वैश्विक महामारी कोरोना के कहर से दुनिया भर के देश जूझ रहे हैं. लेकिन इस विश्वव्यापी चुनौती के सामने भी विभिन्न देशों का राष्ट्रवाद और मजबूत होकर सामने आ रहा है. अमेरिका लगातार चीन पर वायरस फैलाने के आरोप लगा रहा है तो कई देशों ने रूस पर कोरोना वैक्सीन के शोध में सेंधमारी का आरोप लगाया है. दूसरी ओर, अमेरिका और ब्रिटेन हैं जो सबसे पहले अपने नागरिकों को कोरोना की वैक्सीन देना चाहते हैं. ऐसे समय में यह जानना काफी मजेदार हो सकता है कि आज दुनिया को जब हम ग्लोब पर देखते हैं, क्या ये हमेशा से ऐसी थी? अगर नहीं तो देशों की सीमाएं कैसे बनीं? क्या यह काम सब जगहों पर एक साथ हुआ या किसी और तरीके से?
इन देशों की सीमाओं के बनने की कहानी उतनी ही रोमांचक है, जितनी दुनिया में इंसानों के आने की कहानी. इंसान जब समाज के तौर पर यानी एक झुंड में रहने लगे तो उनके दूसरे जानवरों से अलग बनने की प्रक्रिया भी शुरू हुई. इसी रहन-सहन के दौरान इंसानों ने विभिन्न चीजों पर अधिकार जताना शुरू किया. इंसानों की जरूरतें और महत्वाकांक्षाएं व्यक्तिगत से सामाजिक होती गईं. ज्ञान के ज्ञात स्रोतों के अनुसार आज इंसानी सभ्यता अपने शिखर पर है, लेकिन आज भी जब राष्ट्रीय सीमाओं की बात आती है तो इन मसलों को युद्ध जैसे सबसे आदिम और हिंसक तौर-तरीकों से निपटाते हुए देखा जा सकता है. हाल ही में भारत और चीन के बीच गलवान घाटी में हुई हिंसा इसी का एक उदाहरण है.
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कहां बनती हैं देशों की सीमाएं?
किसी देश का निर्माण सबसे पहले इंसानी दिमाग में ही होता है. अपने देश भारत का ही उदाहरण लें तो ब्रिटिश शासन के अधीन हम एक साथ रहे. बाद में इसमें से भारत और पाकिस्तान दो राष्ट्र बने. ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आजादी मिलने के बाद 1947 में भारत का एक हिस्सा धर्म के आधार पर अलग होकर पाकिस्तान नामक देश बन गया. हालांकि, इसके बाद भी 1971 में पाकिस्तान से टूटकर एक और अलग राष्ट्र बांग्लादेश बना. पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान में एक ही धर्म होने के बावजूद कुछ लोगों को सांस्कृतिक भिन्नताओं की वजह से अलग राष्ट्र बनाने का ख्याल आया. यानी कारण चाहे जो भी हो, राष्ट्रीय सीमाओं का सिद्धांत सबसे पहले इंसानी दिमाग में ही जन्म लेता है और फिर हकीकत बनता है. आज की बात करें तो इस समय दुनिया में 193 देश हैं जो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं.
भारत-पाक के 1971 के युद्ध के बाद अलग राष्ट्र बांग्लादेश का निर्माण हुआ
कैसे आया सीमाएं बनाने का विचार?
इंसान आदिम काल में घुमंतू तरीके से जीवनयापन करते थे. जब से इंसान एक जगह पर रहने लगे, उन्होंने खेती और पशुपालन भी शुरू किया. इसके बाद ही विभिन्न जगहों पर सीमाएं बननीं शुरू हुईं. खेती योग्य भूमि, कबीलों, रिहाइशी इलाकों आदि का निर्धारण सीमा बनाने से ही शुरू हुआ. इस तरह का जीवन जीते हुए समाज में अतिरिक्त उत्पादन हुआ और दूसरी जरूरी चीजों को लेकर व्यापार शुरू हुआ. यहीं से इंसानी समाज में संपत्ति का विचार भी आया. इसके बाद संपत्ति पर अधिकार जताने की भावनाएं पैदा हुईं. समय बीतने के साथ ही व्यापार को लेकर, सीमाओं के विस्तार और पुनर्निर्धारण को लेकर युद्ध भी लड़े गए.
