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वो अरब देश, जहां टाइम को लेकर हैं दो मजहबों में टकराव के हालात

लंबे समय से उथलपुथल झेलते देश लेबनान में अब बड़ा फैसला हुआ. वहां की कैबिनेट ने डे-लाइट सेविंग टाइम यानी घड़ियों को एक घंटा पीछे करने के प्लान को महीनेभर के लिए टाल दिया. उनका कहना है कि इससे रोजा रख रहे मुस्लिमों को राहत मिलेगी और वे समय पर अपना व्रत खोल सकेंगे. हालांकि चर्च इसपर भड़क उठा और अपनी घड़ियों को आगे बढ़ा दिया.

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लेबनान में लंबे समय से राजनैतिक-आर्थिक अस्थिरता चल रही है. सांकेतिक फोटो (Unsplash)
लेबनान में लंबे समय से राजनैतिक-आर्थिक अस्थिरता चल रही है. सांकेतिक फोटो (Unsplash)

लेबनान में लंबे समय से हर साल मार्च के महीने में घड़ियों को एक घंटा आगे कर दिया जाता है. ये आधिकारिक तौर पर होता है. यानी जब वाकई में सुबह के 10 बजे होंगे तो लेबनान में 11 बजे का समय दिखाएगा. सारे दफ्तर खुल जाएंगे और अगर किसी की 11 बजे की अपॉइंटमेंट है, तो उसे घड़ी में आगे बढ़ी सुइयों के अनुसार ही पहुंचना होगा. ये डे-लाइट सेविंग टाइम है.

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इस प्रोसेस को बहुत से पश्चिमी देश मानते हैं, जिसकी वजह ये है कि वहां सर्दियों में दिन छोटे, जबकि गर्मियों में सूरज बहुत देर से डूबता है. ऐसे में दिन का पूरा-पूरा इस्तेमाल हो सके, इसके लिए साल में दो बार घड़ियां ऑफिशियली आगे-पीछे की जाती हैं. ये नियम देशभर में लागू होता है.

अरब देश में बदला गया फैसला
लेबनान में हालात अलग हैं. वहां हर साल मार्च के आखिरी संडे को घड़ियां एक घंटा आगे की जाती हैं. लेकिन वहां के कार्यवाहक प्रधान मंत्री नजीब मिकाती ने इस बार इसे 20 अप्रैल से लागू करने का एलान किया. उनकी दलील थी कि इससे रमजान के दौरान लोगों को आराम मिल सकेगा. कुछ ही दिनों बाद पीएम ने एक बार फिर अपना फैसला बदलते हुए कहा कि 20 अप्रैल नहीं, डे-लाइट सेविंग टाइम इस साल बुधवार, 29 मार्च की आधी रात से लागू होगा. 

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lebanon daylight saving time conflict among muslims and christians
दिन के रोशनी के अधिकतम इस्तेमाल के लिए डे-लाइट सेविंग का तरीका निकाला गया. सांकेतिक फोटो (Pixabay)

चर्च ने इसे बहुसंख्यकों का तुष्टीकरण मानते हुए जताया विरोध
गुस्साए हुए चर्च अधिकारियों ने हर साल की तरह ही महीने के आखिरी रविवार को अपनी घड़ियों को एक घंटा आगे कर दिया. माना जा रहा है कि चर्च को ये लगा कि लेबनान की बहुसंख्यक आबादी को खुश करने के लिए कार्यवाहक पीएम नियम तोड़ रहे हैं. बता दें कि एक समय पर अपनी समृद्धि के लिए मशहूर ये देश अब भयंकर गरीबी और महंगाई से त्रस्त है. यहां तक कि लेबनानी मुद्रा की कीमत 90 प्रतिशत तक गिर चुकी है. ऐसे में देश के अंदरूनी संघर्ष बढ़ रहा है.

बार-बार फैसला बदलने और चर्च और कैबिनेट के बीच तनाव के चलते पूरे देश में अफरातफरी मच चुकी है. आधी घड़ियां अपने पुराने समय से चल रही हैं, जबकि आधी घड़ियां डे-लाइट सेविंग टाइम मानते हुए समय से घंटाभर आगे हो चुकीं. इससे काम पर भी असर हो रहा है क्योंकि किसी को सही समय नहीं पता. इंटरनेशनली भी वे किस समय को सही मानें, इसपर भी उलझन हो चुकी है.

क्या है डे-लाइट सेविंग टाइम?
डीएसटी वो प्रैक्टिस है, जिसके तहत घड़ियां अपने स्टैंडर्ड टाइम से एक घंटा आगे कर दी जाती हैं. ये गर्मियों में होता है. वहीं सर्दियां आते ही घड़ी को एक घंटा पीछे कर दिया जाता है. ये इसलिए होता है ताकि लोग दिन की रोशनी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर सकें. यानी सर्दियों में जब दिन जल्दी ढलेगा तो काम जल्दी बंद हो जाएंगे, जबकि गर्मी में काम जल्दी शुरू हो जाएगा. 

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lebanon daylight saving time conflict among muslims and christians
दुनिया के लगभग 70 देश डे-लाइट सेविंग को मानते हैं. सांकेतिक फोटो (Pixabay)

इस देश ने की थी शुरुआत
साल 1908 में कनाडा के एक छोटे से हिस्से ने इसकी शुरुआत की थी. फायदेमंद होने के चलते ये ट्रेंड जल्द ही पूरे कनाडा में फैल गया. फिर हर साल वहां डीएसटी की आधिकारिक घोषणा होने लगी. साल 1916 में जर्मनी और ऑस्ट्रिया ने भी अपने यहां टाइम का ये स्टैंडर्ड लागू किया. तब फर्स्ट वर्ल्ड वॉर चल रहा था और देश चाहते थे कि वे दिन की रोशनी में ही सारे काम खत्म कर लें ताकि बिजली बचाई जा सके. ऊर्जा की खपत कम होती देख पश्चिम के कई देश इसे फॉलो करने लगे. ये सबकुछ विश्व युद्ध के दौरान ही होने लगा. 

फिलहाल 70 से ज्यादा देशों में डीएसटी को माना जा रहा है. सभी वे देश हैं, जो एक्सट्रीम सर्दियां झेलते हैं. 

क्या कोई नुकसान भी है?
कुदरती ऊर्जा की ज्यादा खपत और आर्टिफिशियल लाइट को कम करने का ये एक बढ़िया तरीका है, खासकर उन देशों के लिए जहां सर्दियां ज्यादा लंबी होती हैं. लेकिन इससे कई तरह की दिक्कतें भी आती हैं. जैसे घड़ी का समय आगे-पीछे करने पर लोगों का स्लीप-पैटर्न बदलता है. वे समय से कम सोने लगते हैं. इसका असर मोटापे, स्ट्रेस और लाइफस्टाइल डिसीज के रूप में दिख सकता है. एक दिक्कत ये भी है कि फिर ऐसे देशों को उन मुल्कों के साथ तालमेल बिठाने में परेशानी होती है, जो यूनिवर्सल स्टैंडर्ड टाइम जोन फॉलो करते हैं. दोनों देशों की घड़ियों में एक घंटा फर्क आ जाता है और अगर कोई मीटिंग शिड्यूल हो तो कंफ्यूजन पैदा होने लगता है.

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