संयुक्त राष्ट्र के ग्लासगो जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में पेश हुए मसौदे में भारत आखिरी पलों में बदलाव कराने में तो कामयाब रहा लेकिन पूरी दुनिया की नजरों में अकेले गुनहगार भी बन गया. दरअसल, ग्लासगो में हाल ही में संपन्न हुए सीओपी 26 (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) सम्मेलन में कोयले को लेकर इस्तेमाल हुई शब्दावली में भारत के विरोध के बाद अहम बदलाव किया गया था.
इसमें कोयले के इस्तेमाल को लेकर 'फेज आउट' टर्म का इस्तेमाल किया गया था यानी कोयले और जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को पूरी तरह से बंद करने का लक्ष्य रखा गया था. हालांकि, भारत ने 'फेज आउट' की जगह 'फेज डाउन' टर्म को शामिल किया यानी कोयले का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद ना करके उसके इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम करने की बात भारत ने कही.
चीन और अमेरिका भी यही चाहते थे कि कोयले के इस्तेमाल को लेकर बहुत सख्ती ना बरती जाए. हालांकि, भारत के आगे आकर विरोध करने की वजह से ग्लासगो जलवायु समझौते की भाषा कमजोर रखने में अमेरिका और चीन की भूमिका जाहिर नहीं हुई.
मामले के जानकारों के मुताबिक, समझौते पर चर्चा के दौरान चीन ने कहा कि वह चाहता है कि कोयले के इस्तेमाल को लेकर वही शब्दावली इस्तेमाल की जाए जो अमेरिका के साथ उसकी बैठक के बाद जारी किए गए साझा बयान में थी.
COP26 से ठीक पहले अमेरिका और चीन ने अपने द्विपक्षीय जलवायु समझौते में 'फेज डाउन' टर्म का ही इस्तेमाल किया था. अमेरिका ने भी चीन के साथ साझा बयान में फेज डाउन पर सहमति दी थी. हालांकि, प्रस्ताव में बदलाव का फैसला भारत पर ही छोड़ दिया गया.
भारत ने पढ़ा संशोधित प्रस्ताव, 200 देशों ने किया समर्थन
भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने फेज आउट टर्म की जगह टेक्स्ट में फेज डाउन टर्म का इस्तेमाल किया. भारत की ओर से किए गए इस बदलाव को करीब 200 देशों का भी समर्थन मिला. आखिरकार समझौते को बचाने के लिए फेज डाउन टर्म को स्वीकार कर लिया गया.
स्विट्जरलैंड, मार्शल आइलैंड्स समेत तमाम देशों ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई. इन देशों ने शिकायत की कि उन्हें समझौते में किसी तरह के बदलाव से रोका गया था जबकि भारत ने ऐन मौके पर संशोधन किया. सीओपी 26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा को इसके लिए माफी भी मांगनी पड़ी. उन्होंने कहा, जिस तरह से सब कुछ हुआ, उसके लिए मैं माफी मांगता हूं. मैं आपकी गहरी निराशा को समझ सकता हूं लेकिन आप सब जानते हैं कि इस समझौते का होना कितना जरूरी था.
चीन, अमेरिका और भारत दुनिया के तीन सबसे बड़े प्रदूषक देश हैं. तीनों देशों ने आने वाले दशकों में कार्बन उत्सर्जन में कटौती कर नेट जीरो के टारगेट तक पहुंचने की बात कही है. हालांकि, जब भारत ने कोयले का इस्तेमाल रोकने की जगह धीरे-धीरे कटौती करने की बात कही तो चीन ने इसका समर्थन किया. ईरान ने भी कोयले के इस्तेमाल को लेकर भारत और चीन के रुख का समर्थन किया.
कोयले का इस्तेमाल पूरी तरह से रोकने की मुहिम के खिलाफ भले ही भारत साफ तौर पर खलनायक बन गया लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि भारत के अलावा प्रस्ताव की भाषा बदलवाने में चीन की भी अहम भूमिका रही. सीओपी 26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने भी भारत और चीन दोनों को ही कसूरवार ठहराते हुए कहा कि दोनों देशों को पूरी दुनिया को अपने फैसले का स्पष्टीकरण खुद ही देना होगा.
