इसी फरवरी में चीन ने ब्राजील के साथ एक करार किया. इसके तहत आपस में व्यापार के लिए वे डॉलर की बजाए युआन में डील करेंगे. इस एग्रीमेंट के साथ ही ब्राजील लैटिन अमेरिका का पहला देश बन गया, जो क्रॉस-बॉर्डर इंटरबैंक पेमेंट सिस्टम (CIPS) में शामिल हुआ. CIPS को कुछ साल पहले चीन ने शुरू किया था ताकि देशों को अपनी करेंसी में लेनदेन के लिए राजी करके अपनी मुद्रा को बढ़ावा दे सके.
क्या तय किया अर्जेंटीना ने
हाल ही में अर्जेंटीना की सरकार ने भी एलान किया कि उनका देश चीन से आयात के लिए डॉलर के बजाए चीनी मुद्रा युआन में भुगतान करेगा. उसने यह फैसला कथित तौर पर अपने यहां डॉलर के घटते भंडार को देखते हुए लिया. असल में अर्जेंटीना में इस वक्त भयंकर सूखे के हालात हैं, जिस कारण निर्यात में भारी गिरावट आई है. इसका असर डॉलर के भंडार पर भी हुआ. यही वजह है कि पिछले साल अपने विदेशी मुद्रा भंडार में मजबूती लाने के लिए अर्जेंटीना ने चीन के साथ पांच अरब डॉलर की मुद्रा अदला-बदली की थी. अब ये एग्रीमेंट भी हो चुका, जिसमें चीन से आयात के लिए वो डॉलर की बजाए चीनी मुद्रा युआन में भुगतान करेगा.
किस बात के अनुमान लगाए जा रहे हैं
माना जा रहा है कि धीरे-धीरे कई देश चीन के पाले में आ सकते हैं. चीन ने फिलहाल रूस, पाकिस्तान और कई दूसरे देशों से अलग-अलग लेवल पर ऐसा एग्रीमेंट किया है. वे आपस में चीनी मुद्रा के जरिए व्यापार कर रहे हैं. जिस तरह से चीन बिजनेस में आगे बढ़ चुका है, बहुत मुमकिन है कि वो अपनी करेंसी को अमेरिकी डॉलर के बराबर खड़ा कर ले. ऐसा होगा तो कितना समय लगेगा, या फिर होगा ही नहीं, ये समझने के लिए एक बार यह जानना जरूरी है कि आखिर कैसे डॉलर ने दुनिया पर कब्जा किया.
कैसे डॉलर ने पाई बादशाहत
इसके तार दूसरे विश्व युद्ध से जुड़े हैं. तब अमेरिका को छोड़कर ज्यादातर देशों में भयंकर तबाही मची थी. इमारतें, सड़कें, पुल सारा सिस्टम खत्म हो गया था. युद्ध खत्म होने के बाद देश खुद को सुधारने में लगे, लेकिन उनके पास पैसे तो थे ही नहीं. ऐसे में अमेरिका ने उन्हें मदद दी, बदले में देश एग्रीमेंट करने लगे कि इतने समय के भीतर वे इतना गोल्ड देंगे. अमेरिका ने देखा कि लोहा गरम है तो उसने अपना दांव खेला. वो देशों से कहने लगा कि गोल्ड की बजाए, वे अमेरिकी डॉलर में सौदा करें तो ज्यादा बढ़िया रहेगा.
अमेरिका के पास सबसे बड़ा गोल्ड भंडार
तब न्यू हैम्पशर के ब्रेटन वुड्स में विकसित देश मिले और उन्होंने अमरीकी डॉलर के मुकाबले सभी मुद्राओं की विनिमय दर तय की. उस समय अमरीका के पास दुनिया का सबसे बड़ा गोल्ड रिजर्व था. ये मान लीजिए कि पूरी दुनिया का तीन-चौथाई सोना उसके पास था. इससे उसकी बात और उसकी मुद्रा दोनों की मजबूती पक्की हो गई.