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कम से कम 500 साल पुरानी है राष्ट्र की अवधारणा
जवाहर लाल विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में एसोसिएट प्रोफेसर मौसमी बसु कहती हैं कि 16वीं सदी में पूंजीवाद का आगमन माना जाता है. इसी के साथ ही आधुनिक राष्ट्र की अवधारणा भी पैदा हुई. यानी दुनिया में देशों की आधुनिक सीमाएं करीब 500 साल पहले निर्धारित होनी शुरू हुईं. हालांकि, इससे पहले भी राष्ट्रों की सीमाएं युद्ध के जरिए बदलती रहीं. लेकिन इसी समय में इनके निर्धारण में तेजी आई और यह स्थायी चीज बन गई. अगर हम अलग-अलग सदियों में दुनिया का नक्शा देखें तो यह हर बार बदलता गया है. इस प्रक्रिया के दौरान दुनिया भर में लोगों पर शासन करने का तरीका जरूर बदलता गया. जैसे- पहले देशों पर राजा शासन करते थे और बाद में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारें शासन करने लगीं.
व्यापार और आधुनिक राष्ट्र का संबंध
16वीं सदी में पूंजीवाद के आगमन के साथ ही जब बड़ी व्यापारिक कंपनियां बनीं तो उनको अपने व्यापार को सुविधाजनक बनाने के लिए एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र के भीतर कई चीजों की जरूरत महसूस हुई. इनमें सड़कें, टैक्स सिस्टम और एकीकृत संचार (Unified Communication) व्यवस्था जैसी चीजें शामिल हैं. इसी बीच 1648 में जब एक संप्रभु राष्ट्र का विचार देने वाला वेस्टफैलियन सिस्टम (Westphalian System) आया तो उसने भी देशों के सीमा निर्धारण में अहम भूमिका निभाई. इस सिस्टम के तहत एक देश के लिए चार अहम चीजों- निश्चित क्षेत्र, जनसंख्या, संप्रभुता और सरकार का विचार सामने आया. इस सिस्टम ने भी राष्ट्रों की सीमाओं के निर्धारण में अहम भूमिका निभाई.
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बदलता रहा है देशों का परचम
मौसमी बसु कहती हैं, 'हर सदी में अलग-अलग इलाके सभ्यता, कला, संस्कृति, आविष्कार, समृद्धि आदि के मामलों में दुनिया पर अपना परचम फहराते रहे हैं. ऐसा नहीं था कि यूरोप हमेशा से ही वैश्विक नेतृत्व में आगे रहा. अगर हम 13वीं सदी को देखें तो अरब जगत अपने स्पाइस रूट, व्यापार, कला की वजह से दुनिया का अगुवा रहा. इसके बाद स्पेन और पुर्तगालियों ने अरब के एकाधिकार को तोड़ने के लिए अपने प्रतिनिधियों को वहां भेजा.' हालांकि, जब 18वीं सदी में औद्योगिक क्रांति और आविष्कार हुए तो पूंजीवाद का और तेजी से प्रसार हुआ. इसके बाद यूरोप दुनिया के बाकी इलाकों से आगे हो गया. फिर दुनिया ने ब्रिटेन और फ्रांस का नेतृत्व देखा और 20वीं सदी के बाद से अमेरिका सबसे आगे हो गया. अलग-अलग कालखंडों में ये देश न सिर्फ व्यापार में आगे रहे बल्कि इन्होंने राष्ट्रों के निर्माण, सीमाओं के निर्धारण और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अहम भूमिका निभाई.
एक तराजू में लोकतंत्र, दूसरे में उपनिवेशवाद
राष्ट्रीयता और सीमाओं का सिद्धांत जब से पनप रहा था, तभी से यह अपने आप में काफी विरोधाभास और विडंबनाएं लेकर चल रहा है. दुनिया भर में इस दौरान में लोकतंत्र और उपनिवेशवाद एक साथ चलता रहा. जब ब्रिटेन में 1688 में रक्तहीन क्रांति हुई तो राजा को रबर स्टैंप बना दिया गया और असली सत्ता संसद के हाथों में आ गई. लेकिन इसके साथ ही ब्रिटेन का उपनिवेशवाद जारी था. यानी ब्रिटेन ने अपने लोगों के लिए लोकतंत्र का सबक रखा और साथ में दूसरे देशों पर उसका राज करना भी जारी रहा. वर्ष 1874 तक ब्रिटेन की औपनिवेशिक नीतियों की प्रतिनिधि- ईस्ट इंडिया कंपनी भी चलती रही. यही नहीं, हॉन्गकॉन्ग तो अभी 1997 तक भी ब्रिटेन की कॉलोनी बनकर रहा और इसके बाद उसकी संप्रभुता चीन को स्थानांनतरित की गई.
