से कई ताकतों ने तालिबान की शक्ल लेकर 1996 में ही अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा कर लिया. 

तालिबान कौन है, काबुल पर उनके कब्जे से इतनी खौफ में क्यों है दुनिया? 

साल 2001 में 11 सितंबर को भारत के लोगों ने समाचार चैनलों पर जो कुछ देखा वो दृश्य फिल्म से भी भयावह था. न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की गगनचुंबी इमारतें हवाई जहाज के हमलों से आग का गोला बनकर जैसे पिघल रही थीं.  ऐसी तस्वीरें दुनिया ने कभी नहीं देखी थी. आतंकी हमले की रोमांचित और भयभीत कर देने वाली वीडियो दुनिया ने इतनी स्पष्टता और बारीकी से पहली बार देखी थी. इस हमले में लगभग 4000 अमेरिकी मारे गए. 

अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इस हमले के लिए तालिबानी आतंकी मुल्ला उमर और अल कायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को जिम्मेदार ठहराया. जॉर्ज बुश ने कहा कि वे हमलावरों का ढूंढकर शिकार करेंगे. इसके साथ ही नाटो के नेतृत्व में अमेरिकी सेनाएं काबुल में प्रवेश कर गईं. 7 अक्टूबर 2001 को बुश ने तालिबान के ठिकानों पर एयरस्ट्राइक की घोषणा कर दी. 

20 साल गुजर गए. अमेरिका ने अपने दुश्मनों आतंकी मुल्ला उमर और ओसामा बिन लादेन का खात्मा कर दिया है. लेकिन मैं अफगानिस्तान लगभग उसी मोड़ पर हूं जैसा वर्ष 2000 में था. मलबों में भविष्य तलाशता, बारूदों से बर्बाद हुए शवों को उठाता, जख्मों से रिसते हुए लहू को देखता, काबुल-कंधार और गजनी में AK-47 के साथ खेलते बच्चों को त्रासदीपूर्वक देखता. आज 31 अगस्त 2021 को अमेरिकी सेना वापस जा रही है, उसी धारणा को मजबूत करते हुए कि अफगानिस्तान साम्राज्यों का कब्रिस्तान है.

 

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