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दंगाइयों ने जला डाला 'धानमंडी-32', कभी हुआ करता था PMO, यहीं से बंगबंधु ने बनाया था याह्या खान से 'बांग्लादेश' जीतने का प्लान

पाकिस्तान की हुकूमत को आंख दिखाकर बांग्लादेश की आजादी का बिगुल मुजीबुर्रहमान ने इसी घर से फूंका था. कल दंगाइयों के हथौड़े और छेनियां इस घर पर नहीं बल्कि बांग्लादेश के अस्तित्व पर चले थे. ये हमला शेख हसीना के पिता और बांग्लादेश में बंगबंधु के नाम से मशहूर मुजीबुर्रहमान के घर पर नहीं बल्कि मुल्क की आजादी में उनके योगदान पर था. 

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शेख मुजीबुर्रहमान के धानमंडी-32 का इतिहास
शेख मुजीबुर्रहमान के धानमंडी-32 का इतिहास

बुलडोजर, फावड़े, हथौड़े और क्रेन लेकर गुस्से से तमतमा रही हिंसक भीड़ जब बांग्लादेश की राजधानी ढाका की धानमंडी लेन में घुसती है तो लगता है मानो किसी फिल्म का कोई दृश्य है. यूं तो धानमंडी लेन में कई बड़ी इमारतें हैं लेकिन दंगाइयों के निशाने पर था धानमंडी-32. बांग्लादेश के दशकों के इतिहास को समेटती इस इमारत पर बुलडोजर चलाया गया. हथौड़े और छेनियों से इसे तोड़ा गया. इतने से भी मन ना भरा तो इसे आग में झोंक दिया. यह कोई आम घर नहीं था बल्कि बांग्लादेश की नींव रखने वाले राष्ट्रपिता शेख मुजीबुर्रहमान के सपनों का आशियाना था. 

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पाकिस्तान की हुकूमत को आंख दिखाकर बांग्लादेश की आजादी का बिगुल मुजीबुर्रहमान ने इसी घर से फूंका था. कल दंगाइयों के हथौड़े और छेनियां इस घर पर नहीं बल्कि बांग्लादेश के अस्तित्व पर चले थे. ये हमला शेख हसीना के पिता और बांग्लादेश में बंगबंधु के नाम से मशहूर मुजीबुर्रहमान के घर पर नहीं बल्कि मुल्क की आजादी में उनके योगदान पर था. 

यूं तो बांग्लादेश के इतिहास को इस घर से जुदा होकर नहीं देखा जा सकता. इसकी जड़ें बेशक पश्चिमी पाकिस्तान की सरपस्ती से जुड़ी हुई थीं लेकिन धानमंडी-32 की चारदीवारी के भीतर ही आजादी का पहला अंकुर फूटा था. साल था 1955 जब मुजीबुर्रहमान पहली बार पूर्वी बंगाल विधानसभा के लिए चुने गए. 1947 में हुए भारत के बंटवारे के बाद यह पूर्वी बंगाल में हुआ पहला चुनाव था. उस समय मुजीब अब्दुल गनी रोड पर हाउस नंबर 15 में रहा करते थे.  

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लोन की रकम से खड़ा किया धानमंडी-32 आवास

बांग्लादेश के जाने-माने स्कॉलर डॉ. जगन्नाथ बरुआ अपनी किताब Bangabandhu 32 Number Bari में लिखते हैं कि 1955 में सरकार ने एक जमीन आवंटन प्रोग्राम शुरू किया. शेख मुजीब की बेगम फाजिलतुन्नेसा की ख्वाहिश थी कि इस सरकारी प्रोग्राम का लाभ उठाया जाए. उन्होंने इसे लेकर अपनी इच्छा जाहिर की तो उनके निजी सचिव नुरुज्जमान ने फटाफट उनके नाम पर फॉर्म भर दिया. 

दो साल के इंतजार के बाद 1957 में फाजिलतुन्नेसा के नाम पर धानमंडी में एक बीघा प्लॉट अलॉट किया गया. कीमत थी 6 हजार टका. उस समय मुजीब पाकिस्तान टी बोर्ड के चेयरमैन थे. उन्होंने 2 हजार टका की शुरुआती रकम अदा की जबकि बाकी के 4 हजार टका किश्तों में दिए. लेकिन ये वो समय भी था, जब मुजीब अपने बगावती तेवरों की वजह से पाकिस्तानी सेना के रडार पर थे. वह गिरफ्तारी से बचने के लिए लगातार लोकेशन बदलते रहते थे.

शेख हसीना की किताब शेख मुजीब अमर पिता में इस वाकये को विस्तार से बताया गया है. हसीना कहती हैं कि 1958 में जब मुजीब को गिरफ्तार किया गया तो सेगुनबागीचा के सरकारी आवास  जहां उनका परिवार रहता था, उसे खाली करवा लिया गया. इस वजह से उनके परिवार को किराये के मकान में रहना पड़ा. 1960 तक जाकर फाजिलतुन्नेसा समझ चुकी थी कि अब उन्हें ढाका में रहने के लिए स्थाई जगह की जरूरत है. तब जाकर धानमंडी के उस एक बीघा प्लॉट पर बनना शुरू हुआ वो मकान जहां से इतिहास की इबारत लिखी जानी  थी.

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लेकिन मुजीब के लिए रास्ता उतना आसान भी ना था. घर बनाने के लिए उन्होंने दोस्तों से मदद ली और हाउस बिल्डिंग फाइनेंस कॉरपोरेशन से लोन तक लिया. तब जाकर 1961 में जाकर तैयार हुआ तीन कमरों वाला सिंगल स्टोरी मकान.

