एक ऐसे समय में जब रूस को यूरोपीय देशों ने अलग-थलग कर दिया है. भारत और रूस के रिश्तों में लगातार गर्माहट बढ़ रही है. विदेश मंत्री जयशंकर का पांच दिनों का हालिया दौरा दोनों देशों के मजबूत संबंधों का गवाह है.
इस दौरे के दौरान जयशंकर की जब रूस के विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव से मुलाकात हुई. तो उन्होंने कहा था कि भारत-रूस संबंध सिर्फ राजनीति, डिप्लोमेसी या अर्थव्यवस्था के बारे में नहीं है. यह उससे भी अधिक गहरे हैं. इस बयान से स्पष्ट है कि रूस और उससे पहले सोवियत संघ से भारत के संबंध मजबूत रहे हैं. लेकिन एक ऐसा भी समय था, जब दोनों देशों के ये संबंध वैचारिक मतभेद की वजह से अविश्वास से घिरे हुए थे.
जिस समय सोवियत संघ में जोसेफ स्टालिन का राज था. भारत अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था. स्टालिन ने 1920 के मध्य से 1953 में अपनी मौत तक सोवियत संघ की अगुवाई की. वो अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई में भारत के नेताओं और भारतीय आंदोलनों को संदेह की नजर से देखते थे.
स्टालिन ने भारत की आजाद की लड़ाई के बड़े चेहरों महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को संदेह की नजर से देखा और उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवाद और अमेरिकी पूंजीवाद का उपकरण माना. ये नजरिया स्टालिन की मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा में भी था.
हेमेन रे अपने पेपर 'चेंजिंग सोवियत व्यूज ऑन महात्मा गांधी' में कहते हैं कि व्लादिमीर लेनिन के जीवन में बोल्शेविक ने गांधी को एक प्रगतिशील नेता समझा, जिन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई में इंडियन नेशनल कांग्रेस को एक राजनीतिक आंदोलन में तब्दील कर दिया. लेकिन 1924 में लेनिन की मौत के बाद इसमें बदलाव आया.
लेनिन की मौत के बाद स्टालिन ने भारत की राजनीति में इच्छा जतानी शुरू कर दी. जल्द ही बोल्शेविक नेताओं ने सोवियत संघ का दौरा करने के लिए महात्मा गांधी को आमंत्रित किया. लेकिन गांधी ने ये कहकर इससे इनकार कर दिया कि एक हिंसक उद्देश्य के लिए मेरा इस्तेमाल करने का प्रयास असफल होगा.
रे कहते हैं कि इससे बोल्शेविक नाराज हो गए और उन्होंने दावा किया कि गांधी एक प्रगतिशील नेता रहे हैं और उनकी फिलोसॉफी सामाजिक जीवन को लेकर प्रतिक्रियावादी रही है. स्टालिन की अगुवाई में सोवियत संघ ने भारतीय कम्युनिस्टों से गांधी की प्रतिक्रियावादी नीति को उजगार करने को कहा.
गांधी का ये विचार 1939 तक रहा, जब स्टालिन ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस के बीच यूनाइटेड फ्रंट की वकालत की. हालांकि, दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ के विद्वानों ने गांधी की आलोचना जारी रखी और उन्हें भारत की आजादी की लड़ाई में गद्दार बताया.
स्टालिन ने 1947 में भारत की आजादी को एक राजनीतिक तमाशा बताया. भारत की आजादी की पूर्वसंध्या पर 14 अगस्त 1947 में सोवियत संघ के मुखपत्र Pravda में प्रकाशित किया गया कि इसमें संदेह करने वाली कोई बात नहीं है कि मौजूदा समय में भारत में रह रहे पचास हजार ब्रिटिश परिवार एक साल के भीतर भारत छोड़ सकते हैं.
