20वीं सदी के मध्य से लेकर अब तक कई युद्ध हुए. कई अब भी जारी हैं. ये सबकुछ यूएन की आंखों के नीचे हो रहा है. साल 1945 जब ये इंटरनेशनल संगठन बना तो सबसे बड़ा मकसद था शांति बनाए रखना. दुनिया कुछ ही समय के भीतर दो विश्व युद्ध झेल चुकी थी. ऐसे में ताकतवर देशों ने मिलकर तय किया कि एक अंब्रेला बनाया जाए और कई काम किए जाएं. साथ ही उन देशों पर शांति के लिए दबाव बनाया जाए जो लड़ाई-भिड़ाई का इरादा रखते हों.
इस तरह बना यूनाइटेड नेशन्स
जून 1945 में सेन फ्रांसिस्को में एक बैठक हुई, जिसमें 50 देशों के लोग शामिल हुए. इनका नेतृत्व ब्रिटेन, अमेरिका, सोवियत संघ और चीन ने किया. भारत भी फाउंडिंग सदस्यों में से था. यहीं पर संयुक्त राष्ट्र चार्टर तैयार हुआ. चार्टर की लाइन थी- वी द पीपल ऑफ द यूनाइटेड नेशन्स यानी हम संयुक्त राष्ट्र के लोग! ये लोग यानी देश दो चीजों पर फोकस कर रहे थे- एक युद्ध से हर हाल में बचना और ह्यूमन राइट्स को बचाए रखना. धीरे-धीरे इसमें 193 देश शामिल हो गए.
कई फायदे थे इसकी सदस्यता के
यूनाइटेड नेशन्स की सदस्यता पाने के कई फायदे भी थे. जैसे इससे किसी भी मुश्किल के समय मदद पाना आसान हो जाता है क्योंकि कई ताकतवर देश भी असेंबली में होते हैं. अगर कोई देश यूएन से मान्यता-प्राप्त हो तो उसे कर्ज भी आसानी से मिलता है और सदस्य होने के नाते बाकी कई मदद भी. जैसे महामारी या किसी बीमारी के लिए यूएन की शाखाएं देशों में जाकर काम करती हैं. बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर ये काफी खर्च करता है. ये बिल्कुल वैसा ही है, जैसे किसी ताकतवर आदमी का दोस्त होना. उसके शक्तिशाली सर्कल में आपको भी जगह मिल जाती है और धीरे-धीरे संबंध बढ़ते जाते हैं.
कहां से आते हैं यूएन के पास पैसे
दुनियाभर में ह्यूमेनिटेरियन कामों के लिए जमकर पैसे खर्च करने वाले इस संगठन के पास पैसे दो तरीके से आते हैं. हर सदस्य देश को कुछ पैसे देने होते हैं. ये मेंडेटरी रकम है, जो देश की आबादी, उसकी जरूरतों और उसकी अमीरी-गरीबी के हिसाब से होती है.
फंडिंग का एक और भी तरीका है, वो है वॉलंटरी बेस पर पैसे मिलना. इसमें कोई अमीर देश चाहे तो वो यूएन को किसी खास काम के लिए पैसे दे सकता है, जैसे एजुकेशन या शांति-स्थापना के लिए. हालांकि फंडिंग का ये तरीका काफी विवादित रहा. कई बार आरोप लगे कि इस तरह से अमेरिका या दूसरे रईस देशों ने यूएन को अपने घर का संगठन बना लिया. अक्सर कई मीटिंग्स में यूएन पर अमेरिका या यूरोप की जबान बोलने का इलजाम लगता रहा.
सिक्योरिटी काउंसिल का रोल क्या रहा
इसके पास एक सिक्योरिटी काउंसिल है, जिसमें 15 सदस्य हैं. ये संगठन का सबसे शक्तिशाली हिस्सा माना जाता है, जो किसी देश पर पाबंदियां लगा सकता है या मिलिट्री दखल भी दे सकता है. जैसे साल 2011 में लिबिया में किया गया था, जब वहां गृहयुद्ध हो रहा था. सबसे पावरफुल होने के साथ ही ये हिस्सा सबसे विवादित भी रहा. अक्सर कहा जाता रहा कि सिक्योरिटी काउंसिल बड़े देशों की गलतियों को अनदेखा करती है. मजे की बात ये है कि दुनिया से शांति की अपील करने वाली इस शाखा के परमानेंट सदस्य वो देश हैं, जिन्होंने दूसरे वर्ल्ड वॉर के दौरान तमाम कत्लेआम मचाया- अमेरिका, ब्रिटेन, चीन फ्रांस और रूस (तब सोवियत संघ). बाकी 10 सदस्य देश हर दो साल के लिए चुने जाते हैं, यानी ये खास ताकत नहीं रखते.