1965 आते-आते एक मंजिल और दो कमरे और बढ़ गए. मुजीबुर्रहमान ने घर के ग्राउंड फ्लोर के एक बड़े हिस्से को लाइब्रेरी में तब्दील कर दिया जबकि एक हिस्से में अवामी लीग का ऑफिस चलता था.

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कई आंदोलनों की जन्मभूमि है धानमंडी-32

धानमंडी-32 कोई आम इमारत नहीं है बल्कि यहां से निकले कई आंदोलनों की जन्मभूमि है. मुजीबुर्रहमान की अगुवाई में इसी घर से पाकिस्तानी हुकूमत के खिलाफ बिगुल बजाया गया था.

1962 में एंटी अयूब मूवमेंट की चिंगारी यहीं से भड़की थी. मुजीब रात-रात भर जागकर इसी घर की चारदीवारी के भीतर सीक्रेट मीटिंग किया करते थे. बरुआ एक जगह अपनी किताब में कहते हैं कि यह घर बहुत जल्दी ही पूर्वी बंगाल की राजनीति का केंद्र बन गया था. दिसंबर 1963 में हुसैन शहीद सुहरावर्दी की मौत के बाद 25 जनवरी 1964 को धानमंडी-32 में एक बैठक हुई. इस दौरान अब्दुर राशिद को अवामी का अध्यक्ष जबकि मुजीब को महासचिव चुना गया, जो उनके लिए टर्निंग प्वॉइन्ट साबित हुआ.

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बांग्लादेश के जाने-माने लेखक मोहिउद्दीन अहमद की किताब अवामी लीग: उत्थान पर्व 1948-1970 में बताया गया है कि बंगालियों के लिए 1966 के छह सूत्रीय ऐतिहासिक चार्टर को यहीं तैयार किया गया था. यह चार्टर तैयार होने के बाद मुजीब ने लाहौर में इसका ऐलान किया. 

इसे आधिकारिक तौर पर 21 फरवरी 1966 को धानमंडी-32 में हुई पूर्वी पाकिस्तान अवामी लीग की कार्यकारी समिति की बैठक में मंजूर किया गया. इन सबके बीच आठ मई को मुजीबुर्रहमान को उनके घर से ही गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन उनकी गैरमौजूदगी में छह सूत्रीय यह आंदोलन चलता रहा, जिसकी जिम्मा संभाला उनकी बेगम फाजिलतुन्नेसा ने.

1969 में जब मुजीब जेल से बाहर आए तो इसी घर के ड्राइंग रूम में 1970 के चुनाव की रणनीति तैयार की गई. पाकिस्तान के तानाशाह जनरल याह्या खान ने बगावती हवा को भांपते हुए नेशनल असेंबली सत्र को स्थगित कर दिया, जिसके बाद एक मार्च 1971 को असहयोग आंदोलन शुरू हुआ.

किताब में कहा गया है कि इस बीच अमेरिकी राजदूत जोसेफ फारलैंड और जनरल राव फारमन अली मुजीब के घर पहुंचे और बेहद गोपनीय बैठक की. सियासी फिजा बता रही थी कि बड़ा परिवर्तन होने वाला है. सात मार्च को मुजीब अपने घर से ऐतिहासिक भाषण देने वाले थे. उन्होंने एक शाम पहले पार्टी के कुछ बड़े नेताओं के साथ बैठक की. इस बैठक में तय किया गया कि 23 मार्च को मुजीब अपने इसी घर पर आजाद बांग्लादेश का झंडा फहराएंगे. उन्होंने ऐसा किया भी.

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लेकिन पाकिस्तानी फौज मुजीब के इरादों को भांप चुकी थी. बांग्लादेश की आजादी की घोषणा से कुछ घंटे पहले मुजीब ने धानमंडी-32 में अवामी लीग के नेताओं के साथ बैठक की लेकिन उसी रात पाकिस्तानी सेना ने उनके घर को चारों ओर से घेरकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया. लेकिन वह गिरफ्तारी से पहले ही वायरलेस मैसेज से आजादी का ऐलान कर चुके थे.

बांग्लादेश की आजादी के संग्राम के उस दौर में पाकिस्तानी सेना ने धानमंडी-32 में ही उनके परिवार को नजरबंद रखा था. आजादी के बाद भी मुजीब इसी घर में रहे. वह प्रधानमंत्री बनने के बाद यहीं से देश चलाते रहे. उन्होंने प्रधानमंत्री आवास को कोई खास तवज्जो नहीं दी.

धानमंडी-32 की दीवारों ने खूनी तांडव भी देखा

यूं तो मुजीबुर्रहमान का ये आशियाना आजादी के गढ़ से लेकर कई विदेशी मेहमानों का गेस्टहाउस भी रहा. यहां इंदिरा गांधी से लेकर मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात तक की मेजबानी की गई. लेकिन इस घर की दीवारें खून से भी सनी हुई हैं. 

15 अगस्त 1975 की उस रात बांग्लादेश में हुए सैन्य तख्तापलट में शेख मुजीबुर्रहमान और उनके पूरे परिवार का कत्ल भी इसी घर में किया गया. मुजीब की दोनों बेटियां शेख हसीना और शेख रेहाना इस हमले में बच गईं क्योंकि वे हमले के वक्त जर्मनी में थीं.

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ढाका में जब शेख हसीना के पिता की इस निशानी और इस राष्ट्रीय धरोहर पर बुलडोजर चलाया जा रहा था तो उन्होंने नम आंखों से कहा- बुलडोजर से घर तो गिरा दोगे, पर इतिहास कैसे मिटा पाओगे.

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