20वीं सदी में सभ्यता का पाठ
प्रोफेसर मौसमी बसु कहती हैं, 'बॉर्डर बनने की दुनिया भर में बड़ी अजीब प्रक्रियाएं रही हैं. इसका अध्ययन करेंगे पर आप देखेंगे कि यूरोप में कुछ लोगों ने एक कमरे में कुर्सी और मेज पर बैठकर अफ्रीका की सीमाओं का निर्धारण किया है. इस तरह देशों के बनने की प्रक्रिया में हमें स्पष्ट तौर पर औपनिवेशिक सोच देखने को मिलती है.' जब दुनिया में पहला विश्व युद्ध (1914-18) लड़ा गया, इसके बाद मैनडेट सिस्टम सामने आया. यह युद्ध की समाप्ति के बाद आधिकारिक तौर पर अंतरराष्ट्रीय उपनिवेशवाद को स्वीकृत करने वाली घटना थी. मैनडेट सिस्टम यानी जो देश आजाद होने वाले थे या जिनको अभी आजादी देने या स्वयं देश चलाने योग्य नहीं माना गया, उनका संचालन दूसरे बड़े देशों के हाथों में दे दिया गया ताकि वे आजादी लेने और स्वयं देश चलाने लायक सभ्य हो सकें. इसमें व्यवस्था की गई कि सीरिया को फ्रांस देखेगा और फलस्तीन को ब्रिटेन देखेगा. हालांकि, इसी दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन सेल्फ गवर्नमेंट की बात तो कर रहे थे, लेकिन साथ मैनडेट सिस्टम भी दुनिया में चल रहा था.
हर जगह दिखता है सीमा निर्धारण (फोटो- Getty Images)
आपके दरवाजे तक पहुंच गया है सीमाओं का निर्धारण
सीमाओं के बनने की प्रक्रिया आज समाज में काफी माइक्रो लेवल तक पहुंच गई है. हम रोजमर्रा की जिंदगी में इससे रूबरू होते हैं. उदाहरण के तौर पर तहसील, जिले, राज्यों की सीमाएं प्रशासनिक सुविधा के लिहाज से बनाई गई हैं तो दूसरी ओर समाज में मल्टीस्टोरी हाउसिंग प्रोजेक्ट (Gated Community) और उसके बाहर झुग्गियों का भी बंटवारा देखने को मिलता है. प्रोफेसर मौसमी बसु कहती हैं कि सीमा निर्धारण का उदाहरण आपको कोरोना काल में भी कंटेनमेंट जोन के तौर पर मिल जाएगा. वह कहती हैं कि समाज में हर स्तर पर लकीरें यानी सीमाएं बन तो रही हैं, लेकिन हमें यह देखना भी जरूरी है कि ये लकीरें इतनी गहरी और चौड़ी न हो जाएं कि इंसानों के बीच बंटवारे की वजह बन जाएं.
साउथ एशियाई देशों की परंपरा और मौजूदा हाल
बता दें कि साउथ एशियाई देशों में से ज्यादातर देशों का इतिहास और संस्कृति एक साथ विकसित हुई है. इस हिस्से में रहने वाले लोग पहले बिना किसी रोक-टोक के एक-दूसरे के यहां व्यापार, अध्ययन, भ्रमण जैसे मकसद से आते-जाते रहे हैं. आज विडंबना यह है कि अब यह आवागमन रुक गया है. भारत में बांग्लादेश से आए लोग हों या पाकिस्तान से आए लोग, आज उन्हें अगर अपने पूर्वजों का देश देखना हो तो वह संभव नहीं है. इसकी वजह है कि वहां जाने पर शहरों की सीमा के हिसाब से वीजा (City Specific Visa) मिलता है. यह भी सीमाओं के निर्धारण का एक पहलू है. दूसरी ओर इसी दुनिया में ऐसी व्यवस्था भी बनाई गई है, जहां बिना रोक-टोक के दर्जनों देशों में आया-जाया जा सकता है. जैसे- यूरोप में इंटरनल बॉर्डर सिस्टम को मंजूरी दी गई है, यहां पर एक ही वीजा से कई देशों में घूमा जा सकता है.
सीमाओं से नहीं, इंसानों से बनता है देश
देशों की सीमाओं के निर्धारण में कई बार हमें हास्यास्पद चीजें भी देखने को मिलती हैं. मसलन एक देश बनने के लिए सबसे पहले लोगों की जरूरत पड़ती है. लेकिन देशों को चलाने वालीं सत्ताएं (States) हमेशा से देश का निर्धारण सीमाओं से तय करती हैं न कि लोगों से. प्रोफेसर मौसमी बसु कहती हैं जब भी देशों का बंटवारा होता है या सीमा पर युद्ध की वजह से लोग विस्थापित होते हैं तो उन लोगों के दर्द को हमेशा अनसुना किया जाता है. दूसरी बात, अगर कभी आप किसी इंटरनेशनल फ्लाइट में बैठे हों और हवाई जहाज से नीचे की ओर देखें तो आपको कहीं भी किसी देश की सीमा नहीं दिखाई देगी. ये आपको एक बार यह अहसास जरूर दिलाता है कि धरती पर ये सीमाएं इंसानों ने खुद बनाई हैं और वे आज भी अक्सर इन्हीं के लिए लड़ते-झगड़ते रहते हैं.