आज भी भारत और पाकिस्तान के कई हिस्सों में साल 1947 में हुए दंगे का दर्द मौजूद है. ना जाने कितने ऐसे परिवार और लोग थे, जिन्होंने दंगाइयों की भीड़ में अपनों को खो दिया. हालत कुछ ऐसी थी कि किसी ने अपनी राह हिंदुस्तान की ओर पकड़ी तो किसी ने पाकिस्तान को चुना. आज भी कितने ही ऐसे परिवार हैं जिनके कुछ सदस्य उस समय इंडिया में तो कुछ सदस्य पाकिस्तान में ही रह गए. ऐसा ही कुछ भारत के सिका खान के साथ भी हुआ जो कुछ महीने पहले अपने पाकिस्तानी भाई सादिक खान से मिले. दोनों देशों की सरहदें तो सालों पहले बंट गई लेकिन दो भाइयों का प्यार नहीं बांट पाई और कुछ लोगों की मदद से आखिरकार एक दूसरे मिलना नसीब हो गया.
सिका सिंह सिर्फ 6 महीने के थे, जब वे अपने बड़े भाई सादिक खान से साल 1947 के दंगे के दौरान बिछड़ गए थे. सिका के पिता और बहन की जान दंगे में चली गई लेकिन 10 साल के सादिक बच गए और किसी तरह पाकिस्तान पहुंच गए. दोनों की मां इस गम को नहीं झेल पाईं और उन्होंने नदी में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी. भटिंडा के रहने वाले सिका को गांव वालों ने किसी तरह बचा लिया, जिसके बाद भारत में रह रिश्तेदारों के घर उनका पालन-पोषण हुआ.
बचपन के बाद जब सिका को समझ आई तो उन्होंने अपने परिवार के इकलौते सदस्य पाकिस्तान में रहने वाले अपने भाई सादिक का पता लगाना शुरू किया. दशकों तक सिका खान अपने भाई सादिक की तलाश करते रहे लेकिन दोनों भाई नहीं मिल पाए.
करीब तीन साल पहले सिका के रहने वाले एक डॉक्टर ने उनकी कहानी को गंभीरता से लिया और दोनों भाइयों को मिलवाने की कोशिश में जुट गए. इन्हें मिलाने में पाकिस्तानी यूट्यूबर नासिर ढिल्लो ने भी काफी कोशिश की और आखिरकार इस साल जनवरी महीने में करतारपुर कॉरिडोर में दोनों भाइयों का मिलन हो ही गया.
सिका इस बारे में कहते हैं कि मैं भारत से हूं और वो पाकिस्तान से है, लेकिन हमें एक दूसरे आज भी बेहद प्यार है. सिका ने आगे कहा कि जब हम पहली बार मिले तो गले मिले और खूब रोए. भारत और पाकिस्तान के विवाद को लेकर उन्होंने कहा कि देश आपस में लड़ते रहें, हमें भारत और पाकिस्तान की राजनीति की कोई फिक्र नहीं है.
दोनों भाइयों को मिलवाने वालों में से एक पाकिस्तानी यूट्यूबर 38 वर्षीय ढिल्लो कहते हैं कि वे अभी तक अपने चैनल के जरिए सरहद की जंजीरों में फंसे 300 परिवारों को मिलवा चुके हैं. ढिल्लो ने इस बारे में आगे बताया कि ये उनके पैसे कमाने का जरिया नहीं बल्कि मन की शांति और जुनून है. उन्होंने कहा कि वे इनकी कहानियों को अपने परिवार की कहानी के तौर पर देखते हुए इन सभी की मदद करते हैं.
जब बहन मुमताज से मिले बलदेव-गुरमुख
1947 के दंगों के दौरान एक नवजात बच्ची अपनी मां के शव के पास पड़ी थी, जिसे पाकिस्तान के ही एक मुस्लिम परिवार ने गोद ले लिया. दूसरी बच्ची के पिता को हमेशा ये लगता रहा कि उन्होंने अपनी पत्नी और बच्ची को खो दिया. जिसके बाद उस समय के रिवाज के अनुसार उनकी शादी अपनी पत्नी की बहन से करवा दी गई. जिसके बाद बलदेव और गुरमुख सिंह का जन्म हुआ.
जब दोनों बड़े हुए तो ढिल्लो के यूट्यूब चैनल के जरिए पता चला कि उनकी बहन आज भी पाकिस्तान में जिंदा है. जिसके बाद मिलने की कोशिशें की गईं और आखिरकार करतारपुर कॉरिडोर में तीनों बहन-भाइयों की मुलाकात हो गई. सबसे खास ये है कि दोनों भाइयों ने अपनी बहन को पहली बार देखा था लेकिन प्यार जरा भी कम नहीं था.
65 वर्षीय बलदेव सिंह इस बारे में कहते हैं कि हमने अपनी बहन मुमताज को पहली बार देखा है. उन्होंने आगे कहा कि इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि अब हमारी बहन मुसलमान है. हम तीनों की रगों में एक ही खून बह रहा है. वहीं मुमताज ने इस बारे में कहा कि जब मुझे अपने भाइयों के होने का पता चला तो लगा जैसे खुदा ही ये चाहता है. खुदा की करामात से आखिरकार मैं अपने भाइयों से मिल पाई हूं.