क्या यूएन चाहे तो युद्ध रुकवा सकता है?
इसका जवाब जानने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं ताकि देख सकें कि क्या ये संगठन कभी युद्ध रुकवा सका है. जवाब है- नहीं. पहला मामला है इजरायल-फिलिस्तीन विवाद का. साल 1948 में यहूदी स्टेट बनने के बाद से लगातार इजरायल और फिलिस्तान के बीच तनाव बना हुआ है. इससे अगले तीन ही सालों के भीतर हजारों फिलिस्तीनी नागरिक मारे गए, और लगभग 2 मिलियन की आबादी में से 7 लाख लोग शरणार्थी बन गए. यूनाइटेड नेशन्स की सिक्योरिटी काउंसिल ने कई बार वीटो पावर लगाई, कितने ही प्रतिबंध लगाए लेकिन लड़ाई अब भी जारी है.
सोमालिया के मिशन में भी नाकामयाब
सोमालिया का गृहयुद्ध भी ऐसा ही एक उदाहरण है. ये सिलसिला जनरल सियाद बर्रे की तानाशाही वाले दौर से शुरू हुआ. साल 1991 में बर्रे के निजाम के ढहने के साथ ही सोमालिया गृहयुद्ध की गिरफ्त में चला गया. अलग-अलग कबीले और विचार के लोग आपस में लड़ने लगे. सबको देश पर अपना राज चाहिए था. तब यूएन ने खास सोमालिया के लिए एक मिशन चालू किया, जिसका नाम था UNOSOM. इसका मकसद था सोमालिया में सिविल वॉर को रोकना और भूख से मरते लोगों को बचाना. लेकिन मिशन बुरी तरह से फेल हुआ, यहां तक कि सोमालियन जनता यूएन के दफ्तरों पर ही हमले करने लगी थी.
खुद ही आ गया संदेहों के घेरे में
ऐसे कई मामले हुए, जिसमें यूएन की अपील और दखल के बाद भी लड़ाइयां नहीं रुकीं. यहां तक कि कई देशों में गृहयुद्ध के दौरान यूएन पर ही आरोप लगा कि वो अमेरिका और ब्रिटेन का पक्ष लेते हुए उनके यहां चिंगारी सुलगा रहा है. बहुत से अफ्रीकी देश फिलहाल भयंकर गरीबी और सिविल वॉर की चपेट में हैं. यूएन लंबे समय से ऐसे देशों में अपने अधिकारी तैनात किए हुए है. उन्हें भारी-भरकम तनख्वाह और सुविधाएं भी मिलती हैं, लेकिन दंगे-फसाद कम नहीं हो रहे. इन देशों के लोग लगातार आरोप लगाते हैं कि यूएन उनकी गरीबी को अपना हथियार बनाए हुए है और लड़ाई रोकने की बजाए उल्टे उसे हवा ही दे रहा है.
यूएन की सबसे ताकतवर शाखा, सिक्योरिटी काउंसिल को बीते सालों में लगातार कमजोर पड़ते देखा गया. इसके पीछे वजह भी है. इसके फाउंडिंग मेंबरों के बीच ही तनाव है, फिर चाहे वो अमेरिका और रूस हों, या चीन और अमेरिका. ब्रिटेन को हमेशा से ही संदिग्ध माना जाता रहा. चीन सिक्योरिटी काउंसिल में अलग ही रोल निभा रहा है. कई इंटरनेशनल रिपोर्ट्स में माना गया कि चीन की शह पाकर ही नॉर्थ कोरिया लगातार न्यूक्लियर टेस्ट कर रहा है. इस तरह से पांचों देश कथित तौर पर अपना फायदा देख रहे हैं. कई विश्लेषक दावा करते रहे कि अगर तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो यूएन की रही-सही ताकत भी चली जाएगी, और लोकल संस्थाएं आगे आएंगी.