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नोबेल विजेता और 'गांधीवादी' सू ची को क्यों नहीं दिखता रोहिंग्या का दर्द

ह्यूमन राइट्स वॉच का मानना है कि सू ची ज्यादा नहीं बोल रही हैं, क्योंकि उन्हें सेना और बर्मी जनता के विरोध का खतरा है. म्यांमार में बड़ी आबादी बौद्ध समुदाय की है, जो रोहिंग्या मुसलमानों को बिल्कुल पसंद नहीं करते.

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आंग सान सू ची
आंग सान सू ची

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म्यांमार के रखाइन प्रांत में चल रहे सेना के ऑपरेशन और बहुसंख्यकों की हिंसा में बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुस्लिमों को निशाना बनाया जा रहा है. हालत ये है कि लाखों रोहिंग्या अपनी जान बचाने के लिए भारत, बांग्लादेश, मलेशिया जैसे देशों की ओर शरण के लिए भाग रहे हैं. इस बड़े मानवीय संकट में म्यांमार की नेता आंग सान सू ची की भूमिका और रवैये पर सवाल उठ रहे हैं.

सू ची इस मामले में रोहिंग्या की बजाय देश की सेना और बहुसंख्यक बौद्ध समुदाय के साथ खड़ी हैं. लोग हैरान हैं कि नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित सू ची अपने ही देश की एक बड़ी आबादी को हिंसा का शिकार होते कैसे देख रही हैं. वो भी तब जबकि सू ची ने अपनी जिंदगी का एक बड़ा वक्त भारत में बिताया है और वे महात्मा गांधी के शांति और अहिंसा के आदर्शों की बड़ी प्रशंसक रही हैं.

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सू ची का क्या था भारत से नाता?

सू ची 1960 में सबसे पहले भारत आई थीं जब उनकी मां डाओ खिन ची को भारत में बर्मा का राजदूत बनाकर भेजा गया था. उस समय वे 15 साल की थीं. सू ची ने दिल्ली के ही कॉन्वेन्ट ऑफ जीसस एंड मेरी स्कूल में पढ़ाई की और स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद वे दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज गईं. सू ची ने इसी कॉलेज से राजनीति शास्त्र में ग्रैजुएशन किया. खास बात ये है कि वे उस समय दिल्ली के 24 अकबर रोड में रहा करती थीं जहां आज कांग्रेस का मुख्यालय है. नेहरू ने तब खिन ची के सम्मान में 24 अकबर रोड का नाम बर्मा हाउस रख दिया था. सू ची तब उसी कमरे में रहती थीं जो अब राहुल गांधी को कांग्रेस उपाध्यक्ष होने के नाते मिला हुआ है. किताब '24 अकबर रोड' के लेखक वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई लिखते हैं कि सू ची तब संजय गांधी और राजीव गांधी के साथ खेला करती थीं.

रोहिंग्या पर क्या है आंग सान सू ची का रुख?

आंग सान सू ची ने मंगलवार को कहा कि वह रोहिंग्या संकट की अंतरराष्ट्रीय जांच से नहीं डरती. उन्होंने मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वालों को इंसाफ के कठघरे में लाने का प्रण भी किया. साथ ही सू ची ने म्यांमार से चार लाख से अधिक मुस्लिम शरणार्थियों को पलायन के लिए बाध्य करने वाली हिंसा पर सेना को दोषी ठहराने से इनकार कर दिया.

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इसके साथ ही सू ची ने कुछ शरणार्थियों को दोबारा बसाने का संकल्प लिया. हालांकि, उन्होंने रखाइन प्रांत में हिंसा रोकने के लिए कोई समाधान पेश नहीं किया.

क्या बंधे हुए हैं सू ची के हाथ?

सू ची को जानने वालों का कहना है कि 72 साल की नेता में 50 साल से देश पर काबिज रही सेना पर अंकुश लगाने का दमखम नहीं है. वहीं, मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच का मानना है कि सू ची ज्यादा नहीं बोल रही हैं, क्योंकि उन्हें सेना और बर्मी जनता के विरोध का खतरा है. म्यांमार में बड़ी आबादी बौद्ध समुदाय की है, जो रोहिंग्या मुसलमानों को बिल्कुल पसंद नहीं करते. इसलिए न सिर्फ देश में आंतरिक संकट की किसी आशंका और राजनीतिक लाभ के मद्देनजर सू ची तमाम आलोचनाओं के बावजूद रोहिंग्या मुस्लिमों पर जुल्म करने वाली सेना के साथ खड़ी नजर आ रही हैं.

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