जर्मनी में रह रहे भारतीय कपल से उनका बच्चे को छीनकर फॉस्टर केयर में रख दिया गया. बेबी अरिहा शाह पिछले दो सालों से वहीं हैं. भारतीय पेरेंट्स अपनी बेटी को वापस पाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन जर्मन सरकार इसके लिए राजी नहीं. उसका मानना है कि बच्ची के साथ यौन दुर्व्यवहार हुआ है. चाइल्ड प्रोटेक्शन को लेकर बहुत सख्त होने का दावा करते दूसरे देश कई बार मामूली मानवीय चूक भी नजरअंदाज नहीं कर पाते और बच्चे का बचपन छिन जाता है. बेहद चाइल्ड-फ्रेंडली देश नॉर्वे पर भी अक्सर ऐसा आरोप लगा.
क्या है बेबी अरिहा का मामला?
बच्ची के पिता जर्मनी में इंजीनियर बतौर काम कर रहे हैं. लगभग 18 महीने पहले अरिहा के कपड़ों में खून लगा मिला. जर्मन प्रशासन ने माता-पिता पर बच्ची के यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए उसे कस्टडी में ले लिया. पेरेंट्स गुहार लगाते रहे कि उसे एक छोटे हादसे में चोट लगी, लेकिन बात सुनी नहीं गई. पिछले डेढ़ सालों से अरिहा फॉस्टर होम में है और 6 महीने और बीतते ही वो दोबारा कभी अपने माता-पिता के पास नहीं भेजी जा सकेगी. असल में वहां माना जाता है कि 2 साल फॉस्टर के माहौल में बिताने के बाद बच्चे दूसरे माहौल में एडजस्ट नहीं कर पाते. यानी अगर कुछ ही समय में बच्ची वापस नहीं लौटी तो भारतीय कपल को उसकी उम्मीद ही छोड़नी होगी.
बच्चों पर हिंसा के कितने मामले
दुनियाभर में बच्चों पर हिंसा के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं. साल 2020 में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट आई, जिसमें दावा था कि दुनिया में कुल बच्चों की लगभग आधी आबादी हर साल शारीरिक-मानसिक और यौन हिंसा तक झेलती है. ‘ग्लोबल रिपोर्ट ऑन प्रिवेंटिंग वायलेंस अगेंस्ट चिल्ड्रन 2020’ का ये अध्ययन कुल 155 देशों में हुआ, जिसमें लगभग एक अरब बच्चों को एब्यूज का शिकार माना गया.
हिंसा रोकने के लिए हर देश अपनी तरह से कोशिश कर रहा है. यूरोपियन देशों में इसे रोकने के लिए सख्त कानून हैं. लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है. ये कानून कई बार इतने कड़े हो जाते हैं कि बच्चों को लपककर उनके पेरेंट्स से अलग फॉस्टर केयर में डाल दिया जाता है.
अतिरिक्त सख्ती का आरोप लगता रहा
नॉर्वे पर अक्सर ही इस क्रूरता के आरोप लगते रहे. वहां की चाइल्ड वेलफेयर एजेंसी को बेर्नवर्नेट कहते हैं, जिसका मतलब ही है बच्चों की सुरक्षा. एजेंसी को पूरे कानूनी हक हैं कि वो संदेह के आधार पर भी फैसला ले सके. जब भी एजेंसी को लगता है कि कोई माता-पिता बच्चे की अनदेखी कर रहे हैं, या उसके साथ किसी तरह की हिंसा हो रही है तो वो तुरंत एक्शन में आती है. किसी तरह का सवाल-जवाब या सफाई नहीं मांगी जाती, बल्कि बच्चे को तपाक से उठाकर फॉस्टर केयर या किसी वेलफेयर संस्था में भेज दिया जाता है. एशियाई देशों को छोड़कर यही कायदा ज्यादातर देशों में है, फिर नॉर्वे कटघरे में क्यों?
