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डेनमार्क में हुआ मासूम बच्चों को 'मॉडर्न' बनाने वाला खौफनाक प्रयोग, परिवार से बिछड़े बच्चे करने लगे खुदकुशी

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान कई ताकतवर देशों ने कमजोर मुल्कों पर खौफनाक प्रयोग किए. ये प्रयोग आमतौर पर वयस्कों पर किए जाते थे, लेकिन डेनमार्क ने सबको पीछे छोड़ दिया. वो अपने अधीन आने वाले देश ग्रीनलैंड के बच्चों के साथ ही अमानवीय हो गया. उसने तथाकथित पिछड़े ग्रीनलैंडिंक बच्चों को मॉर्डन बनाने के नाम पर उन्हें परिवार से अलग कर डेनिश परिवारों को सौंप दिया.

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ग्रीनलैंड के बच्चों पर नॉर्डिक देश डेनमार्क ने क्रूर प्रयोग किया. सांकेतिक फोटो (Unsplash)
ग्रीनलैंड के बच्चों पर नॉर्डिक देश डेनमार्क ने क्रूर प्रयोग किया. सांकेतिक फोटो (Unsplash)

रूस-यूक्रेन जंग के बीच रूस पर आरोप लग रहा है कि वो यूक्रेनियन बच्चों को अवैध रूप से अपने यहां ले जा रहा है. इस मामले में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन तक आरोपों के घेरे में हैं. वैसे दो देशों की लड़ाई या कब्जे के बीच ऐसी खबरों का आना नई बात नहीं. बच्चे सॉफ्ट टारगेट होते हैं, जिन्हें कब्जे में करना, या बहलाना आसान होता है. कुछ ऐसा ही सोचते हुए डेनमार्क ने भी पचास के दशक में एक प्रयोग किया. उसने री-एजुकेट कर मॉर्डन बनाने के नाम पर वहां के बच्चों को उनके माता-पिता से अलग कर दिया. 

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कौन रहता था ग्रीनलैंड में
तब ग्रीनलैंड डेनमार्क के अधीन हुआ करता था. वहां एक ट्राइब था- इनूएट, जिसकी आबादी सबसे ज्यादा थी. बेहद बर्फीले इलाकों में रहने वाली ये जनजाति दुनिया से खास मतलब नहीं रखती. वे बर्फ-लकड़ी के बने आधे अंडरग्राउंड घरों में रहते और कच्चा मांस, मछलियां और रेंडियर की सींग बेचकर अपना पेट भरते. शिकार पकड़ने के लिए वे सील की खाल से बनी नावों पर यहां से वहां जाया करते थे. 

डेनिश लोग उन्हें पिछड़ा पाते
18वीं सदी से लेकर साल 1979 से पहले तक डेनमार्क का ग्रीनलैंड पर कब्जा रहा. इस दौरान इस नॉर्डिक देश ने पाया कि ग्रीनलैंड के मूल निवासी काफी पिछड़े हुए हैं. ये वही इनूएट थे, जो शिकार करके जीवन बिताते. साल 1951 में डेनिश सरकार ने इस जनजाति को आधुनिक बनाने की ठानी. उन्होंने तय किया कि आधुनिकता तभी आएगी, जब ग्रीनलैंडिक बच्चे आधुनिक बन सकें. इसके लिए पूरी रूपरेखा तैयार हुई और एक्सपेरिमेंट को नाम मिला- लिटिल डेन्स. 

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little Danes experiment by Denmark on Greenlandic children
ग्रीनलैंड का इनूएट समुदाय, जिसे लंबे समय तक पिछड़ा माना जाता रहा. सांकेतिक फोटो (Getty Images)

किस तरह का था खाका
इसके तहत 22 इनूएट बच्चों को उनके परिवारों से जबरन ले लिया गया. तय हुआ कि डेनिश परिवार इन बच्चों को पालेंगे-पोसेंगे और फिर एडल्ट होने पर उन्हें अपने देश वापस भेज दिया जाएगा. 

प्रयोग को डिजाइन करते हुए कुछ शर्तें बनाई गईं. जैसे बच्चे अनाथ हों तभी उन्हें दूसरे देश भेजा जाए. दूसरा- उनकी उम्र 4 से 6 साल तक ही हो ताकि वे नए पेरेंट्स और कल्चर को अपना सकें. हालांकि हुआ कुछ अलग ही. 13 लड़कों और 9 लड़कियों के इस ग्रुप में लगभग सभी का परिवार जीवित था. उन्हें जबरन परिवारों से अलग करके कोपेनहेगन भेज दिया गया. 

बच्चों को इंफेक्शन फैलाने वाला माना गया
वहां जाने के बाद भी ऐसा नहीं हुआ कि नई फैमिली खुले दिल से उन्हें अपनाए, बल्कि उन छोटे-छोटे बच्चों को आइसोलेशन में रख दिया गया. दरअसल तत्कालीन डेनिश प्रशासन को डर था कि पिछड़े हुए ये बच्चे संक्रामक बीमारी के वायरस फैला सकते हैं. लगभग दो महीनों बाद बच्चों को फॉस्टर फैमिलीज को सौंपा गया. यहां उन्हें अपनी भाषा भुलाकर डेनिश लैंग्वेज सीखनी पड़ी. खान-पान और रहन-सहन का तरीका भी एकदम अलग हो गया. लगभग सालभर बाद 6 बच्चों को डेनिश परिवारों ने ही गोद ले लिया. 