रिपोर्ट के मुताबिक, चीन के राजनयिकों ने बंद कमरे में हुई चर्चा में पहले ही साफ कर दिया था कि वे कोयले के इस्तेमाल पर पाबंदी को लेकर सख्ती के पक्ष में नहीं हैं. सीओपी सम्मेलन में शामिल हुए चीनी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ली झेंग ने शुक्रवार को दिए एक इंटरव्यू में कहा, ज्यादा उत्साह में फैसले लेकर हम पर्यावरण को लेकर हो रही वैश्विक कोशिशों पर पानी फेर सकते हैं. जीवाश्म ईंधन को अचानक से दुश्मन घोषित करने से हम अपना ही नुकसान कर बैठेंगे.
पूरी दुनिया में बढ़ते ऊर्जा संकट के बीच भारत और चीन की कोयले पर निर्भरता बढ़ी है. कोयले के इस्तेमाल पर किसी भी तरह की पाबंदी दोनों ही देशों को स्वीकार नहीं थी. यहां तक कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन को भी कोयला भंडार वाले इलाकों से आने वाले अमेरिकी सांसदों के विरोध के सामने झुकना पड़ा.
भारत अकेले जिम्मेदार कैसे?
कई विश्लेषकों का कहना है कि समझौते में आखिरी पलों में बदलाव के लिए सिर्फ भारत को जिम्मेदार ठहराना बिल्कुल गलत है. कोई समझौता तभी होता है, जब ज्यादातर देशों की सहमति होती है. अमेरिका समेत कई विकसित देश खुद भी चाहते थे कि कोयले के इस्तेमाल को लेकर भाषा ज्यादा सख्त ना हो क्योंकि फिर उन्हें गरीब देशों को ज्यादा आर्थिक मदद देनी पड़ती.
'पॉलिसी ऐंड कैंपेंस फॉर ऐक्शन ऐड यूएसए' के डायरेक्टर ब्रैंडन वु ने ट्वीट किया, समस्या भारत नहीं बल्कि अमेरिका और बाकी अमीर देश हैं जो जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने में गरीब देशों की मदद करने से इनकार कर चुके हैं. दरअसल, विकासशील देशों का तर्क है कि अमेरिका समेत तमाम विकसित देश जीवाश्म ईंधन का भरपूर दोहन कर अपना विकास कर चुके हैं जबकि उनकी आर्थिक प्रगति अभी पूरी तरह से नहीं हुई है. ऐसे में, अमीर देशों की जिम्मेदारी बनती है कि वे विकासशील देशों को आर्थिक मदद मुहैया कराएं.
चीनी मीडिया ने भी कोयले के इस्तेमाल पर भारत के रुख का खुलकर समर्थन किया है. सिंगापुर के नेशनल यूनिवर्सिटी के एशिया रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रतिष्ठित फेलो और एक अनुभवी राजनयिक किशोर महबूबानी ने ग्लोबल टाइम्स के साथ बातचीत में कहा कि विकासशील देशों के पास भी अपने लोगों के जीवन में सुधार करने का अवसर होना चाहिए.
उन्होंने कहा कि विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है. ऐसे में इन देशों को ये बात समझनी जरूरी है कि विकासशील देशों को भी आगे बढ़ने का मौका मिलना चाहिए. विकसित देश दशकों से अपने आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए कोयले पर निर्भर हैं और ये देश चाहते हैं कि विकासशील देश जो पिछले कुछ सालों में आर्थिक मोर्चे पर तेजी से आगे बढ़े हैं, वे कोयले को पूरी तरह से खत्म कर दें? मुझे लगता है कि विकसित देशों की ये मांग काफी अनुचित है. पश्चिमी देश, विकासशील देशों को क्लाइमेट चेंज से लड़ने के लिए सालाना 100 अरब डॉलर देने के अपने वादे को पूरा करके इस दिशा में एक बड़ा कदम उठा सकते थे. दुख की बात है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया.