
तुर्की की राजधानी अंकारा समेत देश के लगभग सभी शहरों में राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोगन के विरोधी एकरेम इमामोग्लू की गिरफ्तारी के विरोध में लाखों की संख्या में प्रदर्शनकारी सड़कों पर हैं. प्रदर्शनों को रोकने के लिए सड़क पर उतरी पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच लगातार झड़प की खबरें आ रही हैं. पुलिस प्रदर्शनकारियों के खिलाफ रबर बुलेट, आंसू गैसे के गोले और मिर्ची गैस के गोले दाग रही है. सैकड़ों प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार भी किया जा चुका है.
तुर्की के 55 से अधिक प्रांतो में प्रोटेस्ट हो रहे हैं. एर्दोगन सरकार के खिलाफ इतने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन पिछले एक दशक से अधिक समय में नहीं देखे गए.
विरोध प्रदर्शनों की व्यापकता को देखकर समझा जा सकता है कि इमामोग्लू तुर्की में कितने लोकप्रय हैं. रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (CHP) के नेता एकरेम इमामोग्लू को एर्दोगन बड़ी चुनौती के रूप में देखते हैं. उन्होंने पिछले साल इस्तांबुल मेयर चुनाव में एर्दोगन के उम्मीदवार को हराकर जीत हासिल की थी. इस्तांबुल के मेयर के रूप में इमामोग्लू लोगों के बीच और लोकप्रिय हुए हैं और अब पार्टी उन्हें राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाना चाहती थी.
23 मार्च को पार्टी की बैठक होने वाली थी जहां एकरेम को आधिकारिक रूप से एर्दोगन के खिलाफ पार्टी का राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया जाना था. लेकिन इससे पहले ही भ्रष्टाचार और आतंकवाद के आरोपों में उन्हें जेल में डाल दिया गया है.
इसी बीच सोमवार को पार्टी के एक प्रवक्ता ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया है कि सीएचपी ने 2028 के राष्ट्रपति चुनावों के लिए आधिकारिक तौर पर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में इमामोग्लू को नामित कर दिया है.
दो दशक से अधिक समय से सत्ता पर काबिज एर्दोगन
जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी (एकेपी) के नेता एर्दोगन साल 2003 से ही तुर्की की सत्ता पर काबिज हैं. इससे पहले 1994 में वो इस्तांबुल के मेयर बने और 1998 तक पद पर रहे. रूढ़िवादी इस्लामिक छवि वाले एर्दोगन तेजी से तुर्की में लोकप्रिय हुए और 2003 में प्रधानमंत्री बन गए थे. 2014 में वो तुर्की के राष्ट्रपति चुने गए और तब से ही राष्ट्रपति पद पर काबिज हैं.
तुर्की का संविधान अब एर्दोगन को फिर से राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दे रहा लेकिन 2028 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में वो फिर से उतरना चाहते हैं. अगर एर्दोगन को चुनाव में शामिल होना है तो या तो उन्हें संविधान में संशोधन करना पड़ेगा जो कि काफी मुश्किल प्रक्रिया है या फिर समय से पहले चुनाव कराने होंगे.
और इन सबसे पहले एर्दोगन के लिए जरूरी था अपने विरोधियों को कुचलना जिसकी शुरुआत उन्होंने इमामोग्लू की गिरफ्तारी से कर दी है.
अमेरिका स्थित थिंक टैंक मिडिल ईस्ट इंस्टिट्यूट में टर्किश प्रोग्राम की निदेशक गोनुल तोल ने अमेरिकी पत्रिका 'फॉरेन अफेयर्स' में लिखा है, 'एकरेम इमामोग्लू को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया है जिससे वो राष्ट्रपति की रेस से प्रभावी रूप से बाहर हो गए है. राजनीतिक दमन का यह बेशर्मी भरा कृत्य है जो तुर्की सरकार का पूर्ण निरंकुशता की तरफ एक और कदम है.'
गोनुल तोल ने लिखा कि इमामोग्लू को खेल से बाहर करने की योजना सोची-समझी और पूरी तरह से बनाई गई थी. मंगलवार को इमामोग्लू के अल्मा मेटर, इस्तांबुल विश्वविद्यालय ने उनके डिप्लोमा को शिक्षा बोर्ड के नियमों के कथित उल्लंघन का हवाला देते हुए रद्द कर दिया. कानून के अनुसार, तुर्की के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के पास यूनिवर्सिटी की डिग्री होनी चाहिए.
अगले दिन, इमामोग्लू को भ्रष्टाचार और आतंकवाद के आरोपों में गिरफ्तार कर लिया गया. अदालत के फैसले ने न केवल इमामोग्लू को राष्ट्रपति पद की रेस से बाहर कर दिया है बल्कि उन्हें तुर्की के सबसे बड़े शहर इस्तांबुल के मेयर पद से भी हटा दिया है.
इमामोग्लू को लेकर इतना डरे क्यों हैं एर्दोगन?