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little Danes experiment by Denmark on Greenlandic children
ग्रीनलैंडिक बच्चे अपने परिवारों से अलग कर दिए गए. सांकेतिक फोटो (Unsplash)

क्या हुआ लिटिल डेन्स के साथ
कुल 16 बच्चों को किसी ने गोद नहीं लिया, और वे वापस ग्रीनलैंड भेज दिए गए, लेकिन अपने पेरेंट्स के पास नहीं, बल्कि अनाथालयों में. डेनिश सरकार का मानना था कि अगर पेरेंट्स के पास जाएंगे तो वे दोबारा पिछड़ जाएंगे. इनमें से आधे से ज्यादा बच्चे 12 साल का होने से पहले कमजोरी और किसी न किसी अज्ञात बीमारी से खत्म हो गए. जो बाकी रहे, वे नशे के आदी हो गए और लगभग सभी ने खुदकुशी की कोशिश की. 

इसके बाद भी प्रयोग नहीं रुका
साठ और सत्तर के दशक में भी बहुत से ग्रीनलैंडिक बच्चों को उठाकर डेनमार्क भेज दिया गया. इस बार बदलाव सिर्फ इतना था कि उन्हें कम समय के लिए भेजा गया. हालांकि इसका भी नतीजा खराब ही रहा. तब जाकर प्रयोग का खाका बनाने वाली डेनिश रेड क्रॉस इसके लिए अपना पछतावा जाहिर किया. बस. बात खत्म हो गई. परिवार से अलग करके डेनमार्क भेजे गए बच्चों को न तो डेनिश परिवारों ने अपनाया, न ही वापस लौटने पर वे अपने माता-पिता के घर जा सके. भयंकर आइसोलेशन झेलते हुए ऐसे तमाम बच्चे किसी न किसी दिमागी बीमारी का शिकार हो गए. 

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माना जाता है कि लिटिल डेन्स एक्सपेरिमेंट का दायरा इससे कहीं बड़ा और भयावह रहा होगा, जिसके कागज नष्ट कर दिए गए. बचे-खुचे कागजों में दिखा कि बच्चों को वेनगार्ड्स के नाम से संबोधित किया गया था, यानी मोहरा. साल 1998 तक ये सबकुछ होकर भी छिपा रहा. 

little Danes experiment by Denmark on Greenlandic children
डेनमार्क से वापस भेजे हुए ग्रीनलैंडिक बच्चे अनाथालयों में रख दिए गए. (Wikipedia)

किताब ने खोली पोल
इसी बीच एक डेनिश पत्रकार टायन ब्रील्ड की किताब आई, जिसमें इस प्रयोग की बात थी. I den Bedste Mening  नाम से छपी इस किताब ने तहलका मचा दिया. तभी दुनिया के बाकी हिस्सों को पता लगा कि सुदूर ग्रीनलैंड में आधुनिकता के नाम पर क्या घट चुका. 

साल 2009 में ग्रीनलैंड स्वशासित देश बन गया, हालांकि तब भी उसपर काफी हद तक डेनिश कंट्रोल रहा. उसी साल वहां के पीएम कुपिक क्लिस्ट ने लिटिल डेन्स प्रयोग के लिए डेनमार्क से माफी मांगने को कहा. डेनमार्क के आम लोग तक ये मांग करने लगे. वे भी समझ गए थे कि मॉर्डन बनाने के नाम पर एक उपनिवेश देश के बच्चों के साथ कितना क्रूर प्रयोग उनकी सरकार ने किया. डेनिश सरकार इससे इनकार करती रही. 

साल 2022 में मांगी गई माफी
पिछले साल मार्च में पहली बार डेनमार्क से इसके लिए खुलकर माफी मांगी. उस प्रयोग का हिस्सा रहे 6 बच्चे अब भी जिंदा हैं. डेनिश सरकार के आला अधिकारी उन सारे लोगों से मिले और परिवार से अलग करने की माफी मांगते हुए सबको 28 से 38 हजार डॉलर का मुआवजा भी देने का वादा किया. ग्रीनलैंड के लोग लगातार ये कह रहे हैं कि ये बहुत छोटा आंकड़ा है ताकि सरकार को शर्मिंदगी न हो.

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स्थानीय लोगों का आरोप है कि हजारों बच्चों को परिवार से अलग करके डेनिश बोर्डिंग स्कूलों में डाल दिया गया. वहां से पढ़ने के बाद न तो डेनमार्क ने उन्हें काम दिया, और न ही वे अपने लोगों के बीच रह सके. उन्हें न अपनी भाषा आती थी, न कल्चर का ही पता था. ऐसे में लोग या तो अपराधी हो गए, या एकदम से गायब हो गए. 

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