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क्या है कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट? जिस पर लगा है जासूस बनाने का आरोप, भारत में भी हैं शाखाएं

खुफिया तरीके से काम करता चीन जासूसी के लिए भी अलग हथकंडे अपना रहा है. वो चीनी भाषा और कल्चर सिखाने के नाम पर किसी भी देश में घुसता और स्टूडेंट्स के दिमाग को हथियार बना लेता है. कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट (CI) नाम से चल रहा उनका सेंटर सीधे बड़ी यूनिवर्सिटीज को टारगेट करता और बड़ी फंडिंग कर चुपके से जासूसी का जाल बिछा देता है.

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कन्फ्यूशियस चीनी दार्शनिक थे, जो पढ़ाई-लिखाई की बात करते. (Pixabay)
कन्फ्यूशियस चीनी दार्शनिक थे, जो पढ़ाई-लिखाई की बात करते. (Pixabay)

भारतवंशी ब्रिटिश PM Rishi Sunak जब प्रधानमंत्री पद की रेस में थे, तो उनके कुछ बड़े वादों में से एक ये भी था कि वे कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट बंद करा देंगे. China पर हमलावर होते हुए सुनक ने सीधे आरोप लगाया कि चीन अपनी भाषा सिखाने की आड़ में असल में देशों में अपने जासूस फैला रहा है. इससे पहले भी उसपर यही आरोप कई दूसरे देश लगा चुके हैं. कहा तो ये तक जाता है कि चीन के जासूस सिर्फ एक इंटेलिजेंस एजेंसी तक सीमित नहीं, बल्कि ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड जैसे संस्थानों तक फैले हैं. वो पैसे देकर इस तरह से ब्रेनवॉश करता है कि वे चीन के पक्ष में माहौल बनाने लगें.

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जासूसी और लोगों को खरीदने के खेल में माहिर है चीन!

कोविड का शुरुआती दौर शायद बहुतों को याद हो, जब देश चीन पर जानकारी छिपाने का आरोप लगा रहे थे. उस दौरान भी कई एक्सपर्ट्स ने चीन का साथ दिया था. यहां तक कि वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन तक पर चीन से पैसे लेकर मुंह बंद रखने का आरोप लग गया था. अपने मामले में इतना सीक्रेटिव देश दूसरों से जानकारी निकलवाने में माहिर है. उसकी डिप्लोमेटिक रणनीति का ही हिस्सा है कन्फ्यूशियस संस्थान. बता दें कि कन्फ्यूशियस एक चीनी दार्शनिक था. 550 ईसा पूर्व जन्मे कन्फ्यूशियस ने तत्कालीन चीनी समाज की बुराइयों को खत्म करने के लिए पढ़ाई-लिखाई की बात की थी. उन्हीं की याद में चीन में इस संस्थान का कंसेप्ट आया. 

confucius institute china
अमेरिका में भी कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट की ब्रांच है. (Getty Images)

इतने देशों में है सीआई का नेटवर्क

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चीन की सरकारी संस्था हेनबेन का ये ब्रेन चाइल्ड पहली बार दक्षिण कोरिया के सिओल में साल 2004 में खुला. हेनबेन चीनी शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आता है और उसकी वेबसाइट पर लिखा है कि वो विदेशों में चीनी लैंग्वेज और कल्चर सिखाने का काम करता है ताकि देश आपस में जुड़ सकें. कुछ ही सालों के भीतर ये इंस्टीट्यूट 146 देशों में फैल गया. लगभग 10 मिलियन विदेशी स्टूडेंट्स चीनी भाषा सीखने लगे. ये बहुत बड़ी संख्या है, जिसपर चीन दिल खोलकर पैसे भी लगा रहा है. 

सीआई एक खास तरीके से काम करता है

वो नामी यूनिवर्सिटीज को संपर्क करता है और उसके विदेशी भाषा सिलेबस में चीन की भाषाओं को भी शामिल करने की दरख्वास्त करता है. बदले में वो कॉलेज बिल्डिंग, टीचरों और दूसरी जरूरतों के नाम पर बड़ी फंडिंग करता है. पॉलिटिको मैग्जीन की मानें तो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना इसके लिए सालाना 10 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा पैसे खर्च कर रहा है. 

इस तरह होता है ब्रेनवॉश

ये सब इसलिए नहीं कि विदेशी बच्चे या प्रोफेसर चीनी भाषा सीख जाएं, बल्कि ये एक तरह का जाल होता है. चीन से आए प्रोफेसर अपनी हिस्ट्री पढ़ाते हुए एक किस्म का ब्रेनवॉश कर देते हैं ताकि पढ़ने वालों को चीन ही सबका सताया हुआ और तब भी सबका भला सोचने वाला दिखे. जिनपर इसका भी फर्क नहीं पड़ता, उन्हें चीन के दौरे का आमंत्रण मिलता है, जिसका खर्च वहां की सरकार देती है. लग्जरी यात्रा बहुतों का मन बदल देती है. अब ये शख्स एक तरह से चीन का टूल है, जो उसके लिए अनजाने में ही या तो जासूसी करेगा, या फिर उसके पक्ष में बात करेगा. 

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भाषा सिखाने के नाम पर जासूसी का आरोप चीन पर लगता रहा. सांकेतिक फोटो (Pixabay)

इसका असर भी खूब होता है

कुछ साल पहले तेल अवीव यूनिर्सिटी ने फालुन गोंग समुदाय की एक प्रदर्शनी को बंद करवा दिया. ये वही समुदाय है, जिसने चीन की सरकार पर अमानवीय हिंसा के आरोप लगाए थे. अमेरिका की नॉर्थ कैरोलिना स्टेट यूनिवर्सिटी ने तिब्बती धर्म गुरु 14वें दलाई लामा के आने पर रोक लगा दी थी. बता दें कि कि चीन तिब्बत पर अपना अधिकार मानता है और यहां तक कि धर्म गुरुओं को भी अपने हिसाब से चलाना चाहता है. 

भारत सरकार हुई सख्त

ब्रिटेन में लगभग 30 सीआई हैं, जो पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा है. इसी वजह से सुनक ने रेस जीतने के लिए इसे भी मुद्दा बनाया. भारत में भी मुंबई, दिल्ली और दक्षिणी भारत में कई यूनिवर्सिटीज सीआई से जुड़ी हुई हैं. जासूसी के आरोपों को देखते हुए यूजीसी ने इसी साल अप्रैल में एक सर्कुलर जारी किया. इसके तहत सीआई से जुड़ने से पहले सबको फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट से क्लीयरेंस लेना होगा. फिलहाल विदेशी फंडिंग लेने वाले NGOs को भी इस क्लीयरेंस की जरूरत पड़ती है. इससे ट्रैक रखना आसान हो जाएगा कि कितने पैसे आ रहे हैं, कहां लग रहे हैं और कौन इससे जुड़ा हुआ है.

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