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अपने मुल्क ईरान से भागकर भारत कैसे आए थे पारसी? इस हिंदू राजा ने दी थी शरण

7वीं शताब्दी के इस्लामी आक्रमण ने पारसियों को अपनी धरती से भागने पर मजबूर कर दिया. नए मुस्लिम शासकों ने ऐसी नीतियां लागू कीं, जिसने पारसियों को हाशिए पर डाल दिया. इसमें पारसियों पर जाजिया कर लगाना और धार्मिक प्रतिबंध शामिल थे.

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पारसियों को भारत की जमीन पर एक हिंदू राजा ने बसाया था
पारसियों को भारत की जमीन पर एक हिंदू राजा ने बसाया था

'अगर हम इस देश को छोड़ दें तो अच्छा होगा. हमें इस देश से तुरंत बाहर चले जाना चाहिए नहीं तो हम सभी एक जाल में फंस जाएंगे और हमारी सारी बुद्धि बेकार चली जाएगी...हमारा काम बर्बाद हो जाएगा. इसलिए, हमारे लिए बेहतर होगा कि हम इन शैतानों और बदमाशों से बचकर हिंदुस्तान की ओर भाग जाएं. हम अपनी जान और धर्म बचाने के लिए भारत की तरफ भाग जाए...'- पारसियों की ऐतिहासिक किताब किस्सा-ए-संजान में कुछ पारसियों के ईरान से भागने का जिक्र कुछ इस तरह से किया गया है.

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करीब 1,200 साल पहले, पारसी लोगों का एक समूह जहाज से भारत की यात्रा पर निकला था क्योंकि उनकी मातृभूमि फारस (आधुनिक ईरान) पर इस्लामी सेनाओं ने कब्जा कर लिया था. वे गुजरात के तट पर संजन नामक स्थान पर उतरे, जहां उन्हें हिंदू राजा ने शरण दी थी.

यहूदियों की तरह, हिंदुओं ने पारसियों को भी शरण दी और यहां की धरती पर रहने की जगह दी. पहले इन्हें जोरास्ट्रियन के नाम से जाना जाता था जो बाद में चलकर पारसी कहलाए. पारसी भारत आकर यहां के समाज में 'दूध में चीनी' की तरह घुलमिल गए.

पारसी धर्म के मानने वाले भारत में काफी कम संख्या में ईरान से आए लेकिन समुदाय ने आधुनिक भारत के निर्माण में बहुत योगदान दिया है, खासकर बिजनेस को आगे ले जाने में जैसे टाटा परिवार ने किया.

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उद्योगपति रतन टाटा, जिन्होंने अपने वेंचर्स में भारत को सर्वोपरि रखा,  हमें याद दिलाते हैं कि 'दूध में चीनी' से देश को कितना लाभ हुआ है. रतन टाटा का 9 अक्टूबर को निधन हो गया. वे 86 साल के थे.

फारस (ईरान) में उत्पीड़न का शिकार हो भागे भारत

पारसी धर्म विश्व के सबसे पुराने एकेश्वरवादी धर्मों में से एक है, जिसकी स्थापना जरथ्रुस्ट ने प्राचीन फारस में लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व में की थी. जरथ्रुस्ट ने ईश्वरीय गुण वाले अहुरमज्दा की बात की और उनके अवधारणों को जल्द ही ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी शामिल कर लिया गया. पारसी धर्म की यह अवधारणा भी दूसरे धर्मों ने स्वीकार कर ली कि हर आत्मा को मृत्यु के बाद न्याय का सामना करना पड़ता है. मरने के बाद स्वर्ग-नरक में जाने से पहले आत्मा को न्याय के दिन का सामना करना पड़ता है.

यह धर्म एक समय में फारस में प्रमुख धर्म था, खास तौर पर Achaemenid और Sassanian साम्राज्यों के दौरान. यह चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में सिकंदर महान ने जब फारस पर आक्रमण किया तब भी यह धर्म अपना असितत्व बचाने में कामयाब रहा.

