हाल में चीन के विदेश मंत्री छिन कांग ने ताइवान का सपोर्ट करने वाले देशों को इस मामले से दूर रहने की सलाह दी. दूसरी तरफ अमेरिका ने कहा कि चीन ताइवान को लेकर अपनी सख्ती कम कर दे. चीन-अमेरिका के बीच ताइवानी-टेंशन नई बात नहीं. दोनों में इसे लेकर तनातनी रहती है, यहां तक कि कई बार हवाई हमलों तक की तैयारियां हो चुकीं. तो क्या ताइवान की आजादी से अमेरिका का कोई खास फायदा जुड़ा हुआ है? यहां समझते हैं.
ताइवान मुद्दे की शुरुआत कहां से हुई?
ताइवान एक आइलैंड है, जो चीन के दक्षिण-पूर्वी तट के करीब स्थित है. इसका इतिहास बहुत पुराना और पेंचीदा है. लंबे समय तक ये चीन का हिस्सा रहा, लेकिन साल 1895 में जापान से हार के बाद ये चीन से निकलकर जापान के पास आ गया. फिर आया सेकंड वर्ल्ड वॉर. जापान के हारने के बाद अमेरिका ने तय किया कि इस देश को चीन के एक नेता चेंग काई शेक को सौंप दिया जाए. यही हुआ भी, लेकिन साल 1949 में माओ जेडॉन्ग की पार्टी ने काई शेक को हरा दिया.
खुद को स्वतंत्र देश एलान कर दिया
काई शेक की अगुवाई में हारी हुई पार्टी ताइवान चली गई. ये छोटा-सा द्वीप था, जो आकार में न्यूजर्सी से कुछ ही बड़ा था. इधर बीजिंग में माओ जेडॉन्ग ने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को खड़ा किया, वहां ताइवान में काई शेक ने अपनी सत्ता फैलाते हुए खुद को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया. यहीं से सारा बखेड़ा शुरू हुआ.
चीन ने अपनाए कई हथकंडे
बार-बार धमकाने के बाद भी सरेंडर न कर रहे ताइवान को चीन ने अबकी बार लालच दिया. उसने वन-कंट्री टू-सिस्टम के तहत प्रस्ताव रखा कि अगर ताइवान अपने को चीन का हिस्सा मान ले तो उसे स्वायत्ता मिल जाएगी. वो आराम से अपने व्यापार-व्यावसाय कर सकेगा, और चीन के साथ का फायदा भी मिलेगा. ताइवान से इससे इनकार कर दिया.
देशों पर मान्यता न देने का दबाव
गुस्साए हुए चीन ने हर उस देश पर दबाव बनाना शुरू किया, जो ताइवान को आजाद देश की तरह मानते थे. यहां तक कि कुछ ही सालों के दौरान उसने कथित तौर पर ताइवान का साथ देने वाले कई देशों को उससे दूर कर दिया. फिलहाल लगभग 13 देश हैं, जो ताइवान को मान्यता देते हैं. भारत इनमें शामिल नहीं क्योंकि वो कूटनीतिक तौर पर चीन से सीधी दुश्मनी नहीं लेना चाहता. वहीं अमेरिका ताइवान का सबसे ताकतवर दोस्त बना हुआ है.
अमेरिका ने किया साथ का वादा
साल 1979 में तत्कालीन अमेरिकी प्रेसिडेंट जिमी कार्टर ने ताइवान रिलेशन्स एक्ट पर दस्तखत किए. इसके तहत अमेरिका ताइवान को कम कीमत पर अत्याधुनिक हथियार बेचने लगा ताकि वो अपनी रक्षा कर सके. इसके अलावा ताइवान की आजादी के मुद्दे के अमेरिका ने प्राथमिकता पर रखने की बात की. वो अपनी बात पर अड़ा भी रहा. चीन ने जब भी ताइवान को धमकाना चाहा, अमेरिकी सरकारें बीच में आती रहीं.
ये क्या बस पक्की दोस्ती है, या कुछ और?
एकदम से खुद को अलग राष्ट्र बनाने वाले ताइवान से अमेरिकी दोस्ती के अलग मायने हैं. फिलहाल चीन दुनिया के बहुत से कमजोर देशों को कर्ज देकर उन्हें लगभग अपने कब्जे में ले चुका. वहां के राजनैतिक फैसलों में कहीं न कहीं चीन का हित छिपा रहता है. अब चीन समुद्र में भी अपना साम्राज्य फैला रहा है. साउथ-चाइना सी को लेकर लड़ाई पहले से होती रही. अगर चीन ताइवान पर कब्जा कर ले तो वेस्ट-प्रशांत महासागर में उसकी ताकत काफी बढ़ जाएगी. ये अमेरिका के लिए अच्छा नहीं. उसे डर है कि विस्तारवादी चीन फिर हवाई द्वीप में स्थित उसके आर्मी बेस पर भी नजर रखने लगेगा.
ट्रेडिंग में भी आगे
सामरिक तौर पर ही नहीं, ताइवान ट्रेड के मामले में भी अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए काफी मायने रखता है. यहां दुनिया की सबसे एडवांस्ड चिप बनती है, इतनी भारी मात्रा में बनती है कि आधी दुनिया की जरूरत पूरी करती है. इलेक्ट्रॉनिक गैजेट, जैसे लैपटॉप, घड़ी, फोन में जो चिप लगते हैं, वे भी यहीं बनते हैं. अमेरिका को डर है कि अगर ताइवान चीन का हिस्सा बन जाए तो इतनी अहम इंडस्ट्री चीन के हाथ चली जाएगी. वो इसका गलत इस्तेमाल भी कर सकता है.