साल 2008 में एक मामले में मारपीट के चलते बच्चे की जान चली गई. इसके बाद बेर्नवर्नेट के नियम काफी कड़े हो गए. वो छोटी-सी चूक पर भी तुरंत फैसले लेने लगी. धीरे-धीरे बच्चे अपने घरों में कम, फॉस्टर केयर में ज्यादा दिखने लगे. अकेले साल 2014 में लगभग पौने 2 हजार बच्चों को उनके पेरेंट्स से अलग कर दिया गया. उनमें ज्यादातर बच्चे वे थे, जिनके माता-पिता नॉर्वे से नहीं थे. इनमें से भी काफी लोग भारतीय थे.
आमतौर पर विदेशी जोड़ों से ही बच्चे छीने गए
देश आरोप लगाने लगे कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है. कई देश कहने लगे कि उनके यहां बच्चों की देखभाल का तरीका अलग होता है. वे बच्चों को डांटते भी हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वे उनके साथ किसी तरह की हिंसा कर रहे हैं. ये सिर्फ परवरिश का फर्क है. चेक गणराज्य के तत्कालीन राष्ट्रपति मिलॉस जेमन ने ये तक कह दिया कि नॉर्वे के सोशल वर्कर उनके बच्चों के साथ नाजियों जैसा व्यवहार कर रहे हैं. वे जानबूझकर बच्चों और पेरेंट्स को अलग कर रहे हैं ताकि उन्हें अपनी तरह बना सकें.
अलग-अलग हैं परवरिश के तरीके
नॉर्वे में बच्चे को हल्की सी चपत लगाने पर भी माता-पिता या अभिभावकों को जेल हो सकती है. वहीं भारत समेत कई देशों में पेरेंट्स इतनी गुंजाइश ले ही लेते हैं. तो अगर आप नौकरी के लिए नॉर्वे में हैं और बच्चे की किसी गलती पर उसे थप्पड़ मार दें तो कुछ ही देर में वेलफेयर एजेंसी आकर बच्चे को साथ ले जाएगी और पुलिस कानूनी कार्रवाई करेगी.
बेटे को फ्रॉक पहनाना भी क्रूरता
वेलफेयर एजेंसी अजब-गजब कारणों से बच्चों को माता-पिता से अलग कर देती है. जैसे अगर पेरेंट्स ज्यादा उम्र के हों और बच्चा छोटा हो, तो एजेंसी मान लेती है कि बच्चे को पूरी केयर नहीं मिल पा रही होगी. या फिर अगर कोई बच्चा जन्म से मेल है, लेकिन मां या पिता उसे शौक से फ्रॉक पहना दें तो भी वहां की एजेंसी बेर्नवर्नेट की नजर में ये क्रूरता है.
पेरेंट्स ने लगाया अपहरण का आरोप
साल 2017 में मामला इतना गरमाया कि नॉर्वे के ही 170 अधिकारियों ने वेलफेयर एजेंसी को सुधारने या बंद करने की मांग उठा डाली. उनका कहना था कि बच्चों की हर समस्या का हल उन्हें फॉस्टर केयर में डाल देना नहीं है. इससे वे अपने माता-पिता से दूर हो जाते हैं, जिसका आगे चलकर बहुत खराब असर होता है. यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स (ECHR) में अब भी कई मामले चल रहे हैं, जिसमें अभिभावकों ने आरोप लगाया कि नॉर्वे की सरकार ने उनके बच्चों को किडनैप कर लिया.
किस देश में कितने सेफ हैं बच्चे?
कई संस्थाएं इस बात पर नजर रखती हैं कि कौन सा देश बाल सुरक्षा पर कैसा काम कर रहा है. ग्लोबल एनजीओ किड्स राइट्स इंडेक्स 2020 यूनाइटेड नेशन्स के डेटा को देखकर ये बताता है कि कौन सा देश बच्चों के लिए कितना सेफ है. इस लिस्ट में आइसलैंड, स्विटरजरलैंड और फिनलैंड टॉप पर हैं. कुल 182 में आइसलैंड सबसे सुरक्षित माना जाता है.
भारत में बच्चों की सुरक्षा और विकास तय करने के लिए कई एजेंसियां हैं. इंडिया चाइल्ड वेलबीइंग रिपोर्ट 2021 ने देश के सभी राज्यों को देखने के बाद माना कि केरल चाइल्ड सेफ्टी के मामले में सबसे ऊपर है. वहीं मेघालय इस मामले में सबसे खराब है.