सेन डियागो स्टेट यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर इस्लामिक एंड अरेबिक स्टडीज के निदेशक और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अहमत टी कुरू 'The Conversation' में लिखते हैं कि इमामोग्लू के डिप्लोमा डिग्री को रद्द करना और भ्रष्टाचार के आरोप में उन्हें गिरफ्तार करना दिखाता है कि एर्दोगन बेहद चिंतित हैं कि इमामोग्लू उनके 22 साल के शासन के लिए एक गंभीर खतरा बन गए हैं.
वो लिखते हैं, 'एक बार फिर राष्ट्रपति बनने के एर्दोगन के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा इमामोग्लू है जो कि लंबे समय से सत्ता पर काबिज राष्ट्रपति से भी ज्यादा लोकप्रिय हो गए हैं. तुर्की में सत्ता हथियाने और कार्यकाल को विस्तार करने की कोशिश हो रही है जिससे कि देश व्लादिमीर पुतिन के रूस की तरह ही एक निर्वाचित तानाशाही में बदल सकता है.'
माना जा रहा है कि एर्दोगन इस दिशा में जल्द ही कदम उठा सकते हैं. 2017 में भी उन्होंने ऐसा ही किया था जब उन्होंने एक जनमत संग्रह के जरिए तुर्की को संसदीय व्यवस्था से प्रेसिडेंशियल रिपब्लिक में बदल दिया था. इस बार के संशोधन में वो कार्यकाल की सीमा को खत्म करने के साथ-साथ तीसरे कार्यकाल में जीत को आसान बनाने के लिए भी कई चीजों में बदलाव कर सकते हैं.
गोनुल तुल का भी कहना है कि इमामोग्लू की बढ़ती लोकप्रियता ने एर्दोगन को डरा दिया और इसलिए बाकी सत्ता विरोधियों की तरह इमामोग्लू भी जेल में है. वो लिखती हैं, 'हाल के दिनों में जो हुआ इमामोग्लू के आगे बढ़ने की राह को मजबूती से रोक देगा. उनके डिप्लोमा को रद्द करने से इमामोग्लू राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो गए हैं, और आतंकवाद के आरोप ने उन्हें मेयर के पद से हटा दिया है.'
वो आगे लिखती हैं, 'एर्दोगन सिर्फ अपने राष्ट्रपति पद की रक्षा नहीं करना चाहते हैं, वे इस्तांबुल को फिर से हासिल करना भी चाहते हैं. 2019 में शहर को विपक्ष के हाथों खोना न केवल एक राजनीतिक झटका था, बल्कि एक वित्तीय झटका भी था. इससे एर्दोगन इस्तांबुल के विशाल संसाधनों से दूर हो गए जिसने दशकों तक उनको मजबूती दी थी. इस्तांबुल को वापस पाने से आर्थिक कठिनाई के समय में उनकी राजनीतिक मशीन को चालू रखने में मदद मिल सकती है. अब उन्होंने मेयर को हटा दिया है जिससे उन्हें इमामोग्लू की जगह पर इस्तांबुल के गवर्नर को नियुक्त करने का मौका मिल गया है.'
लोकप्रियता घटी, फिर भी राष्ट्रपति चुनाव जीतते आए हैं एर्दोगन
2023 में तुर्की राष्ट्रपति चुनाव के दौरान माना जा रहा था कि एर्दोगन की गिरती लोकप्रियता के बीच वो चुनाव हार सकते हैं. महंगाई से जूझ रहे तुर्की में एर्दोगन के आर्थिक नीतियों पर सवाल खड़े किए जा रहे थे. एर्दोगन ने उस दौरान केंद्रीय बैंकों पर ब्याज न बढ़ाने का दबाव डाल रखा था जिससे देश में बेतहाशा महंगाई बढ़ी.
फरवरी 2023 में ही तुर्की में एक के बाद एक दो विनाशकारी तूफान आए जिसमें हजारों लोगों की मौत हुई और 10 से अधिक राज्यों में रिहायशी इमारतें और बाकी इंफ्रास्ट्रक्चर जमींदोज हो गए. राहत और बचाव कार्य में देरी और अव्यवस्था की वजह के एर्दोगन की काफी आलोचना हुई.
एर्दोगन के प्रति लोगों की नाराजगी को देखते हुए विश्लेषकों ने तब कहा था कि एर्दोगन को इसकी कीमत चुनाव के वक्त चुकानी होगी. कई विश्लेषकों ने कहा कि इस बार एर्दोगन की हार पक्की है. उनके खिलाफ सीएचपी के नेता कमाल कलचदारलू चुनावी मैदान में थे लेकिन चुनावी नतीजों में एर्दोगन की जीत हुई और उन्हे 52.16% वोट मिले.
एर्दोगन की जीत के पीछे उनकी पश्चिम विरोधी नीति और इस्लामवादी छवि को बताया गया. एर्दोगन से पहले जितने भी तुर्की के नेता हुए, सभी को पश्चिमी देशों की पिछलग्गू माना जाता था. तुर्की की विदेश नीति पर भी इसका असर देखने को मिलता था जो कि तुर्की के लोगों को पसंद नहीं था.