यहीं से डॉलर का ग्राफ सबसे ऊपर हो गया
ब्रेटन वुड्स नाम से जाने गए इस समझौते के बाद अमेरिकी डॉलर तेजी से ऊपर जाने लगा. हालांकि सत्तर के दशक में जब देश युद्ध के दर्द से बाहर आ चुके थे, तभी नई चुनौती आ गई. महंगाई बढ़ने लगी. ऐसे में कई देशों ने डॉलर की बजाए गोल्ड मांगना शुरू कर दिया. अमेरिका पर भारी दबाव था कि वो देशों को सोना देकर अपना कोष खाली कर ले, या कुछ नया सोचे. तब तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने डॉलर को सोने से अलग कर दिया. लेकिन इतने ही सालों में डॉलर काफी ऊपर निकलते हुए इंटरनेशनल मार्केट में जम चुका था. इसकी यही बादशाहत अब तक बनी हुई है.
कौन सी मुद्रा, कहां पर
अमेरिकी डॉलर फिलहाल सबसे बड़ी ग्लोबल रिजर्व करेंसी है. यानी वो मुद्रा जिसका पर्याप्त भंडार सरकारी या सेंट्रल बैंकों के पास होना चाहिए. साल 2018 के आखिर में डॉलर का शेयर 62 प्रतिशत था. इसके बाद 20.7 के साथ यूरो का नंबर है, फिर 5.2 प्रतिशत के साथ जापानी मुद्रा येन है. यूके की मुद्रा पाउंड के पास 4.2 थे, वहीं चीनी मुद्रा का प्रतिशत बहुत कम था. लेकिन अब ये तेजी से बढ़ा है.
फिलहाल ये है स्थिति
चीन की मुद्रा ने वहां के सीमा-पार व्यापार में डॉलर को पछाड़ दिया है. स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ फॉरेन एक्सचेंज के आंकड़ों के आधार पर समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने हिसाब किया कि मार्च में चीन के कुल सीमा-पार व्यापार में लेनदेन के लिए युआन की हिस्सेदारी 48.4 प्रतिशत रही जबकि डॉलर का हिस्सा एक महीने पहले के 48.6 प्रतिशत से घटकर 46.7 प्रतिशत हो गया. ग्लोबल व्यापार में फिलहाल युआन का इस्तेमाल कम होता है लेकिन अब बहुत कुछ बदल रहा है.
तो क्या युआन नया डॉलर बन जाएगा!
कजाकिस्तान, पाकिस्तान, लाओस, ब्राजील और अर्जेंटीना के साथ चीन का युआन में व्यापार होने लगा है. रूस में भी ये दिखने लगा है. वहां तेल के बदले युआन दिया जाने लगा है. यहां तक कि कई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक रूसी घरेलू बाजार में भी चीनी करेंसी आने लगी है. लेकिन फिलहाल इसके सबसे ताकतवर मुद्रा बनने की गुंजाइश बहुत कम है.
इन कारणों से रह सकता है पीछे
एक वजह चीन के अधिकारियों का दखल है. वहां कम्युनिस्ट पार्टी के आला लोग ही तय करते हैं कि देश के बाहर कैपिटल फ्लो कितना हो. ये एक तरह से अनिश्चित स्थिति है, जिसमें कभी भी कम-ज्यादा हो सकता है. ऐसे में दूसरे देश चीनी मुद्रा में व्यापार का खतरा नहीं लेना चाहेंगे. दूसरी एक वजह ये है कि अमेरिकी डॉलर आजमाई हुई मुद्रा है. 40 के बाद से अब तक लगातार यही ग्लोबल करेंसी बनी रही और सबकुछ लगभग आराम से चलता रहा. फिलहाल डॉलर के पास इतने दशकों का तजुर्बा भी है, और भरोसा भी. इस वजह से भी ज्यादातर देश चीनी मुद्रा की बजाए डॉलर पर ही टिके हुए हैं.