विदेशी भाषा बोलने वाले देशों में अंग्रेजी का स्तर बताने वाली संस्था एजुकेशन फर्स्ट ने साल 2022 का English Proficiency Index जारी किया है. चीन इसमें लगातार पिछड़ते हुए अब 62वें नंबर पर आ चुका है. दो साल पहले वो लिस्ट में 38वें नंबर पर था. वहीं एक समय पर चीन से पिछड़े हुए देश जैसे सिंगापुर, फिलीपींस, मलेशिया और हांगकांग अब अंग्रेजी बोलने-पढ़ने के मामले में लगातार ऊपर जा रहे हैं. तो क्या चीन की नई पीढ़ी को इंग्लिश पढ़ना पसंद नहीं, या कुछ अलग ही झोल है!
अंग्रेजी पढ़ेंगे तो घटेगा कल्चर पर यकीन!
बीते साल के आखिर में वहां की नेशनल पीपल्स कांग्रेस ने स्कूलों से फॉरेन लैंग्वेज को दिया जाने वाला समय घटाने को कहा है. फॉरेन लैंग्वेज में बड़ा हिस्सा अंग्रेजी का है. कांग्रेस के मुताबिक अंग्रेजी पढ़ने की बजाए चीनी बच्चों को अपना साहित्य जानना चाहिए ताकि वे देश पर गर्व कर सकें. इसे 'कल्चरल कॉन्फिडेंस' बढ़ाने की कोशिश कहा गया. बात वहां के सोशल मीडिया पर वायरल हो गई और यूजर्स नेताओं को जमकर ट्रोल करने लगे.
चीन में बीते कुछ सालों में स्कूलों के सिलेबस में भारी बदलाव की खबरें आईं. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना ने ऐसा पाठ्यक्रम सुझाया जो बच्चों को वर्तमान राष्ट्रपति और चीन के बाकी बड़े नेताओं के बारे में बताए. ब्लूमबर्ग अखबार ने इसे शी-थॉट कहते हुए विस्तार से बताया था कि इसमें बताया जाएगा कि शी जिनपिंग किस तरह से अपने देश को आगे ले जा रहे हैं, उनके कूटनीतिक तौर-तरीके कैसे हैं और क्यों युवाओं को उनका सपोर्ट करना चाहिए. पार्टी ने ये भी सुझाया कि अंग्रेजी को दिया जाने वाला समय अब शी-थॉट पर लगाया जाए.
पढ़ाई में इस तरह के दखल की बातें कई और कम्युनिस्ट देशों से भी आती रहीं
कोविड से ऐन पहले रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने टीन-एजर्स के री-एजुकेशन के लिए पेट्रिऑटिक कैंप लगाने की बात कही थी. पुतिन ने सीधे-सीधे कहा था कि नई पीढ़ी का ब्रेनवॉश हो चुका है और वे अपने देश से कट रहे हैं. कैंप या नई तरह की पढ़ाई से वे वापस अपने देश से जुड़ सकेंगे. नॉर्थ कोरिया दुनिया के सबसे ज्यादा रहस्यमयी देशों में से है, लेकिन दब-दबाकर वहां से भी ऐसी बातें आती हैं.
चीन के शंघाई में पिछले साल ही प्राइमरी स्कूल के लिए इंग्लिश टेस्ट की अनिवार्यता खत्म कर दी गई. एजुकेशन काउंसिल ने कहा कि अगर कोई स्कूल अंग्रेजी का टेस्ट लेता भी हो तो उसे नंबर फाइनल रिजल्ट में नहीं जोड़े जाएं. पहले भी दो बार शंघाई में ये प्रयोग हो चुका है, जब इंग्लिश को चीनी बच्चों के कल्चरल कॉन्फिडेंस में रोड़ा मानते हुए उसका एग्जाम रोका गया था. बाद में पेरेंट्स के विरोध के बाद फैसला वापस ले लिया गया.
कहा जा रहा ग्रेट लीप बैकवर्ड
चीन की यूनिवर्सिटीज में ग्रेजुएशन के दौरान इंग्लिश जरूर एक सबजेक्ट होता है, जिसका कॉलेज इंग्लिश टेस्ट नाम से एग्जाम भी होता है. ये अलग बात है कि इसके बाद भी चीन का सामान्य ग्रेजुएट अक्सर बेसिक अंग्रेजी में भी संघर्ष करता है. वो न तो सफाई से ईमेल कर पाता है, न ही अंग्रेजी एनाउंसमेंट समझ पाता है. एक्सपर्ट इसे अंग्रेजी से लव-हेट रिलेशनशिप नहीं, बल्कि अलग तरह से देखते हैं. इसे ग्रेट लीप बैकवर्ड कहा जा रहा है. यानी पीछे को जाना.
पचास के दशक के आखिर में चीन में इस तरह का दौर आया था, लेकिन वो आर्थिक फ्रंट पर था. तब चीन कारखाने बनाने में ऐसे जुटा था कि खेती-किसानी कम हो गई. वो दौर माओ जेडांग का था, जिसने गांवों के लोगों को खेत छोड़कर फैक्ट्री में आने को कहा. बात मानी भी गई. नतीजा ये हुआ कि चीन में भयंकर सूखा और अकाल पड़ा. लगभग ढाई करोड़ लोग भूख से मरे. इसे Great Chinese Famine कहा जाता है. तब आगे बढ़ता हुआ चीन एकदम से ठिठककर कई कदम पीछे आ गया. अब एक बार फिर वही ट्रेंड दिख रहा है. कल्चरल कॉन्फिडेंस जुटाने के नाम पर चीन खुद को बाकी दुनिया से काट रहा है. अंग्रेजी पर लगातार वार यही संकेत देता है.
इसलिए खा रहे मार
अंग्रेजी पर कमजोर पकड़ के बाद भी विदेशी यूनिवर्सिटीज चीनी स्टूडेंट्स को, खासतौर पर ग्रेजुएशन के लिए दाखिला दे देती हैं क्योंकि इससे उन्हें भारी फायदा होता है. लेकिन एडमिशन के बाद अक्सर वे भाषा के चलते अपने पसंदीदा विषय में भी संघर्ष करते हैं. हायर एजुकेशन स्टेटिस्टिक्स एजेंसी (हेसा) ने अपने देश में अच्छा परफॉर्म करते चीनी स्टूडेंट्स के विदेशों में खराब प्रदर्शन को लेते हुए स्टडी की तो पाया कि सिर्फ 42% चीनी ही अंडरग्रेजुएशन के पहले साल के दौरान पास हो पाते हैं. वहीं बाकियों के साथ ये प्रतिशत कहीं ऊपर है. हेसा ने इसकी एक वजह अंग्रेजी को माना.
इंग्लिश प्रोफिशिएंसी में भारत कहां है?
इंग्लिश प्रोफिशिएंसी इंडेक्स 111 देशों में 2 मिलियन से ज्यादा वयस्कों की अंग्रेजी के आधार पर बताता है कि कौन सा देश इस भाषा के मामले में कहां है. साल 2022 में भारत की रैंकिंग 52वी रही. एशियाई देशों में हालांकि हम 6वें नंबर पर हैं. नीदरलैंड इसमें सबसे ऊपर है. लिस्ट में वे देश शामिल नहीं, जहां की नेटिव लैंग्वेज ही अंग्रेजी है.