कमाल कलचदारलू भी पश्चिमी देशों से प्रति नरम रवैये के लिए जाने जाते हैं और चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने कहा था कि अगर वो सत्ता में आते हैं तो नेटो (NATO, तुर्की, अमेरिका और यूरोपीय देशों का रक्षा संगठन) सहयोगियों के साथ तुर्की के संबंधों को पुनर्जीवित करेंगे.
इसके उलट, एर्दोगन ने नेटो का सदस्य होने के बावजूद, तुर्की को पश्चिम का पिछलग्गू बनने से रोका था. तुर्की 1952 में नेटा का सदस्य बना और तब से ही पश्चिमी देशों के साथ इसके बेहद अच्छे संबंध रहे. लेकिन एर्दोगन ने सत्ता में आने के बाद से ही अपनी विदेश नीति में बदलाव करना शुरू किया और 2015 के आते-आते उनकी विदेश नीति पश्चिमी विरोधी हो गई.
एर्दोगन का पश्चिम विरोध उनके इस्लामिक नीतियों की देन है जिसमें वो फ्रांस, स्वीडन, डेनमार्क आदि देशों पर इस्लाम विरोधी होने का आरोप लगाते है.
एर्दोगन खुद को दुनियाभर के मुसलमानों का रहनुमा मानते हैं और फ्रांस ने जब मुस्लिम कट्टरपंथियों पर कार्रवाई की तब उन्होंने उस पर भारी रोष जताया. इसी वजह से 2020 में फ्रांस और तुर्की के रिश्ते बेहद खराब हो गए थे. स्वीडन में इस्लाम के कथित अपमान और कुरान की प्रतियां जलाए जाने का भी एर्दोगन ने भारी विरोध किया था. कुरान के कथित अपमान से नाराज एर्दोगन ने सालों तक स्वीडन को नेटो का सदस्य बनने से रोके रखा.
धर्मनिरपेक्ष तुर्की और मुसलमानों के बीच एर्दोगन की पैठ
1920 में स्थापित तुर्की एक धर्मनिरपेक्ष देश हैं जहां मुसलमानों की आबादी, सरकार के मुताबिक 99% है. इतनी बड़ूी मुस्लिम आबादी को एर्दोगन की इस्लामवादी नीतियों ने काफी प्रभावित किया है. महिलाओं को लेकर उनके विचार काफी रूढ़िवादी है. वो कहते हैं कि महिला को एक आदर्श पत्नी और मां बनना चाहिए. एर्दोगन कहते हैं कि समाज में महिला और पुरुष के साथ एकसमान व्यवहार नहीं किया जा सकता है. यह बात रूढ़िवादी मुसलमानों को काफी पसंद आती है.
पिछले चुनाव में कलचदारलू ने एर्दोगन की इस्लामवादी नीति को चुनौती दी थी और कहा था कि अगर वो सत्ता में आए तो तुर्की इस्लामवादी नीति पर नहीं बल्कि उदारवादी नीति पर चलेगा. उनकी यह बात लोगों को पसंद नहीं आई और लोगों ने उन्हें नकार दिया. लेकिन एकरेम इमामोग्लू एर्दोगन की राजनीतिक नींव पहचान गए हैं और वो उनका मुकाबला करने के लिए इस्लाम का ही इस्तेमाल कर रहे हैं.
क्या खिसक रही है एर्दोगन की इस्लामवादी राजनीति की जमीन?
एकरेम इमामोग्लू एर्दोगन से भी दो कदम आगे चल रहे है. वो धर्मनिरपेक्ष मतदाताओं के बीच लोकप्रिय तो हैं ही, रूढ़िवादी मुसलमानों को भी वो आकर्षित कर रहे हैं. वो कुरान की आयतों को सार्वजनिक रूप से पढ़ते है, अपने भाषणों में इस्लाम की बाते करते हैं जिससे रूढ़िवादी मतदाता भी उनके पक्ष में दिख रहे हैं.
अहमत टी. कुरू लिखते हैं कि उनकी इसी क्षमता ने 2019 में इस्तांबुल मेयर चुनाव में एर्दोगन की पार्टी को दो बार हराने में मदद की थी. पहली हार को एर्दोगन ने अस्वीकार कर दिया था जिसके बाद सुप्रीम इलेक्शन काउंसिल ने चुनाव को रद्द कर दिया था.
2024 में इमामोग्लू दोबारा इस्तांबुल के मेयर चुने गए जिससे उन्हें एक ऐसा नेता माना जाने लगा जो चुनाव में एर्दोगन को हरा सकता है. कुरू लिखते हैं कि इमामोग्लू की लोकप्रियता उनके राष्ट्रपति बनने के लिए काफी नहीं है बल्कि हालिया घटनाएं बताती हैं कि उन्हें चुनाव से दूर रखने के लिए कई पेंच फंसाए जाएंगे.