अविश्वास के बावजूद संबंध औपचारिक हुए
आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत ने गुटनिरपेक्ष रुख अपनाया. इसके तहत भारत ने शीतयुद्ध के दौरान ना तो पूंजीवादियों और ना ही कम्युनिस्टों का साथ लिया. इससे सोवियत में असुरक्षा की भावना बढ़ी क्योंकि उन्हें लगा था कि शीत युद्ध के बीच भारत या तो ब्रिटेन या फिर अमेरिका के साथ जाएगा क्योंकि उन्हें लगा कि भारत अभी भी पूर्व औपनिवेशवाद के अधीन है. इन वैचारिक मतभेदों के बावजूद भारत और सोवियत संघ के बीच अप्रैल 1947 में औपचारिक तौर पर राजनयिक संबंध बने.
ये संबंध चीन में भारत के राजदूत केपीएस मेनन और चीन में सोवियत के राजूदत अपोलोन पेत्रोव के बीच पत्रों के आदान-प्रदान की वजह से बने. इसके बाद रूस और भारत ने आधिकारिक बयान जारी कर मैत्रीपूर्ण संबंधों को और मजबूत करने का ऐलान किया.
नई दिल्ली में अप्रैल 1947 में सोवियत दूतावास खुलने की वजह से भावी सहयोग बढ़ने का रास्ता खुला. रूस ने 19वीं सदी में भारत के साथ मजबूत व्यावसायिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक संबंध स्थापित करने की इच्छा जताई. लेकिन ब्रिटिश प्रभाव के कम होने के बाद ही इन आकांक्षाओं का साकार होना शुरू हुआ.
नेहरू की 1949 में अमेरिका की असफल यात्रा और भारत को खाद्य सामग्री की मदद देने से अमेरिका के इनकार के बाद भारत सरकार ने सोवियत संघ का रुख किया. इस पर 1951 में औपचारिक समझौता हुआ, जिसके तहत सोवियत ने पारंपरिक भारतीय सामानों के निर्यात के बदले भारत को एक लाख टन गेहूं भेजना का वादा किया.
दोनों देशों के संबंधों में सुधार
नेहरू का अमेरिकी पूंजीवाद की तुलना में समाजवाद के प्रति अधिक झुकाव था. उन्होंने अमेरिका के अपने दौरे के जरिए यह स्पष्ट भी किया था.
रूस के साथ संबंधों को और मजबूत करने के लिए नेहरू ने 1949 में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णनन को रूस भेजा. उन्हें यूएसएसआर में भारत का दूसरा राजदूत बनाकर उन्हें भेजा. डिप्लोमैट महाराजा कृष्णा रसगोत्रा ने अपनी आत्मकथा 'ए लाइफ इन डिप्लोमेसी' में कहा कि राधाकृष्णन को रूस भेजने का नेहरू का कदम उस समय उस पद के लिए उनका सबसे कल्पनाशील फैसला था.
सोवियत संघ का नेहरू का दौरा
1953 में स्टालिन की मौत के बाद भारत और सोवियत के संबंध एक नए चरण में प्रवेश कर गए. सोवियत के नेताओं ने भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी के महत्व को पहचाना.
सोवियत प्रमुख निकोलाई बुल्गानिन और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी जनरल सचिव निकिता क्रूस्चेव के निमंत्रण पर नेहरू ने जून 1955 में सोवियत संघ का दौरा किया था. इस दौरे ने दोनों देशों के संबंधों की मजबूत नींव रखी.
नेहरू का सोवियत का ये दौरा जियोपॉलिटिकल पॉलिटिक्स का बहुत बड़ा टर्निंग प्वॉइंट था और इससे दोनों देशों की करीबियां बढ़ीं. हालांकि, भारत बड़े पैमाने पर अमेरिकी मदद पर आश्रित था लेकिन सोवियत संघ ने भारत को पावर और इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में पूरा सहयोग दिया. इस तरह भारत के औद्योगीकरण में सोवियत की अहम भूमिका थी. भिलाई और बोकारो स्टील प्लांट नेहरू के इसी दौरे का नतीजा थे. इस तरह कहा जाता है कि मौजूदा समय में भारत और रूस के संबंधों में जो गर्मजोशी है, उसमें नेहरू के उस दौरे की बड़ी भूमिका है.