इस्लामिक आक्रमणकारियों से भागकर भारत आए पारसी

हालांकि, 7वीं शताब्दी के इस्लामी आक्रमण ने पारसियों को अपनी धरती से भागने पर मजबूर कर दिया. नए मुस्लिम शासकों ने ऐसी नीतियां लागू कीं, जिसने पारसियों को हाशिए पर डाल दिया. इसमें पारसियों पर जजिया कर लगाना और धार्मिक प्रतिबंध शामिल थे.

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किस्सा-ए-संजान, जोरास्ट्रियन का सबसे पुराना लिखित इतिहास है, जिसमें बताया गया है कि इस्लामी शासन के तहत फारस में पारसी समुदाय को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा. किस्सा-ए-संजान को 16वीं शताब्दी में गुजराती शहर नवसारी में बहमन के कोबाद संजाना नाम के एक पारसी पुजारी ने लिखा था. इसमें यह बताया गया है कि पारसी भारत कैसे पहुंचे थे.

इसकी ऐतिहासिक सटीकता पर सवाल खड़े किए जाते हैं, बावजूद इसके, किस्सा-ए-संजान भारत में पारसी समुदाय के प्रारंभिक इतिहास को समझने के लिए एक जरूरी नैरेटिव बनी हुई है.

किस्सा-ए-संजान के अनुसार, 8वीं शताब्दी में, पारसी लोगों का एक समूह गुजरात के तट पर संजान नामक स्थान पर उतरा. यहां समुदाय का स्वागत स्थानीय हिंदू राजा जदी राणा ने की. किस्सा-ए-संजान के अंग्रेजी अनुवाद में लिखा है, 'उस क्षेत्र में एक परोपकारी राजा था, जिसने परोपकार के लिए अपना हृदय खोल दिया था. उसका नाम जदी राणा था; वह उदार और बुद्धिमान था.'

बुद्धिमान पारसी पुजारी ने हिंदू राजा को किया राजी

एक बुद्धिमान जरथुष्ट्र पुजारी उपहार लेकर राजा के पास गया और उसकी भूमि में शरण मांगी. किताब में लिखा गया है, 'हे राजाओं के राजा, हमें इस नगर में स्थान दीजिए: हम अजनबी हैं जो सुरक्षा की तलाश में आपके नगर में आए हैं. हम यहां केवल अपने धर्म के लिए आए हैं.'

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राजा शुरू में उन्हें अपनी जमीन पर बसने की अनुमति देने में हिचकिचा रहे थे. बढ़ती आबादी और स्थानीय संसाधनों पर पड़ रहे दबाव के बारे में अपनी चिंता जताने के लिए जदी राणा ने जोरास्ट्रियन लोगों को दूध से भरा एक पूरा गिलास भेजा. राजा पारसियों को यह संदेश देना चाहते थे कि उनका राज्य पहले से ही भरा हुआ और अब और अधिक लोगों के रहने की जगह नहीं है.

पारसी पुजारी ने बुद्धि और कूटनीति का परिचय देते हुए, एक बूंद चीनी को दूध में मिला दिया. इससे एक बूंद भी दूध नहीं गिरा और पुजारी ने गिलास राजा को लौटा दिया. यह इशारा इस बात का प्रतीक था कि पारसी स्थानीय समुदाय में घुलमिल जाएंगे और यहां कोई मुश्किल खड़ी नहीं करेंगे. संदेश साफ था: वे स्थानीय संस्कृति को समृद्ध करेंगे, बिना उस पर हावी हुए.

पुजारी की बुद्धि और विनम्रता से प्रभावित होकर राजा जदी राणा ने उन्हें अपने राज्य में बसने की अनुमति दे दी. उन्होंने कुछ शर्तें भी रखीं: पारसियों को स्थानीय भाषा और वेशभूषा अपनाना होगा और हथियार त्यागना होगा.

जोरास्ट्रियन राजा की शर्तों से सहमत हो गए और गुजरात में बस गए. समय के साथ, स्थानीय आबादी उन्हें पारसी कहने लगी, जिसका शाब्दिक अर्थ है "फारस